आज गली में फिर चांद निकला / जयप्रकाश चौकसे

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आज गली में फिर चांद निकला
प्रकाशन तिथि : 21 अप्रैल 2014


महेश भट्ट की अजय देवगन अभिनीत फिल्म 'जख़्म' का गीत है, 'वो आए बड़े दिनों के बाद, आज गली में फिर चांद निकला'। इस गीत की धुन और शब्द मन के सूखे कुएं में भांय भांय करते हैं। हर आम आदमी की इच्छा होती है कि उसका मन मानसरोवर सा हो परंतु संकीर्णता, पूर्वग्रह और अज्ञान मन में अंधे कुओं का निर्माण कर देते हैं। महेश भट्ट को आज अपनी श्रेष्ठ फिल्म 'जख़्म' की याद आ रही है क्योंकि उनकी निर्माण संस्था के लिए हंसल मेहता ने 'सिटी लाइट्स' बनाई है जिसे अपने भावुक क्षण में महेश भट्ट अपनी फिल्म ओबिचुरी (मृत्यु के बाद दी गई आदरांजली) तक मानने को तैयार हैं परंतु महेश जैसे आहत आदमी का यह 'सारांश' नहीं हो सकता, यह महेश भट्ट होने का अर्थ भी नहीं हो सकता। दरअसल हंसल की 'शाहिद' ने महेश को यादों के गलियारे में जाकर अपना 'जख़्म' देखने को बाध्य किया है। 'सिटी लाइट्स' तो 'मेट्रो मनीला' नामक फिलिपींस फिल्म से प्रेरित है और इसका 'जख़्म' या 'शाहिद' से कोई रिश्ता नहीं है।

'मेट्रो मनीला' गांव से महानगर आए परिवार की कहानी है और उपभोगवाद में आकंठ डूबे महानगर में सरल व्यक्ति के संघर्ष की कहानी है जिसमें उसकी कमसिन बेटी को बार गर्ल बनना पड़ता है। उसे महानगर यह भी सिखाता है कि यहां अपराध किए बिना जीना कठिन है। कस्बों से पलायन करके महानगर आने पर अनेक फिल्में बनी हैं। राजकपूर की 'आवारा', 'श्री 420' और 'जागते रहो' के नायक भी पलायन करके आए लोग हैं, 'गमन' भी बहुत अच्छी फिल्म थी। महेश भट्ट ने हंसल की 'शाहिद' के कारण उन्हें यह फिल्म बनाने की स्वतंत्रता दी और उन्हें अपने ही कैम्प में विरोध से भी बचाया। फिल्म के प्रदर्शन के बाद ही यह समझ सकेंगे कि महेश भट्ट के लिए यह फिल्म इतनी महत्वपूर्ण क्यों है?

महेश भट्ट विश्व सिनेमा के जानकार हैं और जानते हैं कि 'सिटी लाइट्स' चार्ली चैपलिन की कालजयी कृति है और ध्वनि के आने के बाद भी चैपलिन ने पेन्टोमाइम कला को आदरांजलि देने के लिए इसे मूक फिल्म की तरह ही बनाया था और हॉलीवुड के विशेषज्ञों का ख्याल था कि ध्वनि युग में यह मूक फिल्म नहीं चलेगी परंतु यह फिल्म अत्यंत सफल रही। यह 1931 में उस समय प्रदर्शित हुई थी जब आर्थिक मंदी का दौर था। इस फिल्म में एक अमीर सनकी आदमी रात में शराब के नशे में दानी और मिलनसार रहता है परंतु होश आते ही वह सब कुछ भूल जाता है। इस पात्र को अनेक फिल्मकारों ने दोहराया है परंतु चैपलिन के स्पर्श का अभाव इसे कैरीकेचर बना देता है।

बहरहाल महेश भट्ट ने 'मेट्रो मनीला' से प्रेरित हंसल द्वारा निर्देशित फिल्म को भी यही नाम दिया है। इसका रहस्य वे ही जानें परंतु चैपलिन ने ध्वनि युग में मूक फिल्म बनाने का जो जोखिम लिया था, कुछ उसी तरह का जोखिम महेश भट्ट ने इस मायने में लिया है कि उनकी कम्पनी की कुछ अलग किस्म की फिल्म है। आज महेश भट्ट और मुकेश भट्ट की विशेष फिल्म्स आर्थिक दृष्टि से इतनी मजबूत है दर्जन भर असफल फिल्मों से भी उनकी इमारत हिल नहीं सकती। उन्होंने अपने साहस से सितारा विहीन फिल्में बनाकर अपना यह ऊंचा स्थान बनाया है। मुकेश और महेश सगे भाई होते हुए भी विपरीत स्वभाव के हैं परंतु उनकी टीम कमाल की है। महेश भट्ट हमेशा से लीक से हटकर सोचते रहे है परंतु मुकेश भट्ट अत्यंत व्यावहारिक रहे हैं और उनके लिए बजट को संयत रखना एक पैशन रहा है। हंसल मेहता की 'सिटी लाइट्स' में जरूर कोई बात है कि महेश भट्ट को यह इतनी प्रिय लगती है कि वे इसे अपनी फिल्मी आेिबचुरी का एक हिस्सा तक मानने को तैयार है।

यह संभव है कि महेश भट्ट को यह लगता हो कि अब भारत में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को उसके पूरे वीभत्स रूप में स्वीकार किए जाने का समय आ गया है, हव्वा तो कुछ ऐसा ही है। अब कस्बों से महानगर की ओर पलायन की गति तीव्र होगी और महानगरों की चकाचौंध में कब चांद निकला यह ज्ञात ही नहीं हो पायेगा। उनके 'जख़्म' के उसी गीत की एक पंक्ति है 'आज की रात मैं जो सो जाती, खुलती आंख सुबह हो जाती, मैं तो बस हो जाती बर्बाद, गली में आज चांद निकला..'। महेश भट्ट को प्रदर्शन पूर्व अपनी किसी फिल्म की इतनी प्रशंसा करते नहीं देखा गया है, इसलिए यह फिल्म विशेष हो सकती है।