आत्महत्या / कमलेश पाण्डेय

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आत्महत्या अमूमन अपने हाथों से स्वयं अपनी ह्त्या संपन्न करने की क्रिया को कहते हैं. आत्म-ह्त्या कभी-कभी दूसरों के हाथों भी संपन्न की जाती है, पर इसमें ह्त्या करने वाले को ही ह्त्या के लोकेशन पर आत्महत्या का समुचित माहौल रचकर दिखाना पड़ता है. ऐसे रचनाशील लोग पुलिस और समाज के दबंग तबकों से लेकर फिल्मों- टीवी सीरियलों में भी खूब पाए जाते हैं. ह्त्या हो या आत्म-ह्त्या, दोनों ही स्थितियों में आदमी मर जाता है- इसलिए भारतीय दंड-संहिता में जो भी सिद्ध हो जाय, परिस्थिति और मुवक्किल की आर्थिक हैसियत के हिसाब से वकील और अदालतें वैसा ही कर लेती हैं. अगर अपनी ह्त्या खुद ही कर ली जाए तो एक तो कोई दूसरा आदमी ह्त्या की ज़हमत से बच जाता है, दूसरे एफ आई आर, रोजनामचा, तफ्शीश, थर्ड डिग्री, और बीस-पच्चीस सालों की अदालती कारर्वाई से देश और समाज बच जाता है. इसलिए ह्त्या अगर किसी और ने भी कर दी हो तो यही उत्तम है कि उसे आत्म-ह्त्या सिद्ध कर ऊपर बताये गए झंझटों से बचा जाय. आत्महत्या के ढक्कन से ह्त्या के केस के मर्तबान मज़े से बंद हो जाते हैं. आत्महत्या इस मायने में भी ह्त्या से ज़रा हटके है कि इसमें हत्यारा खुद एक सुराग छोड़ जाता है. सुसाईड नोट नामक ये सुराग अगर घटनास्थल पर न मिले तो समझना चाहिए कि उस आदमी की ह्त्या की गई है. फिर भी अगर जांच करने वाला उसे आत्महत्या ही मानने पर आमादा हो तो उसे ये सुराग खुद ही पैदा करना पड़ता है. कभी-कभी आत्महंता ये सुराग मौखिक रूप में अपने किसी नज़दीकी के पास रख जाता है जिससे मामले को आत्महत्या बता कर फाइल बंद करने में सहूलियत हो जाती है. पर ज्यादातर मामलों में आत्महंता के नजदीकी लोग मुश्किल में ही पड़ते देखे गए हैं. इधर कानून में बदलाव से किसी को आत्महत्या के लिए उकसाना भी जुर्म माना जाने लगा है, सो पुलिस ये मान कर चलती है कि हर आत्महत्या में उकसाने की कार्रर्वाई ज़रूर होती है जिसे कोई नजदीकी शख्स ही संपन्न करता है. इसका मतलब है कि महज़ आत्महत्या कर भर लेने से आप निश्चिन्त नहीं हो सकते कि आपने अदालती प्रक्रिया पर ढक्कन लगा दिया है. ग़नीमत बस यही है कि उकसाने के आरोपी के पास बस आपकी आत्महत्या का आर्थिक मूल्य-भर चुका कर मुक्त हो लेने का विकल्प रहता है. उकसाने के अलावा आत्महत्या के प्रेरक तत्वों पर ध्यान दें तो हमारे देश की हर संस्था में वे भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं. इस प्रेरणा का ऊर्जा-केंद्र देश की समृद्ध राजनीतिक परंपरा में मौजूद है. जब भी आपकी श्रद्धा हो इस ज्योति-पुंज से प्रेरणा लेकर एक अदद सुसाईड नोट तैयार करें और आत्महत्या संपन्न कर लें. ध्यान रखें कि ये मात्र प्रयास न हो, क्योंकि अगर चूक हुई तो भारतीय दंड विधान में लपेटे जायेंगे जो आत्महत्या से ज़्यादा कठिन सिद्ध होगा. आत्महत्या तो एक सुनिश्चित अवस्था है. इसे करने वाला ये नहीं कह सकता कि ज़रा आत्महत्या कर के अभी आ रहा हूँ, या काम होते ही फोन करता हूँ. यहाँ पहला प्रयास ही अंतिम होता है. अतः आधे-अधूरे मन से इसे नहीं करना चाहिए क्योंकि आत्मघात अधूरा रह गया तो क़ानून जो करेगा सो करेगा ही, अस्पताल और समाज भी आपकी ज़िन्दगी को एक लम्बी यातनामय मृत्यु बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. ह्त्या अधूरी या असफल छूट जाए तो अक्सर संदेह का लाभ मिल जाता है. आत्महत्या अधूरी रह जाय तो अपना आत्म ही अभिशाप बन जाता है.

ह्त्या और आत्महत्या कभी-कभी एक दूसरे के सहायक या पूरक भी होते हैं. पिछले कुछ दशकों से आतंकवाद के प्रणेताओं ने इन दोनों का एक घातक काकटेल तैयार किया है. इस प्रक्रिया में आत्महंता सामूहिक ह्त्या के विचार से कई लोगों के बीच जाकर आत्महत्या संपन्न करता है. ऐसा वो किसी जन्नत नाम की जगह पर जाने के इरादे से करता है. हालांकि इस बात के प्रमाण अभी तक नदारद हैं कि मानव-बम नामक ये आत्महंता जन्नत ही पहुंचे, न ही ये पता चल पाया है कि इस आत्महत्या के जरिये जिन लोगों की ह्त्या संपन्न हुई उन्होंने किस दिशा में कूच किया. जन्नत जाने का टिकट पाने के नेक इरादे से वंचित आम आत्महंता कहाँ जाते हैं इस पर अभी शोध होना या फतवा जारी होना भी अभी बाकी है. जब से मानव इस कायनात में अवतरित हुआ, जीवन से बेहद प्यार करता आया है. इस प्यारी चीज़ से उसे महरूम करने के तमाम सामान भी उसने खुद ही बनाए, जो अपने-आप में आत्महत्या का एक ठीक-ठाक-सा प्रयास है. एक समुदाय के तौर पर सभ्य हो लेने के बाद मानव एक ओर उन समूहों को तो दूसरी ओर खुद को भी उन समूहों में बांटने में लग गया. होते-होते इंसान इतने छोटे-छोटे खण्डों में बंट गया कि आखिर एक अकेली ईकाई रह गया. सदियों में बनी संस्थाएं और मिलजुल कर जोडी गई परम्पराएं टूट-टूट कर बिखरने लगीं तो इसका गवाह वो अकेला आदमी ही रहा जिसके मन में सब-कुछ पाने की लालसा और न मिलने पर आत्महत्या कर लेने का हौसला भी था. बची हुई क़सर बाज़ार की ताक़तों ने पूरी कर दी. रोज़-रोज़ कमाओ और रोज़ ही उडाओ. घी ही पियो चाहे ऋण लेकर. जब गले तक डूब जाओ तो गुहार लगाओ. बचने के रास्ते दो ही है- या तो किसी की ह्त्या करो, मसलन ज़मीर और ईमान की या किसी के भरोसे की या फिर एक ही बार अपनी पूरी आत्महत्या कर लो. फ़र्ज़ कीजिए कि आप किसान हैं. कई दशकों से चुनावी नारों की जान हैं. यानी आपकी जान भी गिरवी है नेताओं के पास. देश का पेट भरना आपका घोषित फ़र्ज़ है, पर खुद आपकी गर्दन इधर साहूकार और बैंक दबोचे हैं तो उधर कलाई मरोड़े बैठा है बाज़ार. तंग आकर आप करते हैं आत्महत्या का विचार. घर ही में मौजूद है, रस्सी और कीडामार दवाई जैसे औजार. ‘पीपली लाइव’ वाले शातिर किसान की तरह ऐलानिया आत्महत्या करके मीडिया और फिल्मवालों को सहयोग करने के बदले आप गुपचुप ये काम कर केवल किसान-आत्महत्या के आंकड़ों में योग करना पसंद करते हैं. यहाँ सच तो ये है कि आपकी ह्त्या हुई है, पर आप इसे सिद्ध करने में असक्षम होने की वज़ह से आत्महत्या कर बैठे. उधर व्यवस्था आपको कायराना या दीवाना कारणों से आत्महन्ता बता कर आपकी ह्त्या के आरोप से मुक्त हो गई. इधर शहरों के हालात भी कुछ जुदा नहीं हैं. महानगर में एक छोटा-सा कोना लूट कर आप भी जमे हुए हैं. सारी आर्थिक ताक़तें लगातार आपसे धक्का-मुक्की कर रही हैं. हर पल आपकी जिजीविषा का इम्तहान चल रहा है. ‘कहने को बहुत कुछ है मगर किससे कहें हम’ रट-रट कर आप कई अकेली रातें काटते हैं. एक रोज़ अन्दर बहुत कुछ खलबलाता है. सामने बंद सुरंग हैं. ख्यालों में पंखे से बंधा फंदा, फिनाईल की बोतल, नींद की गोलियां और मेट्रो का ट्रैक जैसे आत्महत्या के दीगर उपादान आपस में गड्डमड्ड होने लगते हैं. नींद खुलने तक मगर आप सामान्य हो चुके थे. पर महानगर के संयोग देखिये, बाहर आके सड़क पर चलते हुए ऐसे कुछ गाफिल भी न थे आप, पर एक बस ने आपके मन में पलती आत्महत्या की इच्छा को कार्यरूप प्रदान कर दिया. आगे पुलिस ने आपके द्वारा कभी न लिखे हुए सुसाईड नोट के हवाले से उसे आत्महत्या का दर्जा भी दिलवा दिया. अपने शायर की बड़ी मासूम-सी इच्छा है कि – ‘मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा’. मरने के बाद ज़िंदगी की चाह बड़ी अटपटी है. खैर शायर का सन्दर्भ अलग है पर आत्महंता ज़िन्दगी की चाह से नहीं बल्कि डर से ज़िन्दगी से पलायन करता है. इसलिए आखिर में इतना ही कहूँगा कि अपनी ह्त्या स्वयं संपन्न करने की बजाय आपकी ह्त्या का षड्यंत्र कर रही शक्तियों के सुराग ढूंढें, उन्हें बेनकाब करें और बस में हो तो स्वयं की जगह उन्हें ही फांसी पर लटकवाएं.