आत्म-कथ्य : हृदयेश / पृष्ठ 6

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उनका इलाहाबाद जाना हुआ था. प्रकाशक से मिले. प्रकाशक ने बताया कि पाण्डुलिपि खो गई है. उनके यह जाहिर करने पर कि पाण्डुलिपि तैयार कर दुबारा सौंपी जा सकती है, प्रकाशक ने पूर्व प्रकाशित पुस्तकें न उठने और कागज व मुद्रण के बढ़ते खर्चे का रोना रोकर अपनी असमर्थता प्रकट कर दी. उदारता यह दिखाई की दिए गए पाँच सौ रूपए की एवज में वह अपनी पसंद की पुस्तकें ले जा सकते हैं. इस उदारते में यह उदारता और जोड़ी कि पुस्तकों पर बीस प्रतिशत जो छूट दूसरों को देते हैं, उस छूट के प्रति सौ रुपए की पुस्तकें वह और उठा सकते हैं.

मिली पुस्तकों को साइकिल पर झोला लटकाकर उन्होंने बेचा था. दो छोटे भाइयों के शिक्षा संस्थानों में होने के कारण इस सेल्समैनी को करने में उनको जितनी दिक्कत होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं थी.

और फिर एक अन्य बिंधी हुआ प्रसंग. पहले का नहीं, कुछ बाद का, यानी सन् 1971 के आसपास का. ‘गांठ’ के बाद उन्होंने अपना दूसरा उपन्यास ‘हत्या’ लिखा था. उन दिनों सारिका पत्रिका ने अपने अंकों में पूरा लघु उपन्यास देने की योजना बनाई थी और दो एक उपन्यास वह प्रकाशित भी कर चुकी थी. उन्होंने भी ‘हत्या’ को इस योजना के अंतर्गत भेजा था. उन्हीं दिनों समानांतर कथा-आंदोलन का सम्मेलन मुम्बई में हुआ था, शायद पहला. इस आंदोलन के जनक और नायक कमलेश्वर थे, वही ‘सारिका’ के उस समय संपादक भी. मित्र से. रा. यात्री ने उस सम्मेलन में शिरकत की थी. यात्री ने पत्र द्वारा सूचना दी थी कि टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग की एक-एक ईंट बोल रही है कि हृदयेश का उपन्यास ‘हत्या’ छपना है. कमलेश्वर को उनका उपन्यास बेहद पसंद आया है. उनको अग्रिम बधाई, बहुत-बहुत.

बाद में दिल्ली जाना हुआ था. राजेन्द्र यादव ने भी मुलाकात के दौरान यही बताया था कि पहले ‘हत्या’ ‘सारिका’ में प्रकाशित हो जाए, उसके बाद ही वह पुस्तकाकार अक्षर प्रकाशन से आए, ऐसा कमलेश्वर उनसे कह गए थे. राजेन्द्र यादव ने जानना चाहा था कि आखिर फिर ‘सारिका’ में उपन्यास क्यों नहीं आया? क्यों नहीं आया का कारण वह नहीं जानते थे. साहित्य की राजनीति से वह बहुत दूर थे. कारण को लेकर वह बस इस सोच के इर्द-गिर्द भटक सकते थे कि आमंत्रण आने पर भी वह मुम्बई सम्मेलन में नहीं गए थे या यह मान लिया गया था कि हृदयेश समानांतर आंदोलन के एक अंध समर्पित और विश्वसनीय सिपाही नहीं बन सकते हैं.

और फिर एक ओर चुभता, वेधता, नश्तर लगाता प्रसंग. पहले के आसपास का. कुछ माह पश्चात् का. मुम्बई से एक सज्जन महेन्द्र विनायक का पत्र मिला, साथ में राम अरोड़ा का भी कि विनायक उनके उपन्यास ‘गांठ’ पर फिल्म बनाना चाहते हैं. इससे पहले इस संभावना की जानकारी यात्री और ‘सारिका’ में कमलेश्वर के संपादन सहयोगी सुदीप से भी प्राप्त हो चुकी थी. फिर कमलेश्वर का भी पत्र आया था. कमलेश्वर ने लिखा था कि चूँकि वह इस क्षेत्र की स्थितियों और दांव पेंचों से अनभिज्ञ हैं, बेहतर होगा कि विनायक से फिल्मीकरण की शर्तों के संबंध में वही बातचीत करें ताकि पारिश्रमिक की राशि आदि को लेकर उनके साथ पूर्ण न्याय हो सके. उनकी ओर से बात करने की उन्होंने सहमति मांगी थी. सहमति तो उन्होंने तुरन्त भेज दी थी. महेन्द्र विनायक एक ओर तो कमलेश्वर से भेंट कर बात आगे बढ़ा रहे थे, दूसरी ओर उनसे भी पत्रों द्वारा बराबर संपर्क बनाए हुए थे. विनायक चाहते थे कि बात सीधे उन्हीं से हो पर उन्होंने साफ जता दिया था कि शर्तें कमलेश्वर ही तय करेंगे. ऐसा फिर लगा था कि शर्तों को पक्की शक्ल लेने के लिए बस कागज पर उतरना है. लेकिन फिर विनायक ने उनको एक ओर परे खिसका कर जैनेन्द्र कुमार से उनके उपन्यास ‘त्यागपत्र’ पर फिल्म बनाने का अनुबंध कर लिया था. ‘सारिका’ में ‘गर्दिश के दिन’ स्तम्भ के अंतर्गत उन्होंने आत्मकथ्य में कुछ और हादसों का जिक्र करते हुए लिखा था कि जब-तब उन्हें लोग चोटी पर ले जाकर नीचे ढकेल देते हैं. किन्तु पूर्व अनुभवों से हासिल सीख से उन्होंने अपने जिस्म से हड्डियाँ निकलवा दी हैं. उन्हें अब चोट नहीं लगती है.

चोट न लगने का वह कथन सही भी था और गलत भी. सही इस अर्थ में कि अपने साहित्यिक संघर्षों से उन्होंने पलायन नहीं किया था. गलत इस अर्थ में कि ऐसे हादसे टीस देते थे ही और दिनों तक.