आत्महन्ता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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"भाई सुरेश, तुम नहीं जानते सुखराम को उसने तुम्हारे खिलाफ जानबूझकर नकरात्मक टिप्पणी लिखवाई है। तुम्हें यकीन नहीं हो रहा था न उस समय? यह देख लो।" कपीश ने पुस्तक सुरेश के आगे रख दी।

"लेकिन सुखराम ने तो कुछ और ही बताया था।"

"क्या?" कपीश ने सामने की सफेद दीवार पर थूकते हुए पूछा।

"कि तुमने ही उस पर ऐसा करने के लिए दबाव डाला था।"

मैं क्यों दबाव डालता? "–कपीश ने चाय सुड़कते हुए कहा–" लो, आ गए न तुम भी बहकावे में! मैं यह काम करता तो तुमको क्यों बताता? "

"हाँ, तुम्हारी इस बात में दम है।" सुरेश ने तीखी नज़रों से कपीश को घूरा–"मैं ज़रूर यकीन कर लेता पर।"

"पर...?"

"यह पत्र भी झूठा है क्या?" सुरेश ने जेब से पत्र निकालकर कपीश के आगे रख दिया। लिखा था–

भाई सुखराम जी, तुम अपने सम्पादन में छप रहे काव्य–संकलन 'कुत्ते को घी नहीं पचता' में सुरेश की कविताएँ ज़रूर छापो। भूमिका भस्मासुर से लिखवा लेना। मैंने उनसे बात कर ली है। यह सुरेश का बच्चा बहुत उड़ने लगा है। कई बड़ी पत्रिकाएँ भी इसे ससम्मान छाप रही हैं। इसके खिलाफ लिखवा देंगे तो इसकी कमर टूट जाएगी। ऐसा तुम्हें करना ही पड़ेगा। –तुम्हारा, कपीश।

पत्र पढ़ते ही कपीश सन्न रह गया। उसके हाथ से चाय का कप छूटकर फर्श पर गिर पड़ा और चूर–चूर हो गया। कपीश ने टूटे हुए कप को एक भद्दी–सी गाली दी और बेहयाई से हँसने लगा। -0-