आडम्बरहीन गम्भीर चेहरा — वीरेन्द्र यादव / विनोद दास
लखनऊ !
1987 की यह एक दोपहर थी। लंच का समय था। वरिष्ठ साहित्यकार मुद्राराक्षस की सलाह दिमाग में गश्त लगा रही थी कि तुम वीरेन्द्र यादव से मिले या नहीं। उनका दफ़्तर तुम्हारे पास है। मुद्राजी की बात मेरे लिए खास मायने रखती थी। सहसा मेरे पाँव वीरेन्द्र यादव के दफ़्तर की ओर मुड़ गए।
हजरतगंज स्थित भारतीय जीवनबीमा कार्यालय।
प्रवेश द्वार के पास एक छोटे-से कमरे में मेज़ के पीछे झाँकता एक गुरु गम्भीर चेहरा। घने काले बाल और चश्मे के पीछे से झाँकती उत्सुक आँखें।
यह वीरेन्द्र यादव थे।
वीरेन्द्र जी को मैं पहचानता था। शायद उन्हें यह पता था कि मैं उनके शहर में आ गया हूँ। मुद्राराक्षस जी या अखिलेश जी से उन्हें यह खबर मिल चुकी थी कि मैं तबादले पर लखनऊ आया हूँ। उनकी आँखों में उत्सुकता की नहीं, पहचान की हलकी लहर थी। हालाँकि उन्हें यह भान नहीं था कि लखनऊ मेरा भी शहर है।
दरअसल एक दशक के बाद मेरी वापसी लखनऊ में हुई थी। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम०ए० करने के बाद नौकरी के सिलसिले में दिल्ली चला गया था। वहाँ से पटना। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि मुझे कभी अपने शहर में नौकरी करने का मौक़ा मिलेगा। उस शहर में, जहाँ की सड़कों से मुझे बेतरह मुहब्बत थी। लम्बे समय बाद मेरी दबी इच्छा पूरी हुई थी।
लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ने के दौरान कुँवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल और मुद्राराक्षस जी से यदा-कदा मिलना होता था। कॉफ़ी हाउस में अनुवादक प्रबोध मजूमदार, कवि राजेश शर्मा, कथाकार वीर राजा आदि से भी भेंट का सुअवसर मिलता रहता था। समीक्षा सम्वाद संगोष्ठी में कृष्णनारायण कक्कड़, स्वतन्त्र भारत के सम्पादक अशोक जी, कलाकार रणवीर सिंह बिष्ट, मदन नागर. शरद नागर आदि से भी मुलाक़ात हो जाती थी। कहना न होगा कि इन संगोष्ठियों में तब कभी वीरेन्द्र जी से मैत्री का हाथ मिलाने का सुयोग नहीं मिला था। वह उन लखनऊ के दूसरे साहित्यिक अड्डे कंचना में बैठकी करते थे।
बहरहाल उनसे पहली मुलाक़ात चाय पर ख़त्म हुई। दूसरी मुलाक़ात अखिलेश जी के कमरे में हिन्दी संस्थान में हुई, जहाँ कामतानाथ जी भी मौजूद थे। हमने पहली साहित्यिक संगोष्ठी समानान्तर कहानियों पर बाराबंकी में आयोजित की थी। कामतानाथ उस कहानी आन्दोलन के प्रमुख स्तम्भ थे। पहले वह भारतीय रिज़र्व बैंक कानपुर में काम करते थे। तबादले पर इन दिनों लखनऊ आ गये थे। भारतीय रिज़र्व बैंक की इमारत हिन्दी संस्थान के सामने थी। चूँकि हमारे संस्थान का जन्म भारतीय रिज़र्व बैंक से हुआ था, लिहाज़ा उनके कई सहकर्मी हमारे संस्थान में वरिष्ठ पदों पर भी थे। कामतानाथ ट्रेड यूनियन के नेता थे। उन्होंने प्रोन्नति न लेने का विकल्प ले लिया था, जिसके तहत तबादला नहीं होता था।
यहाँ बताना शायद अज़ब न लगे, एक दौर में वीरेन्द्र यादव, इप्टा से जुड़े नाटककार-रंगकर्मी राकेश तथा साहित्यकार शकील शिद्दीकी की त्रयी लखनऊ में बेहद लोकप्रिय थी। तीनों साथी ट्रेड यूनियन से जुड़े हुए थे। वीरेन्द्र यादव जीवन बीमा निगम, राकेश जी पंजाब नेशनल बैंक और शकील शिद्दीकी एच०ए०एल० की यूनियन में कर्मचारियों के संघर्षों में भागीदारी कर रहे थे। कामतानाथ जी के लखनऊ आने से यह दायरा और बड़ा हो गया। कामतानाथ जी भारतीय रिज़र्व बैंक की यूनियन से जुड़े थे। चारों मार्क्सवादी और धर्मनिरपेक्ष रहे हैं। राकेश जी के साथ वीरेन्द्र जी की दोस्ती गहरी और लम्बी रही है। इन दोनों ने इन्दिरा नगर में लगभग एक समय में मकान ख़रीदा। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा के अन्तर्गत इन दोनों ने मिलकर सामाजिक प्रतिरोध और सामाजिक सद्भाव से जुड़े अनगिनत कार्यक्रम आयोजित किए। लखनऊ ही नहीं, पूरे प्रदेश में सांस्कृतिक चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मुझे लगता है कि शायद ही कोई ऐसा दिन हो, जब इन दोनों के बीच बात न होती हो।
फिर वीरेन्द्र जी से मिलने-जुलने का सिलसिला चल पड़ा। हम दोनों का दफ़्तर हज़रतगंज़ में था। हलवासिया में मेरा और मेफ़ेयर टॉकीज़ के पास उनका। लंच में हम साथ निकलते। वीरेन्द्र जी “लव लेन” में एक बुकस्टाल से दो पत्रिका वापस करते या लेते। मैं पत्रिकाओं को सरसरी तौर पर उलटता-पलटता। वहाँ से चलकर टाइम्स चेतना बुक केन्द्र में झाँकते जहाँ अक्सर दुर्गा जी मिल जाते। फिर कॉफ़ी हाउस के पास पटरियों पर सजी पत्र-पत्रिकाओं को उलटने-पलटने के बाद हम वापस लौट आते। कई बार कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी पीते या इडली-दोसा खाते। हजरतगंज की ट्रैफ़िक की आवाज़ें आती रहतीं। हम वहाँ की पटरियों पर ख़रामा-ख़रामा टहलते हुए तत्कालीन राजनीति,साहित्य और संस्कृति के सवालों के साथ संगीत की धुन की तरह बने रहते। हज़रतगंज़ की चटक-मटक हवा में हम उस समय घर-परिवार, दफ़्तर की उठापटक से दूर एक ऐसी दुनिया में होते जहाँ किताबों-लेखों की चर्चा होती, निन्दा-प्रशंसा रस का आनन्द होता। अगर कोई युवा सुन्दर चेहरा भी पास से गुज़रता, वीरेन्द्र जी उससे निरासक्त रहते, जबकि मैं चुपके से उन्हें निरखकर उसके सौन्दर्य का सम्मान करता। एक तरह से ये हमारे होने के पल होते। मुद्राराक्षस जी या अखिलेश जी के होने से यह साथ और भी समृद्ध हो जाता। लंच में कई बार वीरेन्द्र जी कमरे में बैठा कोई मित्र मिल जाता और वहीं चौपाल जम जाती। वीरेन्द्र जी का छोटा-सा कमरा साहित्यिक मित्रों का मिलन केन्द्र भी था। उन दिनों दूसरा ऐसा अड्डा हिन्दी संस्थान में अखिलेश जी का कमरा था।
हम मिलने के अवसर खोजते। मिलने की चाह ख़त्म नहीं होती। बातों के अन्तहीन रेशे होते। दोपहर में हम मिलते ही थे, बाज़दफ़ा शाम को दफ़्तर से निकलने के बाद भी कॉफ़ी हाउस मैं बैठ जाते। कॉफ़ी हाउस में शुक्रवार को बैठने का सिलसिला भी हमने शुरू किया। कथाकार रवीन्द्र वर्मा जी की उपस्थिति शुक्रवारी बैठक को जीवन्त और विचारोत्तेजक बना देती। शुक्रवारी बैठक में मुद्राराक्षस, कवि राजेश शर्मा और लीलाधर जगूड़ी भी यदा-कदा आ जाते। बैठक में वीरेन्द्र जी की आवाज़ अक्सर ऊँची ही रहती। हम दोनों के घर इन्दिरा नगर में थे। राकेश जी का घर भी मेरे निकट था। छुट्टी के दिनों में भी मैं उनके घर पर धावा बोल देता।
बाद में मेरे पड़ोस में अखिलेश जी भी आ गए। मुझे नहीं लगता कि हम कभी भी एक दूसरे से ऊबे हों। एक बार किसी बहस के चलते हम दोनों के बीच रूठारूठी भी रही। हालाँकि उस मनमुटाव के दौर में भी हमारे परिवार के बीच आत्मीयता के धागे जुड़े रहे। दरअसल वीरेन्द्र जी के निकटस्थ जानते हैं कि उनकी पत्नी कुसुम भाभी ही पूरा घर चलाती हैं। कुसुम भाभी से मेरी पत्नी विनीता की गहरी मैत्री थी और है। रिक्शा न आने की स्थिति में मेरी बेटी रुनझुन को जब विनीता कई बार स्कूल लेने जाती या भूतनाथ बाज़ार से सौदा-सुल्फ़ करने जाती तो कुसुम भाभी से मिलने उनके घर चली जाती। विनीता का मानना था जो सही भी है कि कुसुम भाभी एक सुगृहणी हैं। बाज़ार में कहाँ क्या अच्छा और सस्ता मिलता है, घर में सम्बन्धों को किस तरह निभाना है, यह सब वह अच्छी तरह जानती और करती हैं। वीरेन्द्र जी पूरी तरह से घर के पचड़ों से मुक्त अपनी साहित्य-संस्कृति की दुनिया में रमे रहते हैं। रैक में सजी अपनी किताबों के अलावा उनके अपने घर में कहाँ चीनी रखी है, शायद ही उन्हें पता हों। पाक कला में वीरेन्द्र जी इतने निष्णात हैं कि दोस्त आ जाएँ तो उन्हें चाय बनाकर नहीं पिला सकते। एक बार विनीता और कुसुम भाभी की पहल पर हम सब कुकरैल पिकनिक मनाने भी गए थे जिसमें कुँवर नारायण जी और कथाकार रवीन्द्र वर्मा जी का परिवार भी शामिल हुआ था। वह दिन वाकई यादगार था।
वीरेन्द्र जी से मेरी दोस्ती का मुख्य आधार उनका बेबाकपन,वैचारिक साहस और उनका पुस्तक प्रेम था। उन्होंने बड़े साहस और जोख़िम के साथ हंस पत्रिका में प्रगतिशील लेखक संघ के पदाधिकारी होते हुए उसकी स्वर्ण जयन्ती समारोह के आयोजन के तौर तरीकों पर “प्रगतिशील आन्दोलन -दशा और दिशा” लेख में सवाल उठाए थे। बाद में शायद पार्टी को वह लेख नापसन्द आने पर पार्टी से इस्तीफ़ा भी दे दिया था।
यह वह दौर था जब मण्डल आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशें लागू कर दी गई थीं। उसकी काट के रूप में अडवाणी की रथयात्रा और राम जन्मभूमि विवाद की हवा चल रही थी। विश्वपटल पर ग्लासनस्त- पिरिस्त्रोइका की धूम मची हुई थी। सोवियत संघ के पतन के बाद विश्व का एक ध्रुवीय बनना और दुनिया में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के फलस्वरूप वीरेन्द्र जी को लगने लगा था कि भारतीय समाज को समझने के लिए केवल मार्क्स की वर्गीयदृष्टि से देखना अपर्याप्त है, उसे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की जाति सम्बन्धी अवधारणा से देखना भी ज़रूरी है।
वीरेन्द्र जी की वैचारिकी का मुख्य स्रोत उनकी अध्ययनशीलता है। वह ख़ूब क़िताबें ख़रीदते हैं। ख़ूब पढ़ते हैं। बहस करते हैं। लेकिन उन दिनों लिखने में आलस बरतते थे। वैसे साहित्य की अन्य गतिविधियों से वह पूरी तरह सन्नद्ध थे। प्रगतिशील लेखक संघ के पदाधिकारी के रूप में काम कर रहे थे। कामतानाथ जी, राकेश जी के साथ मिलकर वह “प्रयोजन” नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे। सभा-संगोष्ठी में बढ़-चढ़कर शिरकत करते थे। कई बार लोगों को ऐसे कार्यों से इतना रचनात्मक तोष मिलता है, वह लिखना टालते रहते हैं। शायद उन्हें लिखने की तब उतनी ज़रूरत नहीं महसूस होती रही होगी। कथाकार राजेन्द्र यादव की तरह वह भी कविता प्रेमी नहीं हैं। हमारे बीच इसको लेकर नोक-झोंक चला करती। किन्तु इससे यह निष्कर्ष निकलना कि वह कविता विरोधी हैं, यह ग़लत होगा। दरअसल उन्हें अमूर्त, वायवीय और सामाजिक सरोकारों से रहित कविताएँ रास नहीं आतीं। यह अनायास नहीं है कि धूमिल की कविताओं पर उन्होंने एक लेख भी लिखा है। सामाजिक सरोकारों वाली कविताओं के वह पक्षधर हैं। इसकी ताकीद तब हुई, जब बाँदा में आयोजित मुझे केदारनाथ अग्रवाल सम्मान मिलने के अवसर पर उन्होंने मेरी कविताओं पर एक संक्षिप्त और सारगर्भित वक्तव्य दिया। हम लखनऊ से अखिलेश जी के साथ बांदा आए थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कोई संकेत भी नहीं दिया था कि उन्हें मेरी कविताओं पर बोलना है।
वीरेन्द्र यादव की रूचि कथा साहित्य और वैचारिक लेखन में है। यहाँ मुझे उन दिनों की याद सहसा कौंधती है,जब रवीन्द्र कालिया सम्पादित वर्तमान साहित्य के कथा महाविशेषांक में प्रकाशित कृष्णा सोबती की ’ये लड़की’ कहानी की खूब चर्चा थी। सच यह था कि लखनऊ में ही नहीं, कई हल्कों में यह चर्चा प्रायोजित थी। लखनऊ कॉफ़ी हाउस में कई बार इस पर गरमागरम बहस हो चुकी थी। रवीन्द्र वर्मा जी इस कहानी के प्रबल समर्थक थे। वीरेन्द्र जी इसे प्रश्नांकित कर रहे थे। हवा के ख़िलाफ़ जाकर उन्होंने उस कहानी पर आख़िरकार एक तीख़ी आलोचनात्मक टिप्पणी लिख दी।
हवा के ख़िलाफ़ जाकर वीरेन्द्र जी अपनी सोच व्यक्त करने में कभी हिचकिचाते नहीं। मेरा अनुभव है कि वह ऐसा स्वत:स्फूर्त करते हैं। यह उनके जीवाश्म का हिस्सा है। हिन्दी के तमाम प्रतिष्ठित प्रगतिशील जनवादी कवि लेखक जब भाजपा द्वारा आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में भागीदारी के लिए रायपुर गये थे, तब उन्होंने जनसत्ता अखबार में इसके ख़िलाफ़ लेख लिख दिया था। उनसे उनके अनेक मित्र नाराज़ हो गए थे। बिहार में आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल ने भाजपा गठबंधन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में सहभागिता की, तो इस मुद्दे को उन्होंने फिर सोशल मीडिया में उठाया। आलोचक रविभूषण ने ’प्रभात खबर’ अख़बार में दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन को महिमामण्डित करते हुए लिखा, उसे प्रश्नांकित करने में उन्होंने जरा भी हिचक नहीं दिखाई। इस दृष्टि से देखें तो वीरेन्द्र जी प्रगतिशील और जनवादी मूल्यों के सजग प्रहरी के रूप में एक एक्टिविस्ट की तरह हमेशा लामबन्द रहते हैं। उनके लिए लेखन सिर्फ़ बौद्धिक और कागज़ी कार्रवाई नहीं है। लेखन उनके लिए एक सामाजिक सरोकार है, जो हमेशा हाशिये पर रहने वाले लोगों के पक्ष में होता है। यह दृष्टिकोण मार्क्सवादी दर्शन से बना है। धर्मनिरपेक्षता उनके लिए एक ज़रूरी मूल्य है। बाज़दफ़ा अपने इन जीवन मूल्यों से समझौता न करने के कारण अपने दोस्तों को नाराज़ कर देते हैं। यही लोग उन्हें अक्खड़ कहकर अपनी कुण्ठा का समाहार करते हैं। जनहित से जुड़े किसी मुद्दे पर धरना हो या जुलूस, वह वहाँ एक सैनिक की तरह मुस्तैद मिलते हैं। मुझे याद है कि अयोध्या उन्माद के दौर में हम लोग लखनऊ के पुराने इलाके में लगे कर्फ़्यू के समय उनकी मदद के लिए साथ गए थे।
आलोचक होने के बावजूद वीरेन्द्र जी ने कुछ देर से और कुछ कम लिखा है। विश्वविद्यालय में अध्यापक न होने का लाभ शायद उन्हें मिला है कि अकादमिक दबाव उन पर नहीं रहा है। उनके अधिकांश लेख तद्भव, हंस और पहल में छपे हैं। इनके सम्पादक कथाकार अखिलेश, राजेन्द्र यादव जी और ज्ञानरंजन जी हार्डटास्क मास्टर्स रहे हैं। ये सम्पादक पहले लेखकों से रचना के लिए वचन ले लेते, फिर उनसे रचना भेजने के लिए लगातार तगादा करते रहते। यह अचूक सम्पादकीय नुस्खा है। टालमटोल करने वाले लेखकों पर आन्तरिक दबाव कम होने की स्थिति में ऐसे बाहरी नैतिक बल कारगर होते हैं। वीरेन्द्र जी भी इसी कोटि में आते हैं। इन तीनों सम्पादकों का इन पर नैतिक दबाव बना रहता। अखिलेश जी का मित्रता का और ज्ञानरंजन जी और राजेन्द्र जी का वरिष्ठता का। यह जानना किसी के लिए भी दिलचस्प हो सकता है कि आलोचना के लिए प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान से उन्हें तब समादृत किया गया जब उनकी कोई आलोचना पुस्तक प्रकाशित तक नहीं हुई थी। लिखने में उनका अध्यवसाय झलकता है। यथासम्भव सभी सन्दर्भ जुटाते हैं। लेख की अन्तर्वस्तु में तुर्शी और अधैर्य मिल सकता है, लेकिन लिखने में समय लेने में उन्मत्त अधैर्य उनका स्वभाव नहीं है। हालाँकि बाज़दफ़ा अख़बार सम्पादकों की तात्कालिक माँग पर वह गम्भीर लेखन भी सहजता से कर लेते हैं।
वीरेन्द्र जी का आलोचना कर्म उपन्यास केन्द्रित रहा है। यह चुनाव उन्होंने सोच-समझ कर किया है। जिस तरह के उनके सामाजिक सरोकार हैं, जीवन के प्रति प्रतिबद्धता है, ऐसा चुनाव उनके सर्वथा अनुकूल है। उपन्यास उनके लिए मात्र समय काटने के लिए मनोरंजन का साधन भर नहीं है, वह ऐसी सामाजिक संरचना है जिसमें हम समाज का अक्स देख और पढ़ सकते हैं। उनकी पुस्तक “उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता” और दूसरी किताब “उपन्यास और देस” में शामिल लेख इसके प्रमाण हैं। गोदान, झूठा सच, आधा गाँव और राग दरबारी हिन्दी के पुराने चर्चित उपन्यास हैं। इन पर पहले भी काफ़ी लिखा जा चुका है। वीरेन्द्र जी इन कृतियों को कुछ भिन्न दृष्टि से देखते हैं।
वह इस कसौटी पर उपन्यास की जाँच करते हैं कि इन कृतियों में समाज के सबसे कमज़ोर और वंचितों को किस तरह से उकेरा गया हैं। दलित, पिछड़े आदिवासी और अल्पसंख्यक चरित्रों को उपन्यासकार ने अपनी रचना में किस भावभूमि से निरूपित किया गया है। उस कृति में हाशियों के लोगों की पीड़ा, टूटन और संघर्ष में कितनी सच्चाई है। वीरेन्द्र यादव की आलोचना की कसौटी के बाट यही वे वंचित जन हैं, प्रभुत्वशाली वर्ग जिनसे उनकी आवाज़, उनका हक़ और हिस्सा छीनता जा रहा है। कहना न होगा कि वह सबालर्टन इतिहास दृष्टि से इन कृतियों की देखते-परखते हैं।
वीरेन्द्र जी के इन लेखों को पढ़ते हुए लगता है कि किसी कृति का पुनर्मूल्यांकन समय-समय पर होते रहना कितना ज़रूरी है। आपको इन्हें पढ़ते हुए यह भी लगता है कि यशपाल के ’झूठा सच’ उपन्यास के बारे में कुँवर नारायण, नेमिचन्द जैन और डॉक्टर रामविलास शर्मा का आकलन हो या प्रेमचन्द के उपन्यास ’गोदान’ पर निर्मल वर्मा की सम्मति हो या श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ’राग दरबारी’ के बारे में श्रीपत राय की तीखी आलोचना हो, वह अपर्याप्त ही नहीं, कई बार एकांगी भी होती है। यहीं नहीं, बाज़दफ़ा प्रतिष्ठित लेखकों तथा विचारकों के मूल्यांकनों में वर्गीय और वर्णगत पूर्वाग्रह भी काम करते हैं। जिन दिमागों पर वर्णाश्रम और साम्प्रदायिक सोच की मोटी कुण्डियाँ चढ़ी हुई होती हैं, वीरेन्द्र जी के तेजाबी लेख उन्हें अपने समतावादी विचारों और पुष्ट तर्कों से खोलने की कोशिश करते हैं। इस प्रक्रिया में वह उपन्यास पर साहित्यिक कलावाद का चढ़ा हुआ मेकअप उतारकर उसके असली सामाजिक चेहरे को सामने ले आते हैं। अपनी इस ख़ुर्दबीनी जाँच में वह कई बार रचना के आस्वाद को सामाजिक सरोकारों पर न्योछावर भी कर देते हैं। साहित्य के एक हल्के में उन्हें समाजशास्त्रीय आलोचक कहा जाता है, जबकि वह समझते-मानते हैं कि समाज की तलछट की टकराहटें साहित्य और कला को गर्भ में शिशु की तरह पोषण प्रदान करती हैं और उन चुनौतियों से कतराकर हम केवल साहित्य के थोथे चने बजाते रहते हैं। उनका मानना है कि आलोचना का प्रमुख दायित्व साहित्य के पाठ को सन्दर्भ देना है। सन्दर्भ रहित पाठ रचना को महज़ तकनीक मानती है। यही कारण है कि निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी सरीखे लोकप्रिय कथाकारों को वह नहीं सराह पाते। दरअसल हिन्दी कथा साहित्य में शुद्ध कलात्मक आस्वादपरक कवि दृष्टि का बोलबाला है, इस प्रवृति की कड़ी आलोचना अपने एक लेख में विनोद कुमार शुक्ल और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यासों के विश्लेषण के माध्यम से उन्होंने की है । वह लिखते हैं कि “नि:संदेह नई औपन्यासिक प्रविधि, चुस्त जुमलेबाजी शातिर खिलन्दड़ेपन व विदूषकीय गाम्भीर्य से रची-पगी इन उपन्यासों की भाषिक सरंचना पाठ के स्तर पर एक नया आस्वाद प्रदान करती है, लेकिन सामाजिक विसंगतियों, निम्न मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं एवं क्षुद्रताओं की यह ऐसी हँसोड़ प्रस्तुति करती है कि भाषाई आस्वाद के पीछे कथ्य की विद्रूपता नेपथ्य में पहुँच जाती है और बची रह जाती है कथन की गुदगुदाहट। कहना न होगा कि कथन की गुदगुदाहट का यह आस्वादपरक दृष्टिकोण एक ऐसे रूपवाद को जन्म देता है जो यथार्थ की सरहदों को छूते ही दम तोड़ देता है।”
वीरेन्द्र यादव का यह लेख पढ़कर विनोद कुमार शुक्ल और मनोहर श्याम जोशी को अपनी प्रेरणा मानने वाले कथाकारों, आलोचकों और उनको पाठकों को गहरा धक्का लग सकता है लेकिन वीरेन्द्र यादव अपनी बात साहस और तर्क के साथ कहते हैं।
वीरेन्द्र जी के सबसे प्रिय लेखक प्रेमचन्द हैं। उन पर उन्होंने सबसे अधिक लिखा और उद्धृत किया है। हिन्दी साहित्य में एक अभिजात और कुलीन वर्ग रहा है जो परम्परा, अतीत, जातीय स्मृति, भारतीय संस्कार और अध्यात्म के बहाने मूल्यांकन में सामाजिक मूल्यों और सरोकारों की बलि चढ़ाता रहा है। निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, रमेश चन्द्र शाह को वह इसी कोटि में रखते हैं। निर्मल वर्मा ने प्रेमचन्द की रचनात्मकता पर सबसे अधिक प्रहार किया है। वीरेन्द्र जी निर्मल जी की आपत्तियों का जवाब देते हुए निर्मल की वर्गीयचेतना और कुलीनताबोध को इसका ज़िम्मेदार बताते हैं। धर्मवीर हो या मुद्राराक्षस, प्रेमचन्द की रचनाओं के उनके द्वारा किए गए कुपाठ को वह सह नहीं पाते। प्रेमचन्द दलित किसान और मजदूरों की ज़िन्दगी के महान लेखक हैं। विडम्बना की बात यह है कि दलित लेखकों का एक बड़ा तबका उन्हें दलित जीवन का प्रामाणिक लेखक नहीं मानता। वीरेन्द्र जी प्रेमचन्द की अनेक दलित जीवन से जुडी रचनाओं का हवाला देते हुए दलित लेखकों को बारहा सन्देश देते हैं कि किस तरह प्रेमचन्द दलित चेतना के प्रबल कथाकार हैं। दलित साहित्य में प्रेमचन्द को जगह न देना उसकी एक बड़ी परम्परा को छोटा कर देना है।
1993 में लखनऊ छूटने के बाद उनके साथ का सुयोग एक बार फिर मिला, जब उनकी बेटी नौकरी के सिलसिले में कोलकाता रहने आईं। उनकी बेटी का घर हमारे घर के पास गोल्फ़ ग्रीन में था। विनीता तो अक्सर वहाँ शाम की सैर के लिए जाती थीं। वीरेन्द्र जी अक्सर अपनी बेटी के पास आते थे। उनके साथ मेरा घूमना-फिरना होता था। एक बार भारतीय भाषा परिषद में व्याख्यान के लिए मैंने उन्हें आमन्त्रित भी किया था। उनके व्याख्यान को सराहना भी मिली थी। कोलकाता की पुस्तकों की दुकानों में उन्हें अधिक आनन्द आता था।
वीरेन्द्र जी हमेशा गम्भीर दिखते हैं। उनके मित्रों का मानना है कि वह कम ही मुस्कराते-हँसते हैं। हालाँकि उनके निकटस्थ जानते हैं कि वह इतने रसहीन भी नहीं हैं। अखिलेश जी और यह नाचीज़ इसके गवाह भी रहे हैं। अखिलेश जी तो बाज़दफ़ा उनसे कुछ हँसी मज़ाक की छूट भी ले लेते हैं। वीरेन्द्र जी भी हम दोनों से कभी-कभार मीठी छेड़छाड़ करते रहते हैं। वह कितने विनोदप्रिय हैं, इसकी बानगी आपको इस पत्र में मिल जाएगी जो उन्होंने कोलकाता प्रवास के दौरान मुझे भेजा था।
“यहाँ से जाने के बाद आपने कोई खोज-ख़बर नहीं दी। लगता है कि किसी बंगालिन जादूगरनी के मोहपाश में आबद्ध हैं। ख़ैर ! बंगाल में विनोद दास हों तो यह कोई आश्चर्य नहीं।
बहरहाल विनीता जी और बच्चों को लेकर हम सब चिन्तित हैं। कृपया उनका ख्याल रखिए ।”
पत्र समाप्त करने के पहले वीरेन्द्र जी “पुनश्च: “ में लिखते हैं :
“अखिलेश ने बंगाल में अपने दूतों द्वारा आपकी खोज-ख़बर के लिए जाल बिछा रखा है। ”
इस मीठे परिहास से कोई भी सहज अनुमान लगा सकता है कि वीरेन्द्र जी के गुरु गम्भीर चेहरे के पीछे एक सुकोमल तरल हृदय भी है।
लखनऊ से तबादला होने के बाद वहाँ रहने का मौक़ा नहीं मिला। मेरा घर बाराबंकी में है। लखनऊ होकर ही बाराबंकी जाना होता है। अकेले होने पर लखनऊ स्टेशन या एअरपोर्ट पर उतरते ही बाराबंकी जाने के पहले वीरेन्द्र जी या अखिलेश जी के घर पर हमारी तीनों की बैठकी ज़रूर होती है। बाराबंकी से पिताजी का फ़ोन आता है, कहाँ हो ? तुम्हारी ट्रेन या फ़्लाइट तो कब की आ चुकी है। मेरा जवाब होता कि बस, पहुँच रहा हूँ। दोस्तों के साथ हूँ। पिता जी हँसकर कहते, ”अच्छा वीरेन्द्र और अखिलेश के साथ हो।” मेरे “हाँ” कहने पर वह समझ जाते हैं कि मुझे उनके पास पहुँचने में समय लगेगा। जब हम तीनों साथ में होते हैं तो बहस-मुबाहसा, नोक-झोंक, हास-परिहास से हमारे आसपास का वायुमण्डल उज्ज्वल, प्रसन्न और तरल हो जाता है। लम्बे समय से लखनऊ से दूर होने के कारण अब ऐसे सुयोग कम मिलते हैं, लेकिन मैं ऐसे पलों का बेसब्री से मुन्तज़िर रहता हूँ।