आत्महंता / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

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मौत के बाद ही मुक्ता को पता चला की सब कुछ मौत के साथ ही ख़त्म नहीं होता। पटरी पर पड़ी अपनी लाश से वह लिपट कर जी भर कर रोना चाहती थी, जो दो मिनट पूर्व उसका अपना शरीर था और जिसकी रक्षा करने में तीस साल तक उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। अचानक लाश को भीड़ में घिरा पा कर चौकी! त्रासदी जब तक तमाशा ना बन जाए उसे कोई नहीं देखता है। साँस लेने के लिए जब सहारा के लिए तड़पति थी तब तो चिड़िया भी नहीं आती थी। आज मौत के कारणो पर वेवेचना कर सभी अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर रहे हैं।

हर कोई उसके साथ हो रहे ग़लत व्यवहार का लगातार समर्थन करता रहा। यहाँ तक की उसके माँ बाप ने भी उसे सब कुछ सहने की सलाह दी। वह छिपकली की तरह खौलते पानी के बर्तन पर बैठी रही और आग बुझने का इंतज़ार करती रही। उसे नहीं पता था कि दहेज की आग कभी नहीं बुझती!

निर्दयी समाज अपने स्वार्थ के लिए आताताईयों का जयकार करती रही और मुक्ता अकेलेपन में घुटती तड़पती और बिखरती रही। जिसने हाथ पकड़ कर साथ रहने की कसमे खाई उसका भी पहला कर्तव्य माँ बाप की इच्छाओ को पूर्ण करना था। मानो वह कोई फूल या बलि की बकरी है जिसे पति ने स्वेक्षा से उनके चरणो में अर्पित कर दिया।

आत्मा से स्वतंत्र शरीर से गुलाम मुक्ता का वेद वेदांत और रामायण गीता भी कल्याण नहीं कर सकी। सबने मानो एक जुट हो कर उसके पैरो में बेड़िया डाल दी थी। अंतत: पढ़ी लिखी मुक्ता ज्ञान शून्य और प्रतिकार हीन हो गयी। ऐसी ज़िंदगी जो मौत से भी बत्तर, अंतहीन, अंधकार युक्त, सोच कर मुक्ता काँपने लगी। अच्छा तो है लोग बेटी को कोख में ही मार देते है! उनका अपराध इनसे तो कम ही होगा जो दहेज देते और लेते है।

हे ईश्वर मुझे क्षमा करना, नहीं चाहते हुए भी मुझे मरना पड़ा आपसे बस एक ही विनती है-अब जब कभी मानव की रचना करना तो उसके चेहरे पर आँख और कान ऐसे बनाना जिससे वह इंसान का दुख दर्द देख सके और दूसरे की फरियाद सुन सके. ताकि कोई मुक्ता फिर कभी आत्महंता न बने।