आत्मालाप / अशोक भाटिया
‘बुढ़ापे में अकेलापन भी कुदरत की दोहरी मार है। इनके पिताजी चले गए तो अब इनको बातें बनानी आ गई हैं। कभी कहते हैं - चाकू से फल मत खाओ, कभी कहते हैं - चाय सुड़क कर मत पियो। आज पीने लगी हूँ क्या?‘ बूढ़ी मां बुदबुदा रही है। वह घर में अकेली है, लेकिन लगता है, जैसे किसी को सुना रही है।
गर्मियों के दिन हैं। अभी एकाध बरसात ही पड़ी है, पर बूढ़ी मां को ठंडक महसूस होने लगी है। बुढ़ापा आने से पहले ही मां के भारी शरीर और सारे घर के काम ने उसके घुटने घिस दिए थे। दर्द की वजह से उसने घुटनों पर मोटा कपड़ा डाल लिया है। गर्मी है, पर कुछ ठंडक और घुटनों की वजह से वह पंखा नहीं चला सकती। उसका मन सड़-हुसड़ रहा है।
‘लोग आजकल दिन में दो-दो बार भी नहा लेते हैं; मैं आठ-दस दिन बाद नहाती हूँ। ठंड के डर से आजकल भी ब्रांडी लेनी पड़ती है नहाने के बाद। चाय और अंग्रेजी दवाइयों ने पहले ही जिगर जलाकर रख दिया है।‘ बुदबुदाते हुए मां ने मेज पर रखा छोटा-सा डस्टबिन उठाया और उसमें बलगम उगल दी।
‘पति बिना कोई जिंदगी नहीं। मोहताजी बड़ी लानत-भरी चीज़ है। कहते हैं, गुग्गल क्यों लेती हो, बड़ी गर्म दवा है। न लेती तो अब तक अधरंग में पड़ी होती। कभी इसे लेना भूल जाऊँ, तो बायाँ तरफ सारा सुन्न हो जाता है।‘ कहकर बूढ़ी मां ने दाएं हाथ से बायां बाजू थोड़ा दबाया, फिर दर्द से सिसक उठी।
‘अपने मन की बात किससे कहूँ? कहते हैं, अकेले में क्यों बोलती हो! तुम्हारे पास तो मेरी बात सुनने का वक्त नहीं। नौ बजे ही दोनों घर से निकल जाते हैं। तो कोई न मिले तो आदमी गोबर के ढेर को भी अपना दुःख सुना देता है।‘ कहकर बूढ़ी मां ने दरवाज़े की तरफ देखा,फिर रूमाल से अपनी नाक पोंछी और गुस्से में रूमाल मेज पर पटक दी। उसकी आँखों में आंसू तैर रहे थे।
‘कल कहते हैं, यह कमरा बदलना है। मुझ बुड्ढी-ठेरी से एक बार भी पूछा कि मैं इसी कमरे को क्यों चाहती हूँ! सिर्फ इसी कमरे से बाथरूम जुड़ा हुआ है। मुझे बार-बार बाथरूम जाना पड़ता है।... और फिर जाली के दरवाजे से पीछे चौबारे वाले दिन-भर आते-जाते, बातें करते दिखते हैं। मुझे लगता है, मैं अकेली नहीं हूँ...