आत्मविश्वास से सुपर नानी तक / जयप्रकाश चौकसे

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आत्मविश्वास से सुपर नानी तक
प्रकाशन तिथि : 19 फरवरी 2013


मुंबई की फिल्म सिटी में रिलायंस स्टूडियो आधुनिकतम जगह है फिल्मांकन के लिए। परिसर में आते ही हॉलीवुड का भ्रम हो जाता है। एक दिन का किराया एक लाख पच्चीस हजार रुपए है। इंदर कुमार की 'सुपर नानी' का सैट लगा है और तीस दिन तक फिल्मांकन चलने वाला है। फिल्म एक गुजराती नाटक से प्रेरित है। रेखा केंद्रीय भूमिका में हैं और उनके पुराने सह अभिनेता रणधीर कपूर उनके पति की भूमिका में हैं। कथा एक घरेलू स्त्री की है, जिसने सारा जीवन परिवार के लिए परिश्रम किया है, परंतु परिवार को उसकी कोई परवाह नहीं है। सभी सदस्य यह मानकर चलते हैं कि उसकी स्वयं की कोई इच्छा या सपना नहीं है। यह एक पारंपरिक छवि है और हाल ही में हम 'इंग्लिश विंग्लिश' में इसे देख चुके हैं। स्त्री का नाती अमेरिका में सफल फैशन फोटोग्राफर है और छुट्टियों में घर आकर वह अपनी नानी को प्रेरित करता है कि सदैव दासी-सा जीवन जीने की आवश्यकता नहीं है। वह उसके व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन करके उसके चित्र प्रकाशित करवाता है और वह मॉडलिंग की दुनिया में सफल हो जाती है। अब उसके पास अपना काम है, अपना नाम और धन है। इस नई सितारा हैसियत से वह पूरे परिवार का बेढंगापन बदलकर रख देती है। अपने पति की रंगीन-मिजाजी को भी संयत कर देती है। इंदर कुमार अपनी सफल फिल्म 'बेटा' की तरह इस फिल्म को भी मजेदार नाटकीय स्थितियों के साथ भावनाप्रधान बनाने का प्रयास कर रहे हैं और पटकथा इतनी मनोरंजक है कि रणधीर कपूर इसे आरके के लिए बनाना चाहते थे।

फिल्म का संदेश स्पष्ट है कि महिला को मात्र गृहकार्य की सीमा में नहीं रखा जा सकता और आर्थिक स्वतंत्रता उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है। बहरहाल, आज से कोई पच्चीस वर्ष पूर्व सचिन ने मराठी में 'आत्मविश्वास' नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें दादर क्षेत्र में मध्यम वर्ग का परिवार आधुनिकता के प्रभाव में अपने नैतिक मूल्य खो रहा है और पति भी मकान बेचकर अपने व्यवसाय के लिए बेकरार है। इस घर की महिला की आवाज भी दब गई है और लोग मनमाना आचरण करते हैं। एक दिन महिला की बचपन की सखी विदेश से लौटती है और घर के हालात देखकर अपनी सहेली को एक तावीज देती है कि इसे पहनने से उसके कष्ट दूर हो जाएंगे और गृहस्थी के चक्र में पिसा उसका आत्मविश्वास लौट आएगा।

अगले ही दिन से वह परिवार के सारे सूत्र अपने हाथ में लेती है और कुछ ही दिनों में परिवार का कायाकल्प कर देती है। गुमराह होते सदस्य दुरुस्त हो जाते हैं, मकान का बेचना रद्द हो जाता है।

कुछ समय पश्चात सहेली लौटती है, उसे पुन: दक्षिण अफ्रीका जाना है। अनमने मन से अब ताबीज लौटाने का समय आ गया है। उसकी सहेली कहती है कि उस तावीज में कोई दम नहीं है, वह तो उसने दक्षिण अफ्रीका के एक बाजार से यूं ही खरीद लिया था। दरअसल, उसने तावीज के ताकत की मनगढं़त कथा उसे सुनाई थी, ताकि किसी बहाने उसका आत्मविश्वास लौटे। युवा अवस्था में कॉलेज में उसने अपनी सहेली की योग्यता और नेतृत्व क्षमता देखी थी। गृहस्थी की चक्की में उसने स्वयं को आटा बनने दिया और उसका आत्मविश्वास खो गया। पति व बच्चों की इच्छाओं के रथ को खींचने का घोड़ा मात्र बन गई और पीठ पर चाबुक खाती रही। जिस दिन उसने कोड़ा अपने हाथ में लिया, सब ठीक हो गया।

गौरतलब है कि सचिन की मराठी फिल्म 'आत्मविश्वास', बाल्की की 'इंग्लिश विंग्लिश' और इंदर कुमार की 'सुपर नानी' एक ही कहानी के तीन रूप हैं, आधार समान है। आत्मविश्वास का तावीज, श्रीदेवी की फिल्म में अंग्रेजी बोलने की क्षमता और इंदर कुमार की फिल्म सफल मॉडलिंग हो जाती है। एक फिल्म मुंबई में बनी है, दूसरी चेन्नई में और तीसरी की कथा गुजरात की है, गोयाकि क्षेत्र और उसकी राजनीति तथा आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, महिला दमित ही है, दामिनी ही है। ये तीनों फिल्में पुरुष नजरिये में गहरे पैठी सामंतवादी प्रवृत्ति को ही उजागर करती हैं। यह तीनों ही पुरुष के प्राचीन पूर्वाग्रह पर आक्रमण करती है और पुरुष सोच की वह चट्टान इतनी मजबूत है कि परिवर्तन की सारी लहरें माथा कूटती रहती हैं।

सचिन की 'आत्मविश्वास' निम्न-मध्यम वर्ग की कथा है, 'इंग्लिश-विंग्लिश' अमीर साधन-संपन्न वर्ग है। इंदर कुमार ने भी यही परिवेश चुना है। महिला की दशा सभी वर्गों में समान रही है। झोपड़-पट्टी एवं जनजातियों में पाखंड कम होने के कारण महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है। शादियों के दुरूह रीति-रिवाज और उससे जुड़े आडंबर से निम्न आर्थिक वर्ग और जनजातियां मुक्त हैं। मध्यम वर्ग अधिक कुंाग्रस्त रहा है। जब कोई वर्ग असीमित स्वप्न देखने की दशा में होता है, तब आर्थिक नैराश्य और साधनों की कमी कुंठाओं को जन्म देती हैं। अब टेलीविजन के दूरदराज पहुंचने के बाद इच्छाएं और सपने कमोबेश सभी जगह जाग रहे हैं। प्राइवेट चैनल द्वारा संचालित टेलीविजन इच्छाधारी सांप है।

बहरहाल, साठ वर्षीय रेखा को केंद्रीय भूमिका मिली है और अपनी दोपहर में वह राकेश रोशन की एक फिल्म में उस पत्नी की भूमिका कर चुकी हैं, जिसके पति ने पैसे के लालच में उसकी हत्या का प्रयास किया था। बच जाने के बाद वह नए रूप में प्रस्तुत होकर उसे सबक सिखाती है। दरअसल कथा का यह फॉर्मेट सदियों पुराना है। चंदूलाल शाह की 'गुण सुंदरी'(१९२५) में यह पहली बार सिनेमा में प्रस्तुत हुआ था। इस उद्योग में जमे रहने पर भूमिकाएं आ जाती हैं, जैसे क्रिकेट में विकेट पर जमे रहो तो रन बन ही जाते हैं। मैडम रेखा के मिजाज का जालोजलाल आज भी वैसा ही है। सचिव फरजाना उनके गिर्द सैटेलाइट की तरह मंडराती रहती है।

बहरहाल, एक पुरस्कार समारोह में रेखा की मांग में सिंदूर था, जो धर्मवीर भारती की कनुप्रिया की पंक्तियों का स्मरण करा रहा था 'कृश्न तुमने मुझे अपनी बांहों में तो बांधा, पर इतिहास से वंचित क्यों किया।'