आज फिर जीने की तमन्ना है...? / जयप्रकाश चौकसे

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आज फिर जीने की तमन्ना है...?
प्रकाशन तिथि : 20 मार्च 2020

राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘3 इडियट्स’ में आईआईटी का डीन अनुशासन प्रिय व्यक्ति है और उसे यह भरम है कि कुछ नया करना परीक्षा में अच्छे अंक लाने से अधिक जरूरी नहीं है। नायक को इससे शिकायत है। वह और उसके दो मित्र आपसी बातचीत में डीन को वायरस कहकर संबोधित करते हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा में ‘वायरस’ शब्द का प्रयोग पहली बार हुआ। कोरोना वायरस ने हमें जीवन को देखने का नया नजरिया दिया है। अब हम सोचने लगे हैं कि जीवन का प्रायोजन क्या है, हमारे अपने अस्तित्व का क्या अर्थ है। यह दार्शनिकता हमारा स्वत: स्फूर्त विचार नहीं है वरन् हमारी मजबूरी है। कंप्यूटर में भी वायरस लग जाता है और कंप्यूटर को वायरस मुक्त करने के कुछ तरीके हैं। खेलकूद के क्षेत्र में भी वायरस होता है। शिखर खिलाड़ी ऐसे दौर से गुजरता है कि वह अपना श्रेष्ठ नहीं दे पाता।

मेडिकल क्षेत्र में वायरस पर जागरूकता अंग्रेजी के कवि पी.बी.एस. शैली की मृत्यु के बाद हुई, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कवि की मृत्यु किसी बीमारी के कारण हुई।

कवि होना ही बहुत जोखम भरी बात है। पी.बी.एस. शैली की कविताएं की कविता ‘ओज़ीमंडिआस’ का आशय यह है कि सृष्टि में सबसे बड़ा करता स्वयं मनुष्य है। यह विचार ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ नामक आदत से प्रेरित है। मनुष्य सृष्टि का केंद्र और कर्ता है।

कीटाणुओं से लड़ा जा सकता है, क्योंकि वह दिखाई देते हैं। वायरस कमोबेश ‘मिस्टर इंडिया’ की तरह है। दिखाई नहीं देने वाले शत्रु से लड़ना अत्यंत कठिन है। शरीर की बीमारी से लड़ने की क्षमता घट जाती है। प्रदूषण और खाने पीने की चीजों में मिलावट ने हमें कमजोर बना दिया है। हमारी सामूहिक सोच में वायरस ने प्रवेश कर लिया है। विषाक्त राजनीतिक विचारधारा के कारण हम अंधे युग में पहुंच गए हैं। काणा अंधों में राजा होता है। उसके अंधत्व से अधिक भयावह है उसका बहरा होना। कोई कराह उसके कानों तक पहुंच नहीं पाती। उसके अवचेतन में स्पात समाया है। संकीर्णता कोई नई खोज नहीं है। हम सदियों से संकीर्णता ग्रस्त रहे हैं। यह तो कुछ महान नेताओं का करिश्मा था कि एक छोटे से कालखंड में हम संकीर्णता से मुक्त नजर आए। संकीर्णता हमारी जेनेटिक बीमारी रही है। वैचारिक खुलापन हमारी सामूहिक मृगतृष्णा रही है। रेगिस्तान में हरीतिमा का भरम हो जाता है। आज तो हरियाली भी संदिग्ध नजर आती है।

खाकसार की फिल्म ‘शायद’ का कैंसर ग्रस्त नायक अपना विश्वास खो चुका है। एक दृश्य में वह कैप्सूल खोलकर उसकी दवा फेंक देता है और कैप्सूल में एक नन्हा छर्रा डाल देता है। उसे अपनी हथेली पर रखता है। मांसपेशियों की हरकत से वह कैप्सूल हथेली पर नृत्य करता नजर आता है। क्या हथेली पर इस तरह का खेल भाग्य की जीवन रेखा को छोटा कर देता है। इच्छाशक्ति सबसे कारगर दवा है। साहित्य, संगीत इच्छा शक्ति का विकास करते हैं। अन्याय और असमानता आधारित समाज में जितना अधिक होता है। उतने ही वेग में प्रकाश किरण आने का विश्वास पैदा हो जाता है।

बकौल बिस्मिल के ‘देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है...जीने की तमन्ना हमारे दिल में है’। जीने की तरह ही मरने की कामना भी हमारे अवचेतन में कुलबुलाती रहती है। डेथ विश नामक फिल्म शृंखला भी बन चुकी है। एक फिल्म में प्रस्तुत किया गया की मृत्यु से मनुष्य प्रार्थना करता है कि उसे एक सप्ताह की मोहलत दे दे। कुछ अधूरे काम पूरे करने हैं। संभवत: उस दिन मृत्यु दया दिखाना चाहती थी। मृत्यु के मूडी होने के कारण व्यक्ति को एक सप्ताह की मोहलत मिल जाती है। वह व्यक्ति पूरे जोश से अपने अधूरे काम पूरे करने में लग जाता है। उसका उत्साह जोश और भलमनसाहत देखकर मृत्यु अपना विचार बदल देती है। लौटती हुई मृत्यु के पदचाप वह सुन लेता है और पुन: मौज मस्ती के मूड में आ जाता है। मनुष्य बदलते हुए नहीं, बदलने का भरम रचने में प्रवीण है और इसी तरह नहीं बदलते हुए बदलने का स्वांग भी रच लेता है।

ताजा खबर यह है कि इटली में एक दिन में 500 व्यक्ति कोरोना के शिकार हो गए। कल्पना कीजिए कि कब्रिस्तान में कितनी कमी हो गई होगी? क्या कब्रिस्तान के लिए अतिरिक्त भूमि का आवंटन होगा और कोरोना का कहर समाप्त होने पर यह आवंटित भूमि पर पांच सितारा होटल खोला जाएगा या सिनेमाघर बनाए जाएंगे। कल्पना करें कि सिनेमाघर में ऐसी फिल्म दिखाई जा रही है जो कभी बनाई नहीं गई। फिल्म का नाम ‘भूतनाथ’ हो सकता है।