आत्महंता / भगीरथ
उसने जीवन के सपने संजोये थे, किंतु वे चटखते रहे, टूटते रहे। ठीक उस शीशे की तरह, जिसमें उसकी असली शक्ल कई ख़ानों में विभक्त होकर टूटने का पूर्ण अहसास दे जाती है।
बेकारी के दिन व्यतीत करते कितना फ्रस्ट्रेशन हुआ था उसे। सब संबंध अर्थहीन और निरर्थक हो गये थे। वे दिन मानसिक तौर पर बहुत ही यातनाजनक थे। वह सनकी और बदमिजाज हो गया था। वह अक्सर आत्महत्या के बारे में सोचने लगा था। कभी-कभी उसमें आक्रोश की भावनाएं उफनने लगतीं।
यकायक ही परिस्थितियां बदल गयीं। नौकरी मिलते ही दुनिया इन्द्रधनुषी दिखने लगी। परिवार एवं दोस्तों में उसकी कद्र होने लगी। यहां तक कि उसने स्वयं अपनी कद्र की। बॉस की भृकुटि पर उसकी नजर रहने लगी। उसका हिलना-डुलना, रोना-मुस्कराना सब भृकुटि पर निर्भर रहने लगा। उसका पूरा प्रयत्न होता कि भृकुटि तने नहीं। जिन मानवीय मूल्यों के बारे में वह अक्सर सोचा करता था, अब वे उस भृकुटि में समा गये थे।
फिर भी, वक्त-बेवक्त, वह महसूस करता कि जीवन परिधि में बंध गया है। परिधि- जिसकी किनारी चांदी के गोटे-सी चमकती थी। लेकिन उसके अन्तर में एक भयानक घुटन-भरा अंधकार हिलोरें ले रहा था। वह चांदी की चकाचौंध में आँखें बंद किए अंधकार में डूबा रहा। सब-कुछ जानते-महसूसते हुए।
उसे अब तीव्रता-से महसूस होने लगा है कि वह सुविधाजनक किश्तों में आत्महत्या कर रहा है, जिसका अफ़सोस उसे है भी और नहीं भी।