आत्म-हंता / प्रतिभा सक्सेना
अंतरिक्ष की असीम परिधि में एक अति लघु धूमिल छाया डोल रही है।
पारदर्शी धुएँ- सी, कोई रंग न रूप! गड्डमगड्ड होती भटकती हुई। हाँ, बीच-बीच में मनोदशा के अनुरूप कुछ शेड्स बदल जाते हैं। अनिश्चित गति।
अनगिनत आकाशीय पिंड बिखरे पडे हैं चारों ओर, कहीं किसी से टकरा न जाये!
नहीं, नहीं, धूम्र के कण कहाँ टकराते हैं, लहराते-डोलते आर-पार निकल जायेगी।
अपार अंतरिक्ष में इतनी आकाश गंगायें, अनगिनत सूरज-चाँद, निर्जीव पिंड और अंध- के आवर्तन में कभी कभी ओझल हो जाती है।
दिक्-काल सब खो गये हैं!
'तुम?'
कहीं कोई है भी, या केवल भ्रम?
जैसे कोई हँस दिया हो।
'तुम यहाँ कैसे?'
'पता नहीं चला कैसे।एक झटका ऐसा कि सारे बोध शून्य! और फिर काल ऊपर से निकलता चला गया।'
'तुम्हीं ने तो झटक कर निकाल दिया था देह से प्राण को, दोष किसका?’
उत्तर कोई नहीं।
‘क्या चाहती हो?’
'गहरी नींद सो जाना। विस्मृति के अंक में पूर्ण विराम!
'जीवन के अध्याय पूरे हो लेने देतीं, अंत में था ही -पूर्ण विराम!
'सब-कुछ समाहित था तुममें, ज्ञान के बीज, चेतना के विद्युत-कण, रूप, धारणा- शक्ति। आरोहण-क्रम चल रहा था। अनपेक्षित ऐसा आघात झेला! कितनी पीछे धकिल गया तुम्हारा आत्मिक विकास! झटका खा कर सब छिन्न-भिन्न हो गया। बोधहीन जीव मात्र रह गईँ - कैसा लग रहा है अब?’
'बस हूँ इतना भर और कुछ नहीं!'
यह कैसा संवाद-? प्रश्नों का भान होता है, उत्तर कौंधते हैं- पर कोई नहीं यहाँ
फिर वही-
'कौन हो तुम?’
'मैं अनाम -अरूप। कुछ था, अब नहीं।।।। पर तुम कौन?’
'तुम्हारा अंशी, तुम्हारा कारण। पर तुम असमय अचानक क्यों चली आईँ?’
'...सहन नहीं हो रहा था। सोचा था छुट्टी मिलेगी। पर यह धुँधलके और अथाह-अनंत विस्तार में एकाकी बहते रहना।।।इससे तो वहीं अच्छा था। वहाँ कुछ करना संभव था। अब तो कुहासे के असीम सागर में डोलना रह गया। मेरे नियंत्रण में कुछ नहीं।अपनी कोई गति नहीं, कोई स्फुरण तक नहीं, एक निष्क्रिय मौन सर्वत्र!
‘देह से छुटकारा पाने की इतनी व्याकुलता थी? संचालन तो मन कर रहा था। उस पर नियंत्रण नहीं कर पाये?कितना कुछ था वहाँ, साधन थे, उपाय थे, कितने क्षेत्र थे। इतना बड़ा संसार कहीं रम जातीं।वहाँ नाते जुड़ते-टूटते क्या देर लगती है। कल, एक दम व्यतीत हो जाता है, जैसे हवाओँ पर लिखी धुयें की पंक्तियाँ।।।।
मन से कैसे छुटकारा पाओगे, जो साथ चला आया? अंत देह का, मन का तो नहीं।’
और छुटकारा काहे से - बोधों से, साधनों से, सीमाओं से, तब किसके माध्यम से व्यक्त होगा निराधार मन?'
स्मृतियों की डोर टूट गई, बिखरी पड़ी हैं।।'
बीच-बीच में प्रतिबिंबित होता कुछ - आभासित होता जैसे भूली यादें जल की पर्तों में बही चली जा रही हों।
नेपथ्य से पारदर्शी मेघ से आभास, उड़ते निकल जाते हैं।
'सोचा था- मस्तिष्क पर लगी सारी छन्नियाँ हटा कर इस विराट् ब्रह्मांड का दर्शन मिलेगा, मूल से संबंध जुड़ने का अवसर होगा।’
'मूल? शाख से टूट कर मूल से जुड़ने का भ्रम पाले हो?
निज को संचित - संश्लेषित होने का मौका कहाँ दिया तुमने! स्मृतियाँ, प्रभाव सब झटक दिये। जन्मों की साधना बिना, मूल स्वभाव धारने की क्षमता कौन पा सका?’
झकझोर दिया हो जैसे किसी ने।
जन्म-जन्मांतरों के संस्कार आभासित हो जाते हैं, बिना प्रयास- ज्यों छिन्न पात में बिरछ का शेष रस हुमक आये।
विच्छिन्न पड़ी मैं, क्या जाने कहाँ? कहाँ थमेगी यह भटकन!’
एकदम रिक्ति! कुछ छायायें क्षण को लहरा, अंतर का शून्य और गहरा देतीं हैं।कब तक, ओह।।।कब तक!
'चेतना का एक तमसाच्छादित कण -अपने स्थान से च्युत!'
'जहाँ होना था, वहाँ नहीं जब, किस गगन-मंदाकिनी के किस छोर, या किसी कर्षण के किस वृत्त में घूर्णित- कैसे कोई जानेगा?!'।।
उत्तर कोई नहीं।
एक बहका सीकर!
जीवन-धारा में बहता तो पहुँचता सागर तक, प्रवाह में मिल अपार बनने की अविराम साधना फलती - हाथ बढ़ा समा लेता उदधि!
पर अब कहाँ ठौर! हवाओं की बहक नसाये या तपन सोख ले- सागर बनने से तो रहा।
अपार महाशून्य में एक परिच्युत अणु!
न पथ, न गति!
नया प्रारंभ कब, कहाँ से हो- क्या पता!