आत्महत्या का उपयोग / राजकिशोर

Gadya Kosh से
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वह एक खुशनुमा दिन की मनहूस शाम थी। दूर के एक शहर में अपने पुराने जिगरी दोस्त के साथ दिन बिताने के बाद हम दोनों उसके घर में बैठे शराब पी रहे थे। मनपसंद साथ हो, तो शराब का नशा बढ़ जाता है। हम दोनों उसका मजा ले रहे थे कि दोस्त अचानक रोने लगा। शुरू में मैंने सोचा कि आँसुओं से धुल कर शराब का नशा पवित्र हो जाएगा। लेकिन जब मामला खुला, तो मेरी आँखों में भी आँसू आ गए। उसने बताया कि कल ही उसने अंतिम निर्णय लिया है कि अब आत्महत्या कर ही लेनी चाहिए। वैसे तो यह विचार उसके दिमाग से साल भर से घुमड़ रहा था, पर कल उसे लगा कि अब और टालना अपने साथ बेइंसाफी होगी।

कुछ कारण मुझे पता थे। अत्यंत योग्य होने के बावजूद उसे कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल पाई थी। पत्नी से अलगाव हो चुका था। वह पूर्ण रूप से भौतिकवादी थी। उसे सुख के साथ-साथ समृद्धि भी चाहिए थी। घर में अकसर किचकिच हो जाती। एक बार दोस्त ने तय किया कि वह नौकरी छोड़ कर तीन महीनों तक एक उपन्यास लिखेगा। उपन्यास नहीं लिखा गया तो मटरगश्ती करेगा। शादी के बाद से वह एक लगभग बँधा हुआ जीवन बिताता आया था। जिस शाम उसने अपनी इस योजना की घोषणा की, उस पूरी रात पत्नी ने उसे अपने पास फटकने नहीं दिया। उसके बाद जो कुछ हुआ, वह इतिहास है। पत्नी द्वारा परित्याग के बाद उसकी जिंदगी में दो और स्त्रियाँ आईं। पहली विवाहित थी, दूसरी तलाकशुदा। दोनों ने ही उसे निराश किया। पहली ने कम, दूसरी ने ज्यादा। जैसे कोई नदी में आगे बढ़ता जाए - इस उम्मीद में कि आगे पानी गहरा होगा, पर उतना ही पानी मिले जितना किनारे पर था। इस निराशा से उबरा तो...इसके बाद की कहानी और भी दर्दनाक है।

जब मैंने हर तरह से ठोंक-बजा कर देख लिया कि आत्महत्या के उसके इरादे को न बदला जा सकता है न टाला जा सकता है, तो पूर्व कम्युनिस्ट होने के नाते, हम बहुत ही तार्किक ढंग से विचार करने लगे कि आत्महत्या का कौन-सा तरीका बेहतर होगा। बात ही बात में मैंने उससे कहा कि अगर तुम्हें मरना ही है तो क्यों न अपनी मृत्यु को किसी सार्वजनिक काम में लगा दो। उसे यह प्रस्ताव तुरंत जम गया।

बातचीत और बहस के बीच से कई विकल्प सामने आए।

विकल्प एक : वह दिल्ली आकर किसी ब्लूलाइन बस से कुचल जाए और इस तरह दिल्ली सरकर को इसके लिए बाध्य करने का एक और कारण बने कि शहर की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए। इस पर उसने कहा कि ब्लूलाइन रोज ही एक-दो की जान ले रही है। जान ही देनी है तो क्यों न प्रधानमंत्री या सोनिया गाँधी की कार के नीचे आकर दे दूँ और मेरी लाश के कुर्ते से उन कामों की एक सूची निकले जिन्हें करने से देश की वर्तमान स्थिति में रेडिकल सुधार आ सकता है। मैंने उसे बताया कि बच्चू, यह असंभव है। बड़े नेताओं की गाड़ियाँ जब दिल्ली की सड़कों पर दौड़ती हैं तो कई किलोमीटर तक उनकी सुरक्षा व्यवस्था इतनी पुख्ता होती है कि कोई आदमजाद उन तक फटक नहीं सकता।

विकल्प दो : वह अहमदाबाद जाकर शहर के किसी प्रमुख चौराहे पर अपने को गोली मरवा ले, जिसके बाद पुलिस द्वारा मुठभेड़ हत्या का मामला बनाया जाए और मानवाधिकार आयोग में जाया जाए। इस योजना में खोट यह था कि गुजरात में ऐसे हजारों मामले पहले से लंबित हैं और केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं।

विकल्प तीन : वह घर में चुपचाप आत्महत्या कर ले और इस आशय का एक नोट छोड़ जाए कि मैंने तीन दिन पहले अपनी नौकरानी के साथ बलात्कार किया था, तभी से मेरी आत्मा छटपटा रही है। अपनी आत्मा पर इतना बड़ा बोझ लेकर मैं जीवित रहना नहीं चाहता। आशा है, मेरा यह कदम दूसरे बलात्कारियों के लिए एक प्रेरक उदाहरण बनेगा। यह विकल्प तो पाँच मिनट भी नहीं टिक सका। पाया गया कि बलात्कारियों के पास ऐसा हृदय होता, तो वे बलात्कार करते ही क्यों।

विकल्प चार : वह किसी जज की कार के नीचे आ जाए - यह चीखते हुए कि अदालतों में इतने ज्यादा केस पेंडिंग क्यों हैं? फिर उसके पास से परचे बरामद हों, जिनमें बताया गया हो कि देश के न्यायालयों में किस स्तर पर कितने मामले लंबित हैं और किसी भी केस के लंबा खिंचने पर मध्यवर्गीय परिवार की हालत क्या हो जाती है। यह विकल्प भी पोला साबित हुआ, क्योंकि हमारे देश की न्यायपालिका इस तरह के मुद्दों को विचार करने के योग्य नहीं मानती।

विकल्प पाँच : वह नागपुर जाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय के बाहर यह बयान जारी करने के बाद आत्मदाह कर ले कि जिस देश में आरएसएस जैसा संगठन खुले आम काम कर रहा हो, उस देश में मैं नहीं रहना चाहता। यह बहुत ही अच्छा मुद्दा था, पर मुश्किल यह थी कि इससे संघ वालों का बाल भी बाँका नहीं होगा। सरकार उनके बारे में सब कुछ जानती है, उसने सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के विरुद्ध ढेर सारे कानून भी बनाए हुए हैं, पर संघ के किसी पदाधिकारी या कार्यकर्ता पर मुकदमा नहीं चलाया जाता।

बोतल साफ हो चुकी थी, पर हमारे सामने अभी भी धुँधलका था। हम दोनों बेहद तकलीफ में थे : यह कैसा देश है, जिसमें कोई इस तसल्ली के साथ मर भी नहीं सकता कि मेरी मृत्यु ही मेरा संदेश है?

सुबह उठा, तो मेरा प्यारा दोस्त कूच कर चुका था। बगल की मेज पर उसकी लिखावट में एक पुरजा पड़ा था - पर्सनल इज पॉलिटिकल।