आत्म चिंतन का दौर / सुशील यादव
देश में आत्म –चिंतन करने वाले एक ख़ास वर्ग का सीजन शुरू हो गया है|
वे लोग चुनाव नजदीक आते ही सक्रिय हो जाते हैं|
तरह-तरह की चिंताएं उन्हें घेरने लगती हैं|
देश उनको डूबता हुआ सा लगता है| वे अपने –अपने तरीके से वैतरणी इजाद’ करने में लग जाते हैं| कैसे देश को संकट से उबारा जाए ? इसकी नैय्या कैसे पार लगाई जाए?
चिंतन का एक दौर चालू हो जाता है|
तरह –तरह के व्यक्तव्य ,भाषण ,भाषण की शैली,भाषण के शब्द ढूढे जाने लगते हैं| .बड़ी पार्टी वाले, करोड़ो का बजट लुटाने के पक्षधर बन जाते हैं| विज्ञापन के नमूनो पर घन्टों बहस छिड़ जाती है|
हमारे देश में वैज्ञानिक पैदा न होने के कई कारणों में से एक यह चुनाव भी है| ’सोच’ की सारी ‘युवा-उर्जा शक्ति’ हर पांच साल में, एक बार इधर मुड़ी नहीं कि, तमाम ऊर्जा समाप्त|
’न्यूटन ,आइन्स्टाइन’ वाले देश में फकत, ‘साइंस’ हुआ करता था|
इलेक्शन के एक भी पोस्टर उन लोगो ने ,उनके बाप-दादों ने कभी देखा ही नहीं |
सेब के टपकने को उनने, कभी पडौसी मुल्क की करामात की संज्ञा नहीं दी| लाईट के, वेग –स्पीड को मापने के काम में,कतिपय , सरकारी रोड़े नहीं डाले गये | अमेरिका को खोजते वक्त, कोलंबस ,भारत आते समय वास्कोडिगामा के खिलाप ,किसी ने सियासी नारे नहीं लगाये| उनकी नाव को अपने इलाके में छेकने का किसी ने मुआवजा नहीं माँगा| किसी ने खामियाजा भुगतने की उन्हें धमकी नही दी|
स्वत: कोलंबस जी ने अमेरिका खोजने का दावा करके,अपने नये खोजे मुल्क में , एक भी वोट खीचने का प्रयास नहीं किया| वे खोजे| खोजकर नक्शे में फिट भर कर दिए| वे किसी इलेक्शन में पी एम,राष्ट्रपति के लिए अपनी उम्मीदवारी नही जताई| अपने बच्चो को सरकारी मुहकमे में नौकरी की मांग नही की| किसी सरकारी ठेके की तरफ मुह उठा के नही देखा|
हमारे तरफ सब उलटा होता है|
नेता चार कदम पैदल क्या चल लेते हैं ,वे देश की तरफ यूँ देखते हैं कि देखा ,है किसी में दम ?
अनेक नेता तो जैसे ,‘हाईबरनेशन पीरियड’ से आँख मलते हुए बाहर निकलते हैं| एक क्विक निगाह चारो तरफ डालते हैं| जरूरी ‘मदों’ के बारे में अपनी जानकारी फटाफट अपडेट करते हैं ,मसलन प्याज के भाव क्या हैं ?अभी ये मुद्दा बनने लायक है या नहीं?जमीन माफिया का रुख किधर हैं? किसको सपोर्ट कर रहे हैं ?जंगल के ठेके कब बदले ?शराब वाले कहीं ज्यादा ‘धुत्त’ तो नहीं ?चंदा देने वालों के हालचाल कैसे हैं? वे कमा के मोटे हुए या नहीं ?भ्रष्टाचार का पौधा सुख तो नहीं गया ?महगाई पर कोई नया गाना, फ़िल्म वालों ने बनाया क्या ?तमाम आकलन करने वालो का रिसर्च विंग काम करने लग जाता है|
कुछ कुम्भकरणीय नीद से, जागने के लिए एक –दो ड्रम चाय ,काफी, रम-बीयर की डकार लेते हैं|
जब उनके ‘जमूरे; जम्हूरियत की कैफियत से आगाह कर उन्हें फिट करार दे देते हैं तब उनका आत्म-चिंतन का दूसरा दौर चालू होता हैं|
अरे वो....., कन्छेदी,गनपत,समारू सोनी साले कहाँ मर गये सब ?
कुछ ’जी’ वाले संबोधन के लोग भी, याद कर लिए जाते हैं ,गुप्ताजी ,मिसर जी ,दुबे जी|
बुला लाओ सबों को भइ ,,,,,,! इलेक्शन नहीं लड़ना क्या हमें......?दिन ही कितने बचे हैं ?
चमचे ‘रायता’ माफिक इधर –उधर फैल जाते हैं| आदमी –कार्यकर्ताओ की फौज, पिछले इलेक्शन से कुछ ज्यादा जुड़ते दीखती हैं|
घर के सामने तम्बू ,तम्बू के आगे चाय की गुमटी जैसा तामझाम बताता है कि नेता जी चुनाव में जी –जान से जुट गए हैं |
नेता जी,अपने समर्थक लोगो से पूछ-पूछ के, कदम उठाने का बीड़ा उठाये दिखते हैं|
आप लोगो की राय क्या है ?किस पार्टी का जोर दिखता है ?
वे अचानक इसं अन्दाज से बाते करते है कि ट्रेन में सफर कर रहे हों|आगे कौन सा स्टेशन आयेगा जैसी उत्सुकता नजर आती है, भले ही उस स्टेशन से कोई सरोकार न हो ! आजू-बाजू वालों से कन्फर्म करते रहते हैं ,फला निकल गया क्या ?
वे पिछला इलेक्शन कम मार्जिन से जीते थे|उन्हें फक्र था कि दस-बीस व्होट पर उनकी शख्शियत काम कर गई ,वरना लोग तो लुटिया डुबो ही दिए थे ? अब की बार कहीं चूक न होवे| नहीं तो परचून की दूकान में बैठने की नौबत आ जायेगी|
इस बार उनने आत्म –चिंतन के लिए ‘गुरु हायर’ कर लिया है| वे एजेंडा दे देते हैं गुरु चिंतन कुटी में बैठ कर उनका वक्तव्य तैयार कर लाते हैं| रात को बारह बजे तक टी वी के हर चेनल को रिकार्ड करते हैं फिर धुर विरोधियों के बयान के तोड़ में क्या कहा जाए ,डिसाइड करते हैं| वे चाय पिलाते ,तो हम दुध पिलायें ,वे गरीबी में पले तो हम फुटपाथिए| उनकी माँ बरतन माजती तो हमारी कपडे धोने वाली| चिंतन की धारा अपने प्रवाह में निरंतर बहते रहनी चाहिए|
उनके ‘थिंक टेंक’ के पास, अमर्त्य सेन वाली अर्थशास्त्रीय पकड़ होती है|
उनके कथन ,कहानी किस्से ,सलीम-जावेद की फिल्मी कहानी सा चटकारा लिए होती हैं|
गरीबो को सुनहरे ख़्वाब परोसना ,पिछड़ों को आगे की लाइन में ले जाने का भुलावा देना ,अमीरों को टेक्स माफी ,थोडा-थोडा सब कुछ,सबो के लिए होता है|
चिंतन का चुनाव से लेना-देना, अभी-अभी हाल के जमाने का फैशन है| पहले कहाँ का चिंतन –विन्तंन होता था ?लठैत गये ,बूथ लुटे, नेता जीते,एक आदमी अपने –आप में बहुमत| सब कुछ शोर्टकट ,वन मेंन शो|
कट्टे के आगे कुत्ते कहाँ ठहरते ? कथा ख़त्म|
मुगेरी लाल वाले चिन्तन में झांसा ही झांसा है| जनता को बेवकूफ बनाने का पूरा इन्तिजाम रहता है| जनता को रूठे हुए बच्चो की तरह हर मिनट नया वादा कर दो ,जो जनता बोलती रहे मानने की ग्यारंटी दो| नल,बिजली,सड़क-पानी ,मुफ्त| खाना –पीना मुफ्त, शिक्षा मुफ्त| बेरोजगारों को रोजगार मुहैय्या करने की जवाबदेही| जनता बेचारी फिर दूसरा घर क्यों ढूढे ? मुगेरियों को जीता डालती है| शासन सम्हालते पता लगता है कि रस्ते आसान नहीं| सांप सूघ जाता है|कीचड़ उछालते-उछालते अपनी ही कमीज मिली हो जाती है| तब सिवाय मैदान छोड़ के भागने के और कोई रास्ता बचता नहीं !
इन दिनों गनीमत है,मान-मनौव्वल ,सर-फुटौव्वल तरीके से ही सही ,”लोकतंत्र” ,लंगड़ाते हुए सही ,धीरे-धीरे सही ,आहिस्ता-आहिस्ता सही,पांच सालाना सफर तय तो कर रहा है|