आत्माराम / सुकेश साहनी
चौथे दिन भी चिता की राख काफ़ी गर्म थी। तपती ईंटों पर नंगे पाँव खड़े बड़े भाई के पैर जल रहे थे। वह इस सबसे जल्दी ही छुटकारा पाना चाहता था। उसका दिलोदिमाग अपने कारोबार में अटका हुआ था। इन चार दिनों में उसने दिल्ली स्थित फैक्ट्री से फ़ोन पर लगातार सम्पर्क बनाए रखा था। उसे रह रहकर पंडित (महाब्राह्मण) पर गुस्सा आ रहा था, जो बहुत धीरे धीरेछेाटे के पुत्र से चिता के चारों ओर पत्तलों पर दूध, दही, दीया, सुपाड़ी, दाल और न जाने क्या-क्या रखवाता जा रहा था।
इस अवसर पर उपस्थित दूसरे लोग यहाँ समूह में बँट गए थे। मृतक के सम्मान में उपस्थित लोगों की संख्या को देखकर भाई हैरान था। ज़िन्दगी भर दफ्तरों क़लम खिसने वाले क्लर्क भाई के प्रति उसके मन में कभी भी अच्छे भाव नहीं रहे थे।
तभी चिता की राख से पंडित ने एक अस्थि चुनी और सबको दिखाते हुए ऊँची आवाज़ में बोला, "सज्जनों यह है आत्माराम! दर्शन कर लो। मनुष्य की आत्मा इसी भाग में निवास करती है। केवल पवित्र व्यक्तियों की चिता से समूचे (अखंड) फूल की प्राप्ति होती है।"
इधर उधर खड़े लोग करीब सरक आए थे। भाई ने ध्यान से देखा, छोटी-सी हड्डी पर आकृति उभरी हुई थी। आकृति कहीं से भी खंडित नहीं थी। वह सोच में पड़ गया। उसका मुँह उतरता चला गया।
भाई के माथे से पसीना चू रहा था। वह टकटकी लगाए नदी की ओर देख रहा था जिसमें अस्थियों की राख प्रवाहित की जा रही थी। जाने क्यों उसे लगा, नदी का प्रवाह उसे अपनी चपेट में लेने वाला है। उसने घबराकर पीछे देखा। वहाँ खड़े लोग बहुत ध्यान से उसे देख रहे थे। उसे लगा, छोटे की अस्थियों के बीच से आत्माराम उसे मुँह चिढ़ा रहा है।
घर लौटकर उसने वसीयतनामे के नीचे अपनी अंतिम इच्छा लिखी-मेरा अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह गृह में किया जाए। -0-