आदत / महेश दर्पण
दफ़्तर जाते समय वह हर रोज़ गली के नुक्कड़ पर पहुंच कर पल भर को रुकता। पलट कर देखता और हाथ कुछ ऊपर उठा कर हिला देता। दरवाज़े से लगी सीढि़यों पर खड़ी पत्नी उसकी ओर देखती जवाब में हाथ हिलाती नज़र आती। उसका हिलता हाथ देख कर वह सुकून से भर जाता और फिर पलट कर अपने रास्ते चल देता। उसे मालूम रहता कि इसके बाद भी पत्नी कुछ देर और उसे ओझल होते देखती रहेगी और फिर दरवाज़ा उढ़का कर अपने रोज़मर्रा के काम-काज में मगन हो जाएगी।
रोज़ की तरह आज भी यही हुआ। उसने नुक्कड़ पर पहुँच कर पल भर के लिए ख़ुद को रोका। फिर पलट कर जैसे ही हाथ ऊपर उठा कर हिलाने को हुआ, उसे ख़ुद पर हँसी आ गई। दरवाज़े पर पत्नी भला कहाँ से नजर आती। वह तो ख़ुद उसे खाट पर बीमार हालत में छोड़ कर आया है। उसका उठा हुआ हाथ कुछ मरियल अंदाज़ में नीचे आया। इसके बाद वह पलट कर चल ज़रूर दिया, लेकिन रह-रह कर जाने क्यों उसे यही लगता रहा जैसे आज कुछ छूटा जा रहा है।