आज भी जारी है रफी प्रभाव / जयप्रकाश चौकसे

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आज भी जारी है रफी प्रभाव
प्रकाशन तिथि :15 दिसम्बर 2007


बोनी कपूर की अनिल-पद्मिनी कोल्हापुरे अभिनीत ‘वो सात दिन’ और सनी देओल की प्रवेश फिल्म ‘बेताब’ में नए गायक शब्बीर को अवसर दिया गया और प्रारंभिक सफलता से आशा जगी कि वे मोहम्मद रफी की तरह के गायक सिद्ध होंगे। परंतु एक ही सदी में दो मोहम्मद रफी संभव ही नहीं हैं। शब्बीर के पास सीमित प्रतिभा थी, जिसे घोर रियाज और अनुशासन के सहारे काफी दूर तक ले जाया जा सकता था, परंतु पार्श्वगायन के क्षेत्र में इस तरह की साधना आसान नहीं होती।

लता मंगेशकर और आशा इस उम्र में भी रियाज करती हैं, क्योंकि वह उनके लिए सांस लेने की तरह स्वाभाविक प्रक्रिया है। उस दौर में नए नायकों के लिए किशोर कुमार का आग्रह था कि उनके पुत्र अमित को लिया जाए। संगीतकार ‘रफी प्रभाव’ चाहते थे, इसलिए शब्बीर को अवसर मिले। आज 25 बरस बाद, पार्श्वगायन क्षेत्र से खदेड़े जाने के बाद भी शब्बीर की रोजी-रोटी रफी साहब की वजह से चल रही है। उन्हें रफी के चाहने वाले अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करते हैं और ‘रफी प्रभाव’ की झलक मात्र के लिए उन्हें धन देते हैं। ऊपर से भी रफी साहब ने अपने ‘एकलव्यों’ पर कृपा दृष्टि बनाई हुई है।

हाल ही में इंदौर के उद्योगपति एसएस भाटिया ने अपने पारिवारिक समारोह में शब्बीर का कार्यक्रम रखा और शाम को रफीमय करने के प्रयास हुए। इत्तेफाक की बात है कि समारोह में शब्बीर को अवसर देने वाले बोनी कपूर के साथ ‘वो सात दिन’ की नायिका पद्मिनी कोल्हापुरे भी मौजूद थीं और मेजबान के आग्रह पर पद्मिनी ने अपनी सफलतम फिल्म ‘प्यार झुकता नहीं’ का एक गीत गाया। उनकी अदायगी इतनी भावप्रवण थी कि श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो गए।

आश्चर्य है कि पद्मिनी ने कभी व्यावसायिक पार्श्वगायन के क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया। उनके पति निर्माता टूटू शर्मा भी इस मामले में पहल नहीं करते। ज्ञातव्य है कि लता मंगेशकर पद्मिनी की रिश्ते में बुआ लगती हैं। मराठीभाषी परिवारों में संगीत और नाटक के प्रति घोर श्रद्धा व साधना का भाव हमेशा रहा है और इसलिए उनके घर प्रतिभा का पालना सिद्ध होते रहे हैं। मैंने एक बार लताजी से पूछा था कि क्या वर्तमान बाजार युग में मध्यमवर्गीय मराठी परिवारों में साधना और श्रद्धा का भाव घटा है। वे इस मामले में थोड़ी चिंतित ही ध्वनित हुईं।

रफी, मुकेश, किशोर की यादों में आयोजित कार्यक्रम सिद्ध करते हैं कि माधुर्य अपने सक्रियता के कालखंड में सीमित नहीं रहता, वह कालजयी है। अपनी विलासिता में आकंठ लिप्त हम प्रकृति और धरती को नष्ट कर रहे हैं, साथ ही अनावश्यक शोर द्वारा अजर-अमर ध्वनि में भी प्रदूषण फैला रहे हैं।