आत्म-परिचय / शिवपूजन सहाय
एक दिन शिव-पार्वती कैलास-शिखर पर बैठे हुए थे। एक ओर लम्बोदर गजानन अपनी सूँड और कान हिला रहे थे, दूसरी ओर भीमोदर नन्दी पूँछ डुलाकर मक्खियाँ उड़ाते हुए बड़े गौर से पागुर कर रहे थे। सामने बड़े-बड़े विकटानन और विकृतानन बैठे हुए थे। शिव-पार्वती की शोभा भी निराली ही थी। वे भस्म रमाये और ये अङ्गराग लगाये। वे सर्प लपेटे और ये जूड़ा समेटे। वे बाघाम्बर ओढ़े और ये पीताम्बर पहने। उनकी मदभरी आँखें, इनकी रसभरी आँखें। उधर मुण्डमाला, इधर मुक्तामाला। मालूम होता था मानो प्रलय के साथ सृष्टि बैठी हो, त्याग की बगल में शान्ति शोभती हो, और विश्वास के साथ उपासना विराज रही हो। कुन्देन्दु-धवल कैलास ऐसा जान पड़ता था मानो पुणयात्माओं की यशोराशि हो। बातों ही बातों में पार्वती ने पूछा “भगवन्! प्रलय होने को अब कितने दिन बाकी हैं?” सवाल सुनकर शंकरजी बड़े जोर से ठठाकर हँसे और बोले, “देवी क्या आज ही से सृष्टि की तैयारी करोगी?” पार्वती “मैं खेती करना चाहती हूँ। आप अपना नन्दी बैल दीजिए और कोई दूत भेजकर द्वारका से बलदेवजी का हल मँगा दीजिए तथा भैरव के कुत्ते को खलिहान की रखवाली के लिए नियुक्त कर दीजिए।” शंकरजी अट्टहासपूर्वक बोले “यह आज तुम्हें क्या सूझा है? तुम्हें क्या कमी है जो खेती करने पर उतारू हुई हो?” पार्वती ने कहा “मेरे पीहर के पड़ोसी भारतवासी अन्न बिना भूखे मर रहे हैं। मैं स्वयं हल चलाकर पृथ्वी की लुप्त उर्वरा शक्ति को पुनरुज्जीवित करना चाहती हूँ।” शिवजी फिर हँसकर बोले “पहले खेत में खाद डालने की तैयारी करो। जोतने की चिनता पीछे करना। अनन्तशक्तिमयी काली बनकर पृथ्वी को रक्तसिक्त कर डालो। फिर तो मांस-मज्जा की खाद से मेदिनी खिल उठेगी। रक्त खारा होता है, खाद भी खारी ही होनी चाहिए।” पार्वती खिलखिला उठीं और बोलीं “मैं आपका असली मतलब ताड़ गयी। आप अपने भूत-बैतालों को भोज देना चाहते हैं। देवासुर संग्राम में ली हुई पुरानी मुण्डमाल को बदलना चाहते हैं। किन्तु मैं अब भूलकर भी दुर्गा न बनूँगी।” शिवजी ने मुस्कराते हुए कहा “तो फिर काशी में अन्नपूर्णा के पास संवाद भेजो।” पार्वती“उन्हें तो अपने ही पेट से फुरसत नहीं है। वे तो रोज ही छप्पन प्रकार का भोग गपकती हैं। उन्हें दूसरों के पेट की क्या चिन्ता है?” शिवजी “अच्छा तो मैं वीरभद्र को भारतवर्ष की सच्ची दशा का पता लगाने के लिए तैनात करता हूँ और सख्त ताकीद किये देता हूँ कि वहाँ जाकर वह असली हालत की जाँच करके मुझे खबर दे तो मैं शीघ्र सारी व्यवस्था कर दूँ। गणेश! जरा वीरभद्र को भेजना तो।” पिता की आज्ञा पाते ही एकदन्त तुन्दिलकाय गजानन ने चिंघाड़ते हुए कहा “वीरभद्र!”
मैं तो पास ही बैठकर योगिनी के साथ भर-भर खप्पर मदिरा पी रहा था। गजेन्द्र-वदन से निकली हुई गर्जन-ध्वनि बड़ी कर्कशता से एकाएक आकर मेरे कानों के पर्दे पर टकरा गयी। मैं चौंक पड़ा। योगिनी ने कहा “जाओ, दौड़ो, गणनायक पुकार रहे हैं।” मैं दौड़ा हुआ उनके पास गया तो उन्होंने कहा कि, “तुम्हें पिताजी ने अभी पुकारा था, उन्हीं के पास जाओ।” वहाँ गया तो उन्होंने कहा कि, “तुम्हें पार्वती ने बुलाया है।” मैं तो बेढब घपले में पड़ गया कि भगवती कहीं और किसी के पास न भेज दें। मालूम नहीं, यह बुलाहट का सिलसिला कहाँ जाकर खत्म होगा। खैर, मैं जब भगवती पार्वती के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हुआ, तो वे बोलीं कि, “तुम्हें षडानन के ननिहाल जाना होगा।” मैं “क्या दक्ष प्रजापति की तरह आपके पिता भी कोई यज्ञ कर रहे हैं?” भगवती “यह पूछने से तुम्हें क्या गरज?” मैं “शायद यज्ञ विध्वंस करने के लिए मुझे जाना पड़े, क्योंकि सती के पिता का यज्ञ मैंने ही विध्वंस किया था।” भगवती रोषपूर्वक बोलीं “तू बड़ा अमंगलवादी है। बिना समझे-बूझे बीच ही में क्यों बुद्धि लड़ाने लगता है?” भगवान् शंकर ने हँसकर कहा “वीरभद्र ठीक तो कहता है। उस पर बेकार क्यों लाल-पीली हो रही हो? वीरभद्र! तुम इनके पीहर के पड़ोसी भारतवासियों की वास्तविक अवस्था जाँचने के लिए जाओ, वहाँ की हालत देखकर मेरे पास लगातार खबर पहुँचाओ, फेंकने पर जहाँ तुम्हारा त्रिशूल गड़ जाय वहीं आसन जमाओ और सब श्रेणी के लोगों का हाल जानने के लिए घर-घर चक्कर लगाओ।”
आज्ञा पाते ही मैं भगवान् भूतनाथ को साष्टांग दण्डवत् करके योगिनी के पास आया और वहाँ भर-भर अस्सी सात सतासी खप्पर मदिरा चढ़ा गया। जिस तरह मरुभूमि की यात्रा करने से पहले ऊँट एक ही बार सात दिन के लिए जल अपने पेट में भर लेता है उसी प्रकार भारतवर्ष की लम्बी यात्रा से पूर्व मैंने भी खूब कसकर जमा लिया। अच्छी तरह ढालकर मैं जब त्रिशूल लेकर खड़ा हुआ तब मालूम होने लगा कि पूर्व दिशा से एक भीषण हाहाकार क्रमशः गम्भीर होता हुआ हिमालय की दरियों को प्रतिध्वनित करता हुआ आ रहा है। मैंने समझा कि कोई दैत्य है। मैंने उसका संहार करने के लिए सरोष त्रिशूल फेंका। फेंकने पर मुझे भगवान् भूतेश की बात याद पड़ी। मैंने सोचा, “हाय! अब अपने हेडक्वार्टर का स्थान कैसे निश्चित करूँगा?” इतना ही सोचकर मैं त्रिशूल की तलाश में अन्धाधुंध दौड़ा। न जाने कितनी देर और कितनी दूर दौड़ने के बाद मैंने अचानक देखा कि भागीरथी के तीर पर ‘कलि-कान्ता’ नगरी के मध्य त्रिशूल खड़ा गड़ा पड़ा हुआ है। फिर क्या था, देवाधिदेव ‘महादेव’ का नाम लेकर मैंने वहीं आसन जमा दिया। मेरे डमरू-निनाद द्वारा प्रतिध्वनित ‘शंकर-घोष’ से समस्त नगरी गूँज उठी। किन्तु जिस दैत्य के लिए मैंने त्रिशूल छोड़ा था, उसका आज तक कहीं पता न लगा। उसकी माया तो देखी, पर वह मायावी नजर न आया। उसकी छाया तो देखी, पर वह छायापुत्र कहीं दिखाई न पड़ा। अतएव, उसकी तलाश में आज मैं कलकत्ते से बाहर निकला हूँ। मैं तो अपनी धुन का ‘मतवाला’ हूँ, जब उसकी तलाश करने पर तुल गया हूँ तब सारा संसार छान डालूँगा कहाँ जायगा? किधर जायगा? एक न एक दिन पकड़ पाऊँगा, तो फिर ‘मृत्युंजय का जप’ भी रक्षा न कर सकेगा; क्योंकि मैं भी तो मृत्युंजय का ही मुसाहब हूँ और उन्हीं की प्रेरण से यहाँ आया हूँ।
शिव ! शिव ! नशे की झक में मैं क्या-क्या बक गया ! अच्छा, लहर ही तो है। लेकिन इस लहर में आप न पड़िएगा। सिर्फ मेरी यात्रा का लक्ष्य स्मरण रखिएगा। मैं अपनी यात्रा की रिपोर्ट नियमित रूप से प्रकाशित करता रहूँगा। उसमें सच्ची और स्वाभाविक सूचना रहेगी। उसके द्वारा मैं यथेष्ट रीति से इस देश की आन्तरिक दशा बतलाऊँगा। लेकिन बतलाने का ढंग निराला होगा। जो मेरी ही तरह स्वतन्त्र ‘मत’ वाला होगा वही उस ढंग का समझनेवाला होगा। राष्ट्र, जाति, सम्प्रदाय, भाषा, धर्म, समाज, शासनप्रणाली, साहित्य और व्यापार आदि समस्त विषयों का निरीक्षण और संरक्षण ही मेरी योजना का अभिसंधान है। मैं उसे पूरा करने के लिए संकोच, भय, ग्लानि, चिन्ता और पक्षपात का उसी प्रकार त्याग कर दूँगा जिस प्रकार यहाँ के नेता निजी स्वार्थ का त्याग करते हैं। इसी अभिवचन के साथ, अब मैं, अपने इष्टदेव का स्मरण करते हुए यात्रापथ पर आरूढ़ होता हूँ
“सीस जटा गङ्गवारे भूखन भुजङ्गवारे गौरी अरधङ्गवारे चंद दुतिवारे हैं।
वृखभ तुरंगवारे मरदन अनङ्गवारे अड़बङ्ग ढङ्वारे मुण्डमाल धारे हैं।
महा ‘मतवारे’ त्यों दाता है उमंगवारे भूतन के सङ्गवारे नैन रतनारे हैं।
तान के तरङ्गवारे डमरू उपङ्गवारे भङ्ग रङ्ग वारे सो हमारे रखवारे हैं।।”
‘मतवाला’, प्रवेशांक का अग्रलेख: 26 अगस्त, 1923