आतिशे-संग / संतोष श्रीवास्तव
मई की चिलचिलाती दोपहर... अचानकपंखा चलते-चलते रुक गया और सन्नाटे भरी दोपहर शोरगुल से भर उठी। शायद बिजली चली जाने से सुन्न हुआ शोर रफ़्ता-रफ़्ता मुखर होने लगा हो। दरवाज़ा खोला तो भागते क़दमों के साथ धूप की चिलक में एक वाक्य विनय की ओर उछला-"आरा टाल में आग लग गई... आग बढ़ रही है।"
विनय के कौतुहल से भरे क़दम चाहकर भीउठ न सके। अभी भरपेट दाल-भात खाया था और आँखों में अलसायापन तैर रहा था। गर्मियों में आग लगना कौन-सी अनहोनी बात है? किसी ने जलती बीड़ी फेंक दी होगी या शॉर्ट सर्किट हो गया होगा। क्या असर पड़ेगा इन सेठों पर जो टकसाल से भी ज़्यादाजल्दी पैसा बनाते हैं। उफ! कितनी गर्मी है। विनय ने खिड़कियाँ खोल दीं और अख़बार को चौपरताकर हवा करने लगा। लू के तेज़ झोंके कमरे में बेधड़क आ रहे थे।
सविता उर्फ़ मिसेज़ माथुर अपनी छै: महीने की गदबदी बिटिया मिनी को कलेजे से चिपकाए चिलचिलाती धूप में घबराई हुई खड़ी थीं। धूप की वज़ह से उनका चेहरा सुर्ख हो गया था और उस पर पसीने के मोती चमक रहे थे। उन्हें यहाँ खड़ी देख विनय ताज्जुब से भर उठा। इतनी धूप में, इस वक़्त अचानक येयहाँ! विनय के घर से दस बारह मकानों की दूरी पर बगीचे के परली तरफ़ उनका मकान था। हाँ, आग भी तो आरा टाल में लगी थी, जो उनके मकान के पिछवाड़े... कतारों में थी। एक दो नहीं पूरी पाँच आरा टालें। आज से दो साल पहले सविता मिसेज़ माथुर होकर इस मोहल्ले में आई थीं और मि। माथुर ने विनय को उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिए घर बुलाया था। उनका गुदाज़ बदन, रेशमी बाल, झील-सी गहरी आँखें और गोल मटोल चेहरे पर विनय फिदा हो गया था। यह तय था कि मिसेज़ माथुर विनय के लिए आकाश कुसुम थीं लेकिन कितनी ही रातें विनय ने उनके एहसास में जागकर गुज़ारी थीं। जब विनय उन्हें पढ़ातातो वे ग़ौर से उसका चेहरा देखतीं। विनय सकपका जाता। बहुत बाद में जब उनकी अपरिचय की झिझक दूर हुई तो उन्होंने बताया कि उन्हें विनय के बेहद मर्दाने व्यक्तित्व के बावजूद चेहरे पर जो एक भोलापन है वह बहुत भलालगता है, ध्यान खींचता है। और यह कहकर उन्होंने एक गहरी साँस फेफड़ों में घोंट डाली थी और विनय ने जल्दी से रुमाल निकालकर चेहरे का पसीना पोंछा था।
मिसेज़ माथुर दरवाज़े तक आ गईं। उन्होंने बताया कि मि। माथुर आज ही हफ़्ते भर के दौरे पर पचमढ़ी गये हैं और आग लगने की ख़बर से वे बहुत घबरा गई हैं। उनका मकान भी तो चौराहे के करीब ही है।
"जरा देखकर आइए न, कैसी आग है? कितनी डरावनी आवाज़ेंआ रही हैं। हमें तो बड़ी घबराहट हो रही है। वह देखिए।" उन्होंने अपने मकान की दिशा में उँगली उठा दी।
विनय को उनकी आवाज़ में घबराहट के अलावा मजबूरी भी नज़र आई। जब तक आग नहीं देखी थी तोलगा था कि मामूली-सी आग होगी... किंतु...
सावधानी के लिए चौराहे पर जेनरेटर बंद कर दिया गया था। आग बहुत बड़े पैमाने पर लगी थी। हवा नहीं आँधी चल रही थी और चौराहे की तरफ़ झुक-झुक पड़ रही थी। जलते हुए बड़े-बड़े मोटे लट्ठे लगातार चटख़ रहे थे। टाल के दायरे के हरे पेड़ बहुत ज़्यादा झुलस जाने के बाद की हालत में थे। एक तोता उड़ता हुआ आया और लद्द से लपटों में गिर गया। इन पेड़ों पर तो सैंकड़ों तोते रहते थे। विनय की निगाहें ऍम के पेड़ परतोतोंके कोटर की ओर उठीं पर वहाँ तोते न थे, डालियों पर कच्चे आम झुलसे से लटके थे... काले सलेटी... ज्योंमाँ के हाथों चूल्हे की राख में पने के लिए दबाए आम। विनय को आम का पना बहुत पसंद है, गर्मियों में राहत देने वाला। उसे मिसेज़ माथुर भी तो बहुत पसंद हैं... किंतु ये आग। इतने तमाशबीन इकट्ठे हो गये हैं और ऊँची आवाज़ में चीख रहे हैं। किसी को भी बात समझ पाना मुश्किल है... बस, आग की लगातार ऊँची उठती लपटें, लू का बवंडर... हज़ारों की भीड़ और बेसुरी आवाज़ें। आवाज़ें लट्ठों के चटखने की भी हैं... आवाज़ें... आवाज़ें... आवाज़ें...
वह लौट पड़ा। मिसेज़ माथुर ने मिनी को उनके पलंग पर सुला दिया था और स्वयं कुर्सी पर बैठी हुई थी। आग की भयंकरता देखकर भी विनय ने संयत स्वर में उनसे कहा-"कुछ नहीं हुआ मिसेज़ माथुर, आग लगी है लकड़ियों के ढेर में और दर्द की चीखें भीड़ के मुँहसे निकल रही हैं।"
मिसेज़ माथुर ने चेहरा हाथों में छुपा लिया। ज्यों आग की गर्मी यहाँ तक महसूस हो रही हो-"अब हमारे घर काक्या होगा?"
विनय का हाथ तसल्ली देने को उनकी पीठ तकउठा फिर जाने क्या सोचकर रुक गया। मईकी उदास और ऊँघती दोपहर यकायक हलचल से भर उठी। तेज़ धूप में सूखते इन वीरान सेदिखतेघरों में इतनी भीड़ और कोलाहल बंद था? यह बेमौसम बहार! विनय को पहली बार ये मोहल्ला रोमांचकारी लगा। यहाँ की ज़िंदग़ी में लगा जंग थोड़ा छूटा। इस नीरस और काहिल शहर में कुछ तो हुआ... कुछ तो परिवर्तन हुआ ही... मिसेज़ माथुर पहली बार स्वयं चलकर विनय के घर तक आईं... पहली बार उन्होंने विनय को दिल तक उतरती नज़रों से देखा, पहली बार उनके वजूद की पिघली मोम में विनय इस क़दर सना... पहली बार उसके नीरस बेजान घर में उनके कंगन खनके ... पहली बार...
मिसेज़ माथुर घबराकर बार-बार दरवाज़े पर खड़ी हो जातीं या खिड़की से झाँकती-"नेटवर्क भी नहीं काम कर रहा है, उधर मि। माथुरघबरा रहे होंगे। अब क्या होगा? आप ज़रा फिर से देखिए न जाकर। हमारा तो मन घबरा-घबरा कर ढेर हुआ जा रहा है। आपको घबराहट नहीं हो रही?"
विनयको उनके सुर्ख होंठ अंगारे से प्रतीत हुए। वह उनकी ज़िद्द पर दोबारा आग के नज़दीक चला गया। आसपास के सारे पेड़ लपटों के सामने बौने लग रहे थे। तीसरा टाल भी दहक रहा था। तमाम लट्ठे सुर्ख़ हो उठे थे और उनमें तमाम जगहें दरारें नज़र आ रही थीं। उसे उसके घर दूध देने वाले चेतराम की बिवांईसे युक्त एड़ियाँ याद हो आईं। नहीं, बिवांई से युक्त एड़ियाँ तो चेतराम की थीं, वह तो आग ने खूबसूरत कसीदा काढ़ा है जिसके रेशों में ज़िंदग़ी का सारा रहस्य सजा है। वह इसकी सारी खूबसूरती अपने में भर लेना चाहता है जैसे दुल्हन बनकर आई मिसेज़ मा... नहीं सविता के मेंहदी रचे गोरे पाँवों को हथेलियों में भर लेने की इच्छा हुई थी। इच्छा हुई थी वह इस आग में नहा ले। उसकी ताकतवर लपटोंको महसूस करे उसकी मोहक लपट सुनहली, चिकनी, मुलायम ... कितनी प्यारी है। उसे लग रहा है कि लपटों में नहाकर वह दमक उठेगा, मृत्युंजय बन जाएगा। उसे महसूस हो रहा है कि 'वह है' ... यह आग भी नहीं है, फरेबी लपटें भी नहीं हैं, सिर्फ़'वह है।'
आग बढ़ती जा रही थी। फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ अभी तक नहीं आई थी। लगता था आधा शहर इस तमाशे को देखने आ गया था। सब खड़े चीख रहे थे। सब इस आग से हार मान चुके थे। सब ये सोचकर डर रहे थे कि जैसे अब उनके जल उठने की बारी हो। लपटोंमें से मानो फ़िडल की आवाज़ उठ रही थी। नीरो खुश है क्योंकि उसकी परिवर्तन की प्यासी आँखें लपटों में से रोम का नया और बेहद खूबसूरत रूप उभरतादेख रही हैं। फिडल की आवाज़ तेज़ होती जा रही है।
विनयको प्यास महसूस हुई। वह घर लौट आया। मिसेज़ माथुर घबराई हुई दहलीज़ पर बैठी थीं। उनकी सवालिया नज़रें उसके चेहरे पर आ टिकीं। फिर जाने क्या सोच कर वे उठीं और विनय को पानी लाकर दिया। गले से नीचे उतरता पानी कुछ यूँ लगा जैसे सूखी नदी के कगारों पर हरियालीछा गई हो। वाक़ई पानी का ऐसा स्वाद तो उसने कभी महसूस नहीं किया। उसने भर नज़र मिसेज़ माथुर की ओर देखते हुए कहा-"आग तो बहुत भयानक है। अभी तक फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ भी नहीं आई।"
"अब? हमारे घर का क्या होगा? मिनी के पापा को भी आज ही टूर पर जाना था।" वे जल्दी-जल्दी चेहरे का पसीना अपने आँचल से पोंछने लगीं।
"घबराइये नहीं, हवा का रुख़ पश्चिम की ओर है और आपका घर पूर्व की ओर पड़ता है।" विनय ने तसल्ली दी।
"हवा का रुख बदलते क्या देर लगती है।" उनकी आँखें विनय की आँखों से मिली और उन्होंने पलकें झुका लीं।
विनय अपलक उन्हें देखता ही रह गया। उनका मन हुआ कि वे इसी तरह उसके पास रहे और आग कभी न बुझे। उनके बदन में बड़ा सलोना आकर्षण था और अजीब-सा कसाव जो बरबस चुनौती देता-सा लगता था। चिकना-चिकना मुलायम बदन। आँखों की गहराईयों में सपने डूबे से। उन्हें देखकर एस.एम. पंडित के कैलेंडर याद हो आते थे।
आग दूसरी तरफ़, सड़क के सामने की टाल में पहुँच गई थी जो एक भयानक संकेत था क्योंकि सड़क के उस ओर एक के बाद एक आपस में सटे ग्यारह टाल थे जिनमें टनों लकड़ियाँ भरी थी और दिनभर रंदा चलता रहता था। रंदे से चूर हुआ लकड़ी का बुरादा उनकी अतिरिक्त कमाई का साधन था। यह बुरादा अँगीठियों में भरकर जलाया जाता था जिस पर ग़रीब की रोटी पकतीथी। बुरादे से भरे सैंकड़ों बोरे इन टालों के पीछे रखे रहते थे। उन तक आग पहुँची तो मिनटों में चहुँ ओरफैल जायेगी लपटें। फायर ब्रिगेडकी दो गाड़ियाँ घंटी बजाती आ गई थीं। होमगार्ड्स और पुलिस के सिपाही तमाम जगह फैल गये थे। मिलिटरी के जवान भी आ गये थे और पानी से भरी मिलिटरी की दो गाड़ियाँ ख़ाली कर चुके थे पर आग तेज़ सेतेज़तर हो गई थी और देखते ही देखते सभी टाल आग की गिरफ़्त में थे। हज़ारों का माल स्वाहा हो रहा था। सब जान गये थे कि अब इस पर काबू पाना आसान नहीं है। सारी भीड़, हज़ारों की भीड़ खड़ी थी और चीख़ें, बदहवास चीख़ें फिज़ाँ में तैर रही थी। जो टाल आग से बचे थे उनके मालिकों ने गेरू घुले पानी को टाल के चारों ओर छिड़कवा दिया था और पानी और बालू के ड्रमों की फ़ेंस खड़ी कर दी थी।
विनय घर लौट आया। शाम नज़दीक आ रही थी। पश्चिम में सूरज का गोला तपते शोले जैसा झील के अंक में बुझ जाने को आतुर था। लग रहा था जैसे सब आग के अभ्यस्त हो चुके थे। मिसेज़ माथुर ने विनय के चौके में जाकर चाय बनाई। विनय डिब्बे से नमकीन और बिस्किट निकाल लाया। एक बिस्किट उसने मिनी के हाथमें देना चाहा तो मिसेज़ माथुर हँस पड़ी-"मिनीका अन्नप्राशन अगले महीने कराएँगे, तब खिलाना।" विनय झेंप गया। चाय पीते हुए विनय ने बताया-" आपके घर की बाहरी दीवारें झुलस कर काली पड़ गई हैं, बगीचे की लकड़ी की फेंसिंग और बरामदे में पड़ा बेंत का सोफ़ा भी जल चुका है। लेकिन आग घर के अंदर नहीं घुस पाई क्योंकि तब तक मिलिटरी के जवान आ चुके थे।
"हे भगवान... ये क्या हुआ?" कहते हुए उनकी आँखों में पानी, झिलमिलाया और वे फुर्ती से दरवाज़े की ओर बढ़ीं कि विनय ने उन्हें झटके से खींच लिया-"इसमें घबराने की क्या बात है? आग बढ़े उससे पहले ही हम सारासामान निकाल लेंगे। अभी चलते हैं चाय पीकर।" अचानक उनकी तसल्ली का बाँध टूट गया और वे विनय के कंधे पर सिर टिकाकर रो पड़ीं। विनय के शरीर में चिंगारियाँ भड़क उठीं। धीरे-धीरे उन्होंने ख़ुद बखुद अपने को विनय की बाँहों में समा जाने दिया। उनके आँसुओं की जमुना में विनय को ताजमहल का साया झिलमिलाता नज़र आया।
"भागो, दौड़ो, बचाओ" के शोर से मिनी रो पड़ी, विनय की बाँहों से छूटकर उन्होंने रोती मिनी को गले से लगा लिया। आग चौराहे तक फैल चुकी थी। भगदड़ मची थी। अपना-अपना माल असबाब लेकर सब भाग रहे थे। नाज़ुक लड़कियाँ जिनसे अपनी चुनरी भी नहीं सम्हलती अपने दोनों हाथों में वज़नी सामान उठाए दौड़ रही थीं। मकानों के भरभराने की आवाज़ और लकड़ी की चटख आपस में एक लय पैदा कर रही थी। मानो बाँस के जंगलों का संगीत हो। लपटों की हर एक आवाज़ विनाश के नारे लगा रही थी। आग... आग... सब तरफ़ आग... और यहाँ वहाँ भागता दयनीय आदमी। सब तरफ़ अपनी हस्ती को क़ायम रखने की कश्मकश। भीड़ का सैलाब मैदान की तरफ़ भाग रहा था और मैदान में हवा के धुएँ के खंभे खड़े कर दिये थे और उन खंभों पर विनाश की आशंका केखटोले थे फिर भी आदमी पनाह माँग रहा था।
मिसेज़माथुर के शयनकक्ष में भी चुपके से एक चिंगारी पहुँच गई थी और उनका रोज़वुड का पलंग जल रहा था। विनय को पता था इस ख़बर के बाद क्या होगा? लपटेंबहुत तीखी थीं और विनय को झुलसाये देरही थीं। चार पाँच जवान मोटे-मोटे पाइप लिए मिसेज़ माथुर के घर की ओर दौड़े। निश्चयही आग अधिक फैलने नहीं पाएगी।
आग का ब्यौरा सुन मिसेज़ माथुर काँप गईं। वे बेतहाशा अपने घर की ओर दौड़ीं। विनय ने मिनी को गोद में ले लिया और उनके पीछे पड़ा। मिसेज़ माथुर का घर जलने से बच गया था। जवानोंनेबड़ी फुर्ती से आग पर काबू पा लिया था लेकिन मिसेज़ माथुर रोये जा रही थीं। विनय ने उन्हें समझाया-"देखिए, एक बहुत बड़ेहादसे से आप बच गई हैं। चलिएघर चलते हैं... इत्मीनान से एक-एक कप चाय और पिएँगे। मिनी की तरफ़ ध्यान दीजिए। रो-रोकर बेहाल है वह, भूख भी लगी होगी उसे।" मिसेज़ माथुर को जैसे होश-सा आया। वे फुर्ती से ताला खोल कर अंदर गईं और फ्रिज से जूस और दूध निकाल लाईं। घबराहट के मारे उन्होंनेशयनकक्ष की ओर देखा तक नहीं। घर लौटकर विनय ने रो-रो कर सोई मिनी को पलंग पर लेटा दिया और मिसेज़ माथुर को कुर्सी पर बिठाल उनके भीगे गालों पर हथेलियाँ रखकर उनकी भीगी आँखों में झाँका जहाँ गहराईतक सिर्फ़ पानी था। उन्होंने पलकें झुकाई और बुदबुदाईं-"मुझे अब सिर्फ़ आपका आसरा है... बहुत कुछ तो जल चुका... वहाँ अँधेरा है और ये दौरे पर। मोबाइल भी ठप्प पड़ा है... ख़बर पहुँचे तो कैसे?"
विनय ने सब कुछ सुना, लेकिन अनसुने ही हद तक, उसेमहसूस हो रहा था लपटें उसके जिस्म के आसपास ही हैं कहीं। उसने उनके गुदाज़ बदन को समेट-सा लिया। न जाने कितने चुंबन कमरे में तैरने लगे। उनका सारा शरीर लपटों-सा लहराने लगा। उनकी गहरी आहों में माहौल की भयानकता के बावजूद प्यास का आभास कहीं ज़्यादा लगा। साँसें लंबी और गहरी होकर टूट-टूट जा रही थीं। उनका हर अंग मानो समर्पण की मुद्रा में सिहर रहा था। विनय को महसूस हो रहा था जैसे मिसेज़ माथुर कब से विनय की नज़दीकी के इंतज़ार में थीं... मानोउसे लपटों ने घेर लिया था और विनय का अंग-अंग गुनगुना उठा था। मिनी ने करवट बदली और उठकर रोने लगी। अपने को आज़ाद कर कंधों पर आँचल सँवारकर वे मिनी के पास पहुँच गईं। उनकी सिसकियों से लग रहा था, जो सूखी और आहों से भरी थीं कि वे मिनी को उठाते ही उससे लिपटकर रो पड़ेंगी। लेकिन मिनी उनकी गोद में आते ही चुप हो गई और वे सब भूलकर उसेथपकानेलगीं। विनय बाहर चला गया।
चौराहे पर खड़ी फायर ब्रिगेड के कर्मचारी आग पर काबू पाने में असमर्थ हो रहे थे। सारे मकान झुलस रहे थे। पेट्रोल पंपके दोनों ओर केजलपान गृह धोबियों की दुकानें मैदान बन चुकी थीं। सबको चिंता थी पेट्रोल पंप की। पेट्रोल पंप की ज़मीन पर दो तीन फुट बालू बिछा दी गई थी और पंप सील कर दिया गया था। गुरूद्वारे के पीछे वाले इमली के इक्का-दुक्का पेड़ों से छायादार मैदान में बेघर परिवार अपने असबाब सहित मौजूद थे। कभी इन पेड़ों के नीचे और पेड़ों के परली तरफ़ की टेकड़ियों पर बंजारे अपना पड़ाव डालतेथे। आज आग ने आबादों को खानाबदोशों में तब्दीलकर दिया था। इस मैदान में ख़ासा मेला-सा लग गया। मूँगफलीके और शरबत के ठेले खड़े हो गये। झिलमिलाती कुप्पी की काँपती रोशनी में एक औरत तीन ईंटों का चूल्हा बनाकर प्याज केभजिए तल रही थी। शाम गहराती हुई अँधेरा उगलने लगी जिसे आग की विभीषिका भी नहीं निगल पाई। हवा गरम और तेज़ थी। टाल के नज़दीक के तालाबों में पाइपडालकरपानी पम्प किया जा रहा था। लगता था जैसे आग ने पानी को फुसलाकर अपनी जमात में शामिल कर लिया था। पानीआग में पहुँचकर उसी में समाए जा रहा था। आसपास की मज़दूरझोपड़ियों में बच्चे एक़दम नई बाल्टियाँ लेकर घुस रहे थे जो कार्पोरेशन नेआग पर पानी फेंकने के लिए बाँटी थीं। फ़्यूज़ उड़ जाने के कारण चारों ओरअंधकार पसरा था लेकिन धीरे-धीरे हर व्यक्ति को सर छुपाने की जगह मिल गई थी। लोगएक दूसरे से अपना दुखड़ा रो रहे थे कि उनका दुःख दूसरों के दुःख से कहीं ज़्यादा अहम है और ये जो ढेर-सा सामान बचा है यह तो बहुत मामूली है, आग की भेंट चढ़े सामान की तो कीमतही नहीं आँकी जा सकती। तबाह हो गये सामान और संसार के खजाने की सारी हमदर्दी में कोई तुलना नहीं की जा सकती और सब जहाँ तहाँ पैर फैलाकर लेट गये। दिनभर की अफरातफरी के कारण उनके जिस्म थकान से चूर थे।
विनय ने घर लौटकर सारा हाल मिसेज़ माथुर को कह सुनाया। "शुक्र है आग आपके घर तक नहीं पहुँची वरना मिनी को लेकर हमें भी मैदान में शरण लेनी पड़ती।" कहतेहुए उन्होंने लाड़ से मिनी को देखा। कई बार रोने से मिनी के गाल सुर्ख़ थे, आँखों के कोये और पलकें गीली-गीली सी। वह नींद में बार-बार चौंक पड़ती थी। मिसेज़ माथुर उसका सिर सहलाने लगी।
"आप बहुत घबरातीहैं... मैं हूँ न?"
मिसेज़ माथुर गहरी नज़रों से विनय को देखने लगीं।
"आग की वज़ह से कहीं बाहर भी नहीं जा सकते। वरना किसी होटल में चलकर डिनर लेते।"
"मैं बनाती हूँ न! क्या खायेंगे?"
"चलिए... मिलकर बनाते हैं... डुएट में... आलू की सब्जी और परांठे।"
दोनोंचौके में आ गये।
"खाना बनाने के बाद एक बार और आग का हाल देख आईये।"
"आप भी चलिए न।"
"वाह, कोई तमाशा है क्या?"
"तमाशा? अरे एक़दम तमाशे जैसा तो है। ज़रा चलकर देखिए, सारा शहर उमड़ पड़ा है। पुलिस ने भीड़ की आमदरफ़्तका ख़ासा इंतज़ामकर रखा है ताकि लोग आग को देख सकें। आग की नुमाइश लगी है वहाँ तो।"
मिसेज़ माथुर पूरे दिन के बाद पहली बार मुस्कुराईं... विनय के मन की झुलसी कलियाँचटखने को आतुर हो उठीं। खाना खाते वक़्त भी विनय के मन में कुछ चटख-चटख पड़ता था। क्या था वह? आग के लट्ठे या कलियाँ। कमरे में जलती मोमबत्ती का पिघलना विनय को गहरे कुरेद गया... मानोउसका मन अब तक जमा था, अब पिघल रहा है।
विनयने मेंहदी की बाड़ में घिरे अपने बगीचे के बीचों बीच हरसिंगार के नीचे अपना पलंग बिछा लिया था-"आप बाहर नहीं सोयेंगी? अंदर तो बड़ी गर्मी है।"
"नहीं! बाहर मैं कभी नहीं सोती, मुझे डर लगता है।"
अपना बिस्तर बिछाकर विनय मिसेज़ माथुर का बिस्तर बिछाने अंदर आ गया।
"तब तक मिनी को मेरे बिस्तर में सुला आइए। वहाँ मच्छरदानी भी लगी है।"
मिसेज़ माथुर मिनी को सुलाकर लौटीं तो विनय को लगा कि उनकी आँखों में लपटों की चिकनी चमक और गुलाबीपन तैर आया है। विनय की तबीयत हुई कि उन्हें लेकर आग में कूद पड़े और लपटों में खूब-खूब नहा ले। अचानक विनय ने उन्हें बाँहों में भरकर चूम लिया। उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया। बस इतना कहा-"अब आप अपने बिस्तर पर जाइए, देखिए, मोमबत्ती बुझ गई है।"
जवाब में विनय ने उन्हें दोबारा चूम लिया। वे कसमसाने लगीं। विनय के हाथों ने उनके कंधे पर से आँचल सरका दिया और उनके कानों में फुसफुसाया-"आई लव यू सविता।"
उन्होंने उसके हाथों को रोकते हुए मदिर स्वरों में कहा-"आई नो... मगर इसवक़्त?"
विनय के कान कहीं खो गये थे और हाथजाग गये थे।
ब्लाउज़ के बटन खोलते ही विनय ने एक गहरी साँस ली और उन नर्म गुदाज़गोलाईयों में अपना मुँह छुपा लिया। वे शब्दों से प्रतिवाद करती रही लेकिन लपटें उनके बदन में भी थरथरा रही थीं। मिसेज़ माथुर दूर कहीं खो गईं। अब विनय की बाँहों में सविता थी... सविता... जिसकेमोहक आकर्षण में वह मि। माथुर के घर के आसपास भौंरे-सा मंडराता रहता था... और अपना दिल हार बैठा था... आग-सी सविता... आग-सी या शीतल सरितप्रवाह सी... विनयइससरिता की गहराईयों में समा गया... उसे लगा वह बेहद स्थूल हो गया है। कमरा उसके शरीर के फैलाव के सामने बेहद छोटा हो गया है। दोनों शरीर गूँथ से गये हैं। सविता लपटों सीकाँपरही है, पिघलने लगी है। विनय को उसका शरीर पानीकी बौछार-सा तृप्त कर गया... मानो आग से सुलगते विनय के लिए सविता शीतल जल का विस्तार बन गई।
वक़्त मानो ठहर-सा गया। कोलाहल दस्तक ज़रूर देने लगा पर सहमकर वहीं ठिठक गया। बूँद-बूँद तृप्ति सेसराबोर न जाने कब तक विनय सविता की बाँहों में रहा। सविता ने करवट बदलकर विनय के सीने में चेहरा छुपा लिया-"विनय, मुझेधोखा मत देना... कभी भी नहीं..."
अचानकतेज़ हवा में खिड़की के पल्ले हिलने लगे और चाँदनी का एक आरा बिस्तर पर फिसल आया। सविता के शरीर पर पड़ी चाँदनी ने विनय को बेहाल कर दिया... बेहद लाड़ से उसने सविता का चेहरा हथेलियों में भरकर कहा-
"नहीं सविता... कभीनहीं... ये विनय का वादा है। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ... मेरे कारण न तो कभी तुम्हें शर्मिंदा होना पड़ेगा और न तुम्हारा कुछ छूटेगा... कभी नहीं।"
"ओह विनय..." कहकर सविता ज़ोरों से विनय से लिपट गई और उसकेमाथे को चूम लिया।
लाउड स्पीकर पर कोई लगातार चीख रहा था-"अचानक बेघर हुए परिवारों के भोजन और सोने की व्यवस्था आपके प्रिय समाज सेवी श्री मंडलोई कीओरसे गुलाब भवन में मुफ्त की गई है। कृपया आएँ... और हमारी सेवा स्वीकार करें। हमइस अग्निकांड से उत्पन्न दुःख में आपके साथ हैं।"
धीरे-धीरे रात अपने रोज़ानाके तेवर में लौटने लगी। आग से बचे घरों से ज़िंदग़ी फुसफुसाने लगी। रोटियों कीसौंधी ख़ुशबू हवा में तैरने लगी। बच्चोंके रोने की आवाज़, पड़ोस के राउत जी के खर्राटों की आवाज़, मोहिनी के द्वारा ज़ोर-ज़ोर से बर्तन माँगने की आवाज़ विनय के घर के आसपास मंडराने लगी। लगता है आदमी हादसों में जीता है, कुछ देर की चीख पुकार और फिर ज़िंदग़ी की वही रफ़्तार। सचमुच, इंसान नियमित ज़िंदग़ी का कितना कायल है।
मिनीकुनमुनानेलगी। सविता विनय की बाँहों से अलग होकर बाहर गई और गोद में मिनी को लिए लौट आई। सविताया मिसेज़ माथुर... मिनी की माँ... विनय की प्रेयसी... कितने रूप, कितने रंग हैं नारी के। लेकिन आग का बस एक रूप है... सब कुछ अपने में समेट लेना... समाहित कर लेना... विनय मानो अभी-अभी इस सिमटन से उभरा है। पूरी फ़िजाँ में मोगरा महक रहा था जैसे कमरे के अंदर सविता की खुशबू...
"डर तो नहीं लगेगा कमरे में?"
"तुम बाहर पहरेदारी जो कर रहे हो।" वे मुस्कुराईं। विनय नेबिस्तर पर हवा से बिखरे नन्हे-नन्हे सफेद फूल बीनकर मिसेज़ माथुर को खिड़की से हाथ बढ़ाकर दिये। मकान के पार सुर्ख आसमान और वहाँ ठिठका धुआँ विनय के मनप्राणों में ख़ुशी की मुरकियाँ उपजाने लगा। मीठी नींद की नन्हींपरियाँ पलकों पर जुटने लगीं। फूलों की ख़ुशबू और धुएँ की गंध से रची बसी हवा बहने लगी। विनय की पलकें मुँदने लगी। हवा में बलाकी तरावट भर आई। सफेद फूल फिर भी झर रहे थे और विनय की नीली मच्छरदानी पर किमख़ाब काढ़ रहे थे।