आदमखोर / रूपसिह चंदेल
भूरे - काले बादलों का समूह अचानक पश्चिमी क्षितिज में उभरने लगा. सरजुआ के हाथ रुक गये. हंसिया नीचे रखकर वह ऊपर की ओर देखने लगा. हवा का बहाव तेज होता जा रहा था. भूरे बादलों के छोटे-छोटे द्वीप आसमान में तैरते हुए पूरब की ओर बढ़ने लगे. चीलों और कौओं के झुण्ड पंख फैलाए हवा के बहाव को चीरने की कोशिश करते पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे.
"बेमौसम ई का करि रहे हौ भगवान!" आंखें फाड़कर निहारता हुआ सरजुआ बुदबुदाया और सिर पर अंगोछा लपेटकर काटी हुई पतावर समेटकर पूरे(गट्ठर) बांधने लगा.
बहुत सवेरे ही आकर वह इस काम में जुट गया था. तब से नाले के किनारे के खेतों, मेड़ों और उसके नीचे की सारी पतावर वह काट चुका था. वह अनुमान लगाने लगा कि कम-से कम पचास गट्ठर यानी कि दस बोझ पतावर वह अब तक काट चुका होगा. लेकिन काटते समय उसे क्या मालूम था कि मौसम इस तरह का रुख अख्तियार कर लेगा, नहीं तो काटने के साथ ही वह गट्ठर भी बांधता जाता. उसने फिर ऊपर की ओर देखा. बादलों के द्वीप नदारद थे. मटियायी धुन्ध तेजी से फैलती जा रही थी. हवा बेरहम-सी पेड़ों को झकझोरती सांय-सांय करती खेतों में खड़ी फसल को रौंदती लहराने लगी थी.
"यो आंधी तूफान पता नहीं का कहर ढाई!" वह बुदबुदाया और फिर पतावर समेटने लगा.
"लागत है इहौ साल झोंपड़िया मा छपरा न पड़ि पायी." वह फिर बुदबुदाया और उड़ती पतावर के पीछे दौड़ा.
तीन साल पहले इनसे-उनसे मांग-मूंगकर उसने अपनी झोंपड़ी पर छप्पर डाला था. पिछले साल की बारिस में वह कई जगह से टपकने लगा. उसने रामदीन से पुआल मांग कर उसके ऊपर डाला, लेकिन पानी का टपकना बन्द नहीं हुआ. रात-रात भर उसके बीवी-बच्चों का सोना हराम हो गया. जिस कोने में वे सिमट-सिकुड़कर लेटते, छप्पर वहीं से टपकने लगता. कोठरी पहले से ही जर्जर थी इसलिए वह पिछ्ले कई सालों से पूरी बरसात छप्पर के नीचे ही काटता आ रहा था. कितनी ही बार उसने कोठरी बनवाने की जुगत बैठाई, मजूरी-धतूरी करके कुछ पैसे भी इकट्ठे किए, लेकिन जब भी काम शुरू करवाना चाहा, रमेसर सिंह को पता नहीं कैसे भनक लग जाती और वह उसका गला आ दबोचते. सारी जमा-पूंजी हड़प ले जाते और जाते-जाते कहते, "यह तो सूद भर है --- सूद--- तेरे बाप रमजुआ ने जो करजा लिया था उसका."
वह हाथ मलकर रह जाता अवश-उदास. कितना कर्ज लिया था उसके बाप ने यह बिना बताए ही सालों सूद वसूल करते रहे थे रमेसर सिंह. लेकिन एक बार उसने दबी जुबान पूछ ही लिया, तो बही खाता उसके सामने फैलाकर शब्दों का गला मरोड़ते हुए वह बोले, "तू खुद ही देख ले न अपनी आंखों से कितना लिया था तेरे बाप ने---- एक-एक पाई-पैसा इसमें दर्ज है. अरे स्साले--- हाड़-चोर---- तू समझता है मैं झूठ ही तुझसे वसूल कर रहा हूं."
वह मटमैले कागज पर गुदे नीले-नीले लफ्जों को बिटर-बिटर ताकता भर रहा था, जिसके नीचे स्याही से एक अंगूठा निशान लगाया गया था और पास ही कुछ लिखा भी था.
"करिया अच्छर भैंस बरोबर हूं लम्बरदार---- आप जो लिखा होइहो, हम ओहका झूठ थोड़े ही कहत हन. पर----."
"पर क्या---- झूठ भी नहीं समझता और हिसाब भी देखने चला है", हुक्का गुड़गुड़ाकर धुंआ उसकी ओर फेंकते हुए रमेसर सिंह फिर बोले, "साल में एक बार सूद मांगता हूं वह तो तुझसे दिया नहीं जाता---- मेरे यहां काम करना तुझे रास नहीं आता---- ठेकेदार के सहलाने में ज्यादा मजा आता है न ----स्साला सराफत का जमाना नहीं रहा." उन्होंने फिर हुक्का गुड़गुड़ाया और इस बार धुंआ सरजुआ के ठीक मुंह के सामने उगल दिया. उसकी आंखों में कड़वाहट भर गई. खांसी आ गई तो अगोंछे से मुह-आंखें ढक वह दो कदम पीछे हट गया.
"तूने मुझ पर शक किया है, इसलिए अब तू भी कान खोलकर सुन ले सरजू---- एक साल के अन्दर रुपयों का इन्तजाम करना होगा तुझे---- पूरे एक हजार हैं."
अंगोछा हटाकर पनियायी आंखों से सरजुआ ने उनकी ओर देखा.
"सुन लिया न ---- अब भाग यहां से!" रमेसर सिंह बही-खाता संभाल पलंग से उठ खड़े हुए तो वह भी मुड़ पड़ा. लेकिन उनकी आवाज सुनकर रुक गया. कुछ नरम आवाज में वह कह रहे थे, "देख, तेरी भलाई के लिए ही कर रहा हूं सरजू, ठेकेदार के चक्कर में मत पड़. रेलवे का ठेका जिन्दगीभर नहीं चलेगा---- मेरे यहां आ जा. कर्ज भी उतरता रहेगा और तेरा घर भी चलता रहेगा.---- जल्दी नहीं है. अगली फसल से सही. इससे पहले जब भी तुझे कभी किसी बात की चाहत हो बेहिचक कहना----- अरे, तेरे बाप ने जो मेरी सेवा की थी, उसे मैं भूला थोड़ी ही हूं---- मुझे कभी पराया मत समझना."
वह बिना कोई उत्तर दिए चला आया और सोचता रहा था, कितना खतरनाक आदमी है यह जो मारता भी है और रोने भी नहीं देता. इसीलिए छप्पर छाने की समस्या जब इस बार भी उसके सामने आ उपस्थित हुई तब रमेसर सिंह की उस दिन की बात का सूत्र पकड़े वह उनके पास जा पहुंचा, नाले के किनारे के उनके खेतों की पतावर के लिए. सुनकर वह बोले थे, "तिहाई में काट ले---- तिहाई माने एक हिस्सा तेरा और दो हिस्से मेरे."
वह चुप रहा, क्योंकि सौदा घाटे का लग रहा था. वह तो आधे की उम्मीद लेकर आया था.
"सोच क्या रहा है, कल से ही शुरू हो जा न. इतनी पतावर है कि तिहाई में नुझे इतनी मिल जायेगी कि तेरा घर भी छा जायेगा और तू बेच भी लेगा."
"अच्छा, लम्बरदार!" वह केवल इतना कहकर उठ आया था.
किसी तरह वह पांच गट्ठर पतावर ही इकट्ठा कर बांध पाया, शेष उस भयंकर आंधी की चपेट में आकर उड़ गयी. पांच बांधे गट्ठर भी उड़ गये होते यदि वह उन्हें इकट्ठ कर उनके ऊपर बैठ न गया होता. आंधी इतनी तेज थी कि एक बार उसे लगा जैसे गट्ठरों सहित वह भी उड़ जायेगा. दिन भर के परिश्रम की उस शेष बची पूंजी को बचाने के लिए वह उन पर पसर गया और दोनों हाथों से मजबूती से पकड़ लिया. लगभग आधा घंटे के ताण्डव के बाद आंधी धीमी हुई. उसने ऊपर देखा, आसमान में कालिख-सी पुत गयी थी. अभी शाम होने में काफी समय शेष था, लेकिन अंधेरा पूरी तरह उतर आया था. पगडंडी के पास खड़ा नीम का पेड़ दूर से उसे दैत्य के समान दिखाई दे रहा था.
"हे ईसवर, अब का करि रहे हो. हम गरीबन पर तो तनिक दया करौ भगवान! वैसेई म्हारि दिन भर की मेहनत अकारथ हुई गई---- छप्पर छाउब तो दूर, लागत है आज झोंपड़िया सही-सलामत न बची." वह बुदबुदात हुआ उठा.
आंधी का प्रभाव काफी कम हो गया था, लेकिन हवा फिर भी चल रही थी और उसमें ठंड का असर बढ़ गया था. हालांकि उसने जगह-जगह से पैबन्द लगा कोट अपने शरीर पर लटका रखा था, जिसे आठ साल पहले धन्नू पंडित ने तब दिया था, जब उसने पन्द्रह दिनों तक उनके यहां इस उम्मीद से काम किया था कि जो मजूरी मिलेगी, उससे वह अपनी बीमार बेटी का इलाज करवायेगा. बिटिया लगभग एक महीने से बीमार चल रही थी. पैसों के लिए उसने पूरे गांव में चक्कर लगाए थे. सबने जब टका-सा जवाब दे दिया और रमेसर सिंह ने दुत्कार कर भगा दिया तब हारकर वह दूसरे सूदखोर धन्नू पंडित की शरण में गया था. और धन्नू पंडित ने उसकी मजबूरी का भरपूर फायदा उठाया था. बोले थे, "पैसे तो अभी हैं नहीं---- तू कुछ दिन काम कर, तब तक मैं जुगाड़ बना दूंगा."
वह पन्द्रह दिनों तक दिन-रात उनके यहां खटता रहा और बिटिया घर में बिना इलाज तड़पती रही थी. हर रोज धन्नू पंडित उसे आश्वासन देते कि कल पैसे जरूर दे देंगे, लेकिन कल अगले कल पर टल जाता. आखिर पन्द्रह दिन बीतते-बीतते उसका धैर्य टूट गया तो दबी जुबान वह बोला, "पंडित जू, बिटेवा बिना इलाज मर रही है---- अगर आप पैसन का इन्तिजाम करि देते तो----."
उसकी बात पूरी होने से पहले ही धन्नू पंडित चीखे थे, "स्साले मैं कोई बेईमान हूं---- भाग जा यहां से---- नहीं दूंगा पैसे-वैसे----."
वह भौंचक उन्हें देखता रह गया था. पैरों के नीचे से जमीन खिसकती लगी थी. वह गिड़गिड़ा उठा था, "पंडित जू, किरिपा करि कै----."
कुछ क्षण तक खा जाने वाली आंखों से उसे घूरते रहे थे धन्नू पंडित फिर घर के अन्दर लपकते हुए गये थे और वह पुराना कोट उसके ऊपर फेंक दिया था, "ले, ले जा इसे----चल फुट मादर----."
"लेकिन पंडित जू, हम इहका का करिब---- हमै तो बिटेवा के इलाज खातिर----."
"इसे बेच दे किसी को, पैसे मिल जायेंगे."
"पंडित जू------." वह फिर गिड़गिड़ा उठा.
"तेरी मां ---- की ----स्साला बकवास करता है."
वह कोट थामे भाग खड़ा हुआ था विवश - उदास. कोट खरीदने के लिए उसने कई लोगों से कहा, लेकिन सबने यही कहा, "किसी मुरदे से उतारा ई कोट कौन खरीदे."
सारे गांव में वह भटका, लेकिन किसी ने कोट नहीं खरीदा और एक दिन बिटिया बिना इलाज के चल बसी. उसने चाहा कि वह उस कोट को फेंक दे, लेकिन फेंक न सका. बिटेवा को तो न बचा सका, लेकिन सर्दी से अपने शरीर की बचत वह उस कोट से करने लगा था.
"सब गरीबन का खून चूसैं वाले रकत पायी गुण्डे -बदमाश हैं---- चाहे रमेसर सिंह हों, धन्नू पंडित या कि ठेकेदार-----" उसने पांच गट्ठरों को पतावर का लंबा जूना बनाकर एक साथ बांधकर बोझ तैयार कर लिया और बैठकर दाएं पैर से धक्का मारकर उसे सिर पर रखना चाहा, लेकिन संतुलन बिगड़ गया. बोझ एक ओर और वह दूसरी ओर लुढ़क गये. तभी आसमान में बादलों की चीत्कार सुनाई पड़ी. वह सहम गया. जल्दी से उठकर बोझ को संभालने लगा. इस बार किसी तरह बोझ सिर पर आ गया. वह सरपट पगडंडी की ओर भागा, लेकिन नीम के पेड़ के पास पहुंचते-पहुंचते आसमान की कालिख झरने लगी. मोटे-मोटे बूंद पड़पड़ाने लगे. बारिस इतनी तेज थी कि एक कदम भी आगे बढ़ना कठिन था. नीम के पेड़ के नीचे बोझ पटक वह तने से सटकर बैठ गया. तभी उसे किसी के कंपकंपाने और दांत कटकटाते हुए 'हू-हू' करने की आवाज सुनाई पड़ी. उसने घूमकर देखा, तो दंग रह गया. रमेसर सिंह उकड़ूं बैठे कांप रहे थे.
"लम्बरदार, आप----?" साश्चर्य उसने पूछा.
"कौ---कौ----कौन---?"
"मैं हूं सरजू, लम्बरदर!"
"स----स----स---र----जू----ग----ग-----जब-----ठण्ड ----है----. लगता है----प्राण निकल----जायेंगे." किसी प्रकार रमेसर सिंह कह पाये.
सरजुआ चुप रहा. रमेसर सिंह को कांपता-दांत किटकिटाता देख उसे अच्छा लग रहा था. "----बूढ़ा----खूसट----खूब गरीबन का खून चूसा है तैने---- अब कहां गई ऊ हेकड़ी----." वह मन-ही मन बुदबुदाया. "क्या----करने आया था रे यहां?"
"आपै ते तो पूछा रही लम्बरदार पतावर खातिर. आज सुब्बो से वही काटित रही."
"ओह----ठीक है --- ठीक है. हे भगवान--- फसल तो सब सत्तानास हो गई. लागत है पत्थर गिरी----."
सरजुआ फिर चुप रहा. इस समय उसके दिमाग में एक बात घूमने लगी थी, "आज मौका अच्छा है, क्यों न इस पापी को ठिकाने लगा दिया जाय. क्यों न अपने बापू के साथ किए गए इसके अत्याचार का बदला चुका ले."
एकाएक उसकी आंखों के सामने अपने बापू की मौत का दृश्य घूम गया. वह जेठ माह की तपती एक दोपहर थी. सूरज आग उगल रहा था. बाहर लपटें-सी उठ रही थीं और कोठरी के भीतर भट्ठी सुलग रही थी. उसका बापू झिंगला खटोली पर पड़ा तड़प रहा था. वह और मोहल्ले के लोग अवश-उदास नजरों से तिल-तिल समाप्त हो रहे उसे देख रहे थे. और बापू की मौत के लिए जिम्मेदार रमेसर सिंह इस समय उसके पास बैठे ठंड से थरथरा रहे थे.
रमेसर सिंह के यहां ही उसका बापू एक प्रकार से बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा था. यह सब उसके बापू को विरासत में मिला था. उसे अपने बाप से यानी उसके बाबा से. उसका बाबा भी रमेसर सिंह के बापू की हलवाही में था और मरते समय हल की मुठिया अपने बेटे रमजुआ को पकड़ा गया था. एक बार पकड़ी हल की मुठिया उसके बापू के हाथों से तभी छूटी जब वह उनके अत्याचार का शिकार होकर उसे अकेला छोड़कर चला गया. वह हताश- हतबुद्धि कुछ न कर पाया था उस आदमी के खिलाफ, जिसने सुलगती रात में महुए की शराब उतारने के लिए उसके बापू को मजबूर किया था.
महुए की कच्ची शराब उतारकर बेचना रमेसर सिंह का वर्षों पुराना धन्धा रहा है, जो पुलिस की मिली-भगत से आज भी बदस्तूर जारी है. उस रात भी सड़े महुओं से शराब उतारी जानी थी. इस काम में उसके बापू को ही लगाया जाता था. उस दिन उसकी तबीयत ठीक न थी. बुखार से उसका बदन तप रहा था. उसने जाने से इनकार कर दिया, लेकिन रमेसर सिंह के लठैतों के सामने उसकी एक न चली. वे उसके बापू को जबर्दस्ती घसीट ले गये. वहां पहुंचकर बापू ने रमेसर सिंह के सामने हाथ जोड़ दिए, "मालिक, बुखार के मारे चक्कर आ रहा है. काम न करि पाउब सरकार."
"महुओं की गंधाहट पा के तेरा बुखार एक मिनट में रफूचक्कर हो जायेगा." होंठ चबाकर बोले थे रमेसर सिंह और जानवरों के बांधे जाने वाले बाड़े की ओर धकियाने लगे थे उसे.
"मालिक मोहते न होई---- मोहका----." उसका बापू गिड़गिड़ा उठा था.
"देखता हूं साले, कैसे नहीं होता…." रमेसर सिंह ने अपने एक लठैत से लाठी छीनकर छः-सात लाठियां बापू की पीठ पर जमा दी थीं. औंधे मुंह गिरकर बेहोश हो गया था उसका बापू और जब होश आया तब वह उस कोठरी में था जिसमें शराब उतारी जाती थी. सामने उसके रमेसर सिंह खड़े थे और कह रहे थे, "अब रात-भर यहां से हिलने का नाम न लेना वर्ना---- अच्छा न होगा."
रात-भर बुखार में तपकर भी बापू काम करता रहा था और सबेरे घर आते ही औंधा मुंह खटोली पर ढह गया था. एक के बाद एक कितनी ही उल्टियां और फिर दस्त शुरू हो गये थे उसे. कुछ ही घंटों में शरीर पीले पत्ते की तरह हो गया था, जैसे खून की एक-एक बूंद निचुड़ गयी हो. मौत मुंह फैलाए उसके बापू को निगलने के लिए क्षण-प्रतिक्षण आगे बढ़ती जा रही थी और वह मौत को परे धकेलने के लिए उपाय सोच रहा था. पैसे एक भी न थे उसके पास. मोहल्लेवाले भी उसी की तरह थे. उनसे मांगना बेकार था. गांव में और किसी से भी उम्मीद न थी उसे कुछ मिलने की, क्योंकि उसका बापू रमेसर सिंह के यहां काम करता था और उसकी मदद करके कोई भी गांववाला रमेसर सिंह से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता. कम-से कम उस समय तो नहीं ही और वह रमेसर सिंह की शक्ल भी नहीं देखना चाहता था. उसे घृणा हो गयी थी उनसे.
"कहां से इन्तजाम करे पैसों का!" वह सोचता ही रह गया था और मौत उसके बापू पर अपने पंजे गड़ा चुकी थी. वह रह गया था अकेला---- बेहद अकेला---- रोता-बिलखता----. तभी उसके आंसू पोंछने दौड़े आए थे रमेसर सिंह, सांत्वना के मरहम से उसके घाव को भरने के लिए. वक्त जरूरत पर मदद करते रहने के आश्वासनों की झोली खोल दी थी उन्होंने उसके सामने. और वह उनसे घृणा करता हुआ न चाहकर भी गाहे-बगाहे मदद लेने के लिए मजबूर होता रहा. लेकिन उनके बहुत कहने के बाद भी वह उनकी हलवाही करने नहीं गया.
"आज से अच्छा मौका कब मिलेगा सरजू---- दबा दे इसका टेंटुआ---- बड़ी शान्ति मिलेगी बापू की आत्मा को. कौन जानेगा कैसे मरा ---- दुनिया समझेगी पानी और ठंड से मर गया होगा." उसके हाथ रमेसर सिंह की गर्दन की ओर बढ़ने लगे.
"क---क---का है रे?" कंपकंपाई आवाज में रमेसर सिंह बोले तो उसने अपने हाथ सिकोड़ लिए.
"कुछ नहीं लम्बरदार---- सरदी बहुत है." वह बोला, फिर मन-ही मन सोचने लगा, 'पापी कितना चौकन्ना है!'
बूंदों की धार के साथ छोटे-छोटे ओले पड़ने लगे. सरजुआ के ठीक ऊपर एक डाल थी इसलिए उस पर बहुत असर नहीं हुआ, लेकिन रमेसर सिंह के सिर पर चार-छः ओले आ गिरे तो वह चीख उठे, "हाय मर गया रे---- हाय-हाय सिर फट गया----."
"इधर आ जाओ लंबरदार----." सरजुआ ने उन्हें अपने निकट खींच लिया. वहां भी कुछ ओले छिटककर उनके आ लगे. वह फिर चीखे, "सरजुआ, यहां भी बचना मुश्किल है. देख ये ओले---." रमेसर सिंह ने कुछ ओले उसके सामने बढ़ा दिए.
"लम्बरदार एकै उपाय है. आप हमार यो कोट सिर पर डारि लेव---- साइद कुछ बचत हुई जाय."
"ला रे---- जल्दी ला---- नहीं तो यो सिर सही-सलामत न बची."
सरजुआ ने थेगलिहे और सालों से अनधुले कोट से रमेसर सिंह का सिर ढक दिया. उनको कुछ राहत मिली. सरजू के बदन में अब केवल फटा कुर्ता रह गया था और ठंड थी कि हड्डियां भेदकर अन्दर घुसी जा रही थी. दोनों टांगें हाथों से बांधकर वह उकड़ूं बैठ गया. उसके दिमाग में फिर भूचाल उठा रमेसर सिंह का गला घोंट देने के लिए. वह सर्दी भूल गया और सोचने लगा कैसे रमेसर सिंह के गले में पंजा फंसायेगा, कैसे धीरे-धीरे दबायेगा और जब वह गिड़गिड़ाने लगेंगे तब वह ठहाका मारकर हंसेगा. रमेसर सिंह को तड़पता देखकर मन की आग को कुछ तो शान्ति मिलेगी.
उसने टांगों को घेरे हाथों को छुटाना चाहा. लेकिन हाथ थे कि ठंड में जम-से गये थे. उसने बहुत कोशिश की कि हाथ दोबारा चैतन्य होकर अपना काम शुरू कर दें, लेकिन वे तो चुंबक की तरह टांगों से चिपक कर रह गये थे. एक बार थोड़ी-सी जकड़न ढीली हुई तो लगा जैसे हवा का तीर पसलियों में घुसने लगा है. उसने फिर टांगें छाती से चिपका लीं और हाथ कस लिए.
तभी उसे रमेसर सिंह की आवाज सुनाई पड़ी, 'ओरे सरजुआ, देख तो अब ओला-पानी थम गया है---- किसी तरह घर पहुंचना चाहिए."
रमेसर सिंह का टेंटुआ दबा देने की उसकी योजना धराशायी हो गयी. ओला-पानी सचमुच बन्द हो चुके थे. उसने देखा, रमेसर सिंह उठ खड़े हुए थे. वह भी उठने का प्रयत्न करने लगा, लेकिन उठ न सका. लगा जैसे शरीर जम-सा गया है.
"क्यों रे कितने पूरे काट पाया था पतावर के?"
"होंगे कोई पचास, लेकिन-----."
"लेकिन क्या रे?"
"पचास में से कुल पांच ही बांध पावा रही ----- ओ रहा उनका बोझ---- बाकी सारी पतावर आंधी मा उड़ि गई है, ठाकुर साहब."
"उड़ गयी----? उड़ गयी तो भोगना स्साले हरजाना----" रमेसर सिंह के स्वर में क्रोध स्पष्ट था, "तूने न काटी होती तो काहे को बरबादी होती---- मैं कुछ नहीं जानता."
"इह मा म्हार का दोष, ठाकुर साहब." सरजुआ हतप्रभ उनकी ओर देखने लगा.
"तो मेरा दोष है?--- भाग स्साले." रमेसर सिंह ने एक लात उसके हुमक कर मारी तो वह गिरते-गिरते बचा.
"ले---- सौ रुपये तुझ पर और चढ़ गये करज के---- हो गये अब पूरे ग्यारह सौ." कोट उसके मुंह पर फेंक रमेसर सिंह पगडण्डी पर उतर गये.
सरजुआ की आंखों में सैकड़ों बिजलियां एक साथ कौंध गयी. मुट्ठियां भिंच गयीं और वह उठ खड़ा हुआ. "आदमखोर----जिनावर----." वह चीखा और उछलकर पगडण्डी पर आ गया.