आत्महंता नहीं / कविता भट्ट
यों तो मौत का माहौल दुःख भरा ही होता है, लेकिन चम्पा की मौत से सारा गाँव विशेषकर महिलाएँ स्तब्ध थीं । कल खेत में पेड़ से लटकी उसकी लाश मिली थी। चम्पा की चिता जलाकर उसके परिवार वाले और कुछ परिचित नदी के घाट से पहाड़ी पगडंडी पर चढ़ते हुए बतिया रहे थे।
सारे चेहरे उदास थे, भोला भी मुँह लटकाए पीछे चला आ रहा था। धीरे-धीरे सब गाँव के पास पहुँचने लगे। गिरीश बोला, "चलो मुक्ति मिली बेचारी को, बड़ी ही मेहनती और समझदार थी; बेचारी लेकिन अपने पति भोला के नशे की लत, झगड़ों एवं गाली-गलौच और तमाम बुरी आदतों से दुःखी होकर आत्महत्या की । कई वर्ष बीत गए थे शादी के बाद, लेकिन कोई संतान नहीं; इसलिए इसके पीछे रोने वाला भी कोई नहीं।"
किसी ने गिरीश की बात में रुचि नहीं ली । कुछ ने सुनकर भी अनसुना कर दिया।
इतने में भीड़ के बीच से कोई बोला, "अरे भोला तेरहवीं के बाद छह महीने वाली बरसी करवाकर बन्धन खोल देना जल्दी ही। फिर कोई अच्छी लड़की देखकर रिश्ते की बात बढ़ा देंगे। आखिर हमारा भाई ऐसे कब तक अकेले जिएगा। लड़कियों की कोई कमी है क्या? सुन्दर और सुशील हो, गरीब हो ,तो भी कोई बात नहीं , आखिर हमारा भाई लाखों में एक है। " बात के समर्थन में अनेक स्वर घाटी में गूँजने लगे।
महेश बुदबुदाया , " सब झूठ ! लड़की थी चम्पा भाभी के पेट में । और भोला भैया ने गर्भपात का दबाव बनाया था। परसों ही तो दु:खी स्वर में बताया उसने। बेचारी रोज की मारपीट सह ना सकी। ऐसी बीवी मेरी होती ,तो रानी बनाकर रखता।"
सामने पहाड़ गवाह बना खामोश खड़ा था। पास बहती हुई नदी जैसे बिलख-बिलखाकर कुछ कहना चाह रही थी।
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