आतंकवाद के खिलाफ फिल्म गीतों का प्रयोग / जयप्रकाश चौकसे

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आतंकवाद के खिलाफ फिल्म गीतों का प्रयोग
प्रकाशन तिथि :08 जून 2016


अंग्रेजों की गुप्तचर सेवा ने ताज़ी जानकारी दी है कि जब वे आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के किसी छिपे हुए दस्ते पर आक्रमण करते हैं तब हिंदुस्तानी फिल्म गीत बजाते हैं, जिसे सुनकर कुछ आतंकवादी नाचने लगते हैं, तो कुछ बेतरतीब गोलीबारी करने लगते हैं, क्योंकि इस्लाम में गाने बजाने पर पाबंदी है। सभी धर्मों की अनेक व्याख्याएं की गई हैं, जिनके कारण कई भ्रम समाज में फैल गए। संगीत को अनेक धर्मों को मानने वालों ने अपनी प्रतिभा से समृद्ध किया है। सूफी गीत इस्लामी संस्कृति का हिस्सा है परंतु सूफी गायन शैली लोक संगीत से विकसित हुई है और इसे इस्लाम से जोड़कर देखना उचित नहीं है। सूफी संत भारत में बहुत पहले आए और इस्लाम को मानने वाले बहुत बाद में भारत आए हैं। हिंदुस्तानी फिल्म गीत-संगीत पर अनेक प्रभाव हैं और सबसे अधिक प्रभाव लोक गीतों का है।

यह अत्यंत प्रसन्नता और गर्व की बात है कि भारतीय फिल्मों के गीत भी आतंकवाद के खिलाफ लड़ी जा रही जंग में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। टेलीविजन पर कम बजट की सिताराविहीन फिल्म 'वार छोड़ ना यार' देखी, जिसमें सरहद के दोनों ओर के फौजी मित्रता व भाईचारे की अदृश्य डोर से बंधे दिखाए गए हैं। उनके बीच अंत्याक्षरी प्रतियोगिता भी होती है और पाकिस्तान का एक सैनिक 'ये मेरा इंडिया, आई लव इंडिया' (सुभाष घई की फिल्म 'परदेश') गाता है तो उसका अधिकारी उसे दुश्मन से प्यार करने पर डांटता है। इस विषय पर कुछ और हास्य फिल्में भी बनी हैं। कृश्न चंदर की एक कथा में सरहद के दोनों ओर के सैनिकों के बीच गाली देने की भी प्रतियोगिता होती है और दोनों तरफ से समान गालियां दी जाती हैं। बंटवारे के समय गालियों का विभाजन नहीं हो पाया है। बंटवारा स्वयं सबसे अभद्र गाली है। एक ही मांस के दो लोथड़ों को कैसे बांटा जा सकता है।

नियमित रूप से कम बजट की फिल्में बनाने वाले एक निर्माता पाकिस्तान में बने गानों की जानकारी लेते रहते हैं और उस 'कच्चे माल' से अपने 'मौलिक' गीत भी रचते हैं। गुलजार का लिखा रहमान का संगीतबद्ध 'छैया छैया' को भी कुछ लोग पाकिस्तान का लोकगीत मानते हैं। फिल्म गीत रचना में अनजान स्रोत से भी प्रेरणा ली जाती है। अनेक वर्ष पूर्व दिल्ली में प्रायोजित फिल्म मेले में एक ईरानी फिल्म का गीत था, 'जिहाले मस्किन मकन बरंजिश, बेहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है, सुनाई देती है, जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।' यह गीत नए अंतरों के साथ जेपी दत्ता की गुलामी के लिए गुलजार साहब ने लिखा। फिल्म गीत रचना में यह सब होता रहा है। दिलीप कुमार की 'गंगा-जमना' अवधि में थी और शकील बदायुनी ने सारे गीत अवधि में लिखे। एक बानगी, 'नैन लड़ जइए हैं तो मनवामा कसक होई बे करी।' आज देश बांटने वाले गौर करें कि एक मुसलमान निर्माता अवधि में फिल्म बनाता है। फिल्म गीत की रचना प्रक्रिया भी अजीब है। अधिकतर संगीतकार पहले बहर रचता है और गीतकार को उस बहर पर फिल्म कथा में दी गई स्थिति के अनुरूप गीत लिखना होता है।

भारतीय फिल्म गीत-संगीत ने पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई है। इस विषय पर नलीन रंजन सिंह का सारगर्भित शोधपरक लेख 'संवेद' नामक पत्रिका के जनवरी 15 के अंक में प्रकाशित किया गया है। इसके संपादक किशन कालजयी है। बहरहाल, फिल्म गीत के घाट पर अनेक देशों की संस्कृतियां गलबहियां करती नज़र आती हैं। इस मामले में अपने पराए का कोई भेद नहीं है। हिंदी और उर्दू दोनों जबानों के प्रतिभाशाली लोगों ने इसे समृद्ध किया है। जोश मलीहाबादी ने भी एक फिल्म में गीत लिखे हैं। इस विधा की सबसे बड़ी शक्ति इसकी सरलता है। गूढ़तम दार्शनिक विचार सरल, भाषा में लिखे गए हैं। कवि प्रदीप ने 1941 में 'किस्मत' के लिए लिखा, 'दूर हटो ए दुनिया वालों, हिंदुस्तान हमारा है।' अंग्रेजों के सेन्सर से बचने के लिए अंतरों में उस दौैर में अंग्रेजों के दुश्मन जापान का नाम भी रखा गया है परंतु स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में बनी फिल्मों में देशभक्ति की अलख जगाने वाले गीत रचे गए हैं। आजादी के कुछ समय बाद ही 'सीमा' के लिए शैलेंद्र ने लिखा, 'आंख है धुंधली, पंख है कोमल, ाना है सागर पार, अब तू ही हमें बतला कि आएं कौन दिशा से हम, इधर झूम के गाए जिंदगी, उधर है मौत खड़ी, कोई क्या जाने कहां है सीमा, उलझन आन पड़ी।' िवभाजन की त्रासदी से गुजरने वाले देश की व्यथा क्या खूब अभिव्यक्त हुई है।