आत्मग्लानि / सुदर्शन रत्नाकर
वह रसोईघर में काम कर रही थी जब उसने जेठजी की आवाज़ सुनी। उसके कान खड़े हो गये। अवश्य वह उसकी शिकायत करने आए होंगे। जेठानीजी ने उनके कान भर दिए होंगे। "हूँ, कर दें शिकायत। उसने कुछ ग़लत थोड़ा न कहा था। सौरभ वह काम नहीं कर पाया जो काम उनकी बेटी आभा ने किया है। ससुर जी ने तो प्रतियोगिता में बैठने से भी मना कर दिया था, वह तो उसीने ज़ोर देकर पहले आभा के पापा को मनाया फिर उन्होंने ससुर जी को। ' उसने ठीक ही कहा था," आभा पढ़ लेगी तो हमारा ही नहीं सारे गाँव का नाम रोशन हो जायेगा। सौरभ परीक्षा में बैठ सकता है तो आभा क्यों नहीं। छोरी है तो क्या हुआ, पढ़ने में छोरों से कम नहीं है। जेठानी जी छोरे का दम्भ भरती हैं। उनकी नाक तो सदा ऊँची रवै है। मेरी आभा भी कम नहीं। "
पर आभा ने उनकी नाक ऊँची कर दी। गर्व से उसका सीना फूल गया। सौरभ प्रतियोगिता में सफल नहीं हो पाया। उसी बात का ताना उसने जेठानी जी को दिया था।
आभा प्रतियोगिता में तो सफल हो गई। लेकिन उसका दाख़िला, पढ़ाई का ख़र्चा कैसे होगा सब। आभा के पिता को यह चिंता सता रही थी। तब उसने सलाह दी कि ज़मीन का एक टुकड़ा बेच दिया जाए जिसे उन्होंने बड़ी मुश्किल से माना था।
काम करते-करते वह सोचने लगी, जेठानी जी कितनी बुरी हैं। जेठ जी से उनकी शिकायत कर दी और वह भी सुबह-सुबह आकर बैठ गये हैं। तभी उसने आभा के पिता की आवाज़ सुनी, "ना भाई यह नहीं हो सकै।" वह दरवाज़े की ओट में आकर उनकी आवाज़ सुनने लगी। जेठ जी कह रहे थे, "ना छोटे, मना मत करियो, सौरभ और आभा में कोई फ़र्क ना है, वह हमारी भी तो बेटी है। तुम उसकी पढ़ाई के लिये ज़मीन बेचो, यह अच्छा ना है। तुम यह पैसे रख लो। सौरभ की माँ ने भी पैसे रख लेने के लिये ताक़ीद की है। जब तुम्हारे पास हो जावैंगे तो चुका दियो। बस, अब बात ख़त्म।"
उसने देखा आभा के पिता ने जेठ जी के हाथ से रुपयों का बंडल ले लिया। वह वहीं खड़ी रही। उनके के सामने नहीं जा सकी।