आदमी, आग और सृष्टि / महेश कटारे
मनुष्य : ओह ये धुंध! आसपास अगल-बगल का ठीक-ठीक कुछ अनुमान ही नहीं लग रहा।... बस चलने के अभ्यस्त पाँव हैं जिनके आश्रय से यहाँ तक आ पहुँचा। किंतु यहाँ कहाँ आ गया मैं?... इस स्थान का नाम क्या है? क्या यहाँ पहुँचना गंतव्य था मेरा? नहीं। इतनी निर्जन, शुष्क, भुतैली और भयावह जगह पहुँचना तो मंतव्य नहीं था मेरा।
हर ओर निरर्थक आवाजें है- जाने कितने प्रकार की... जाने किस-किस की? कुछ असर है इन आवाजों का?... कुछ का तो कुछ न कुछ आशय होगा ही... पर सबकी सब-एक दूसरे से टकराती हुईं, बहरा कर देने वाले शोर में बदल रही हैं।
(जोर से पुकारता है आदमी)
कोई बचाओ मुझे! शायद मेरा मार्ग यहीं कहीं से होकर जाता है...। अथवा मैं भटक गया हूँ शायद। अरे, सुनो तो! मैने लंबी मंजिल तय की है। ठीक-ठीक यह भी नहीं बता पाऊँगा कि कितनी उम्र लंबी। देखो, बीती यात्रा की तारीखों के पन्ने सालों और सदियों की जिल्दों में मेरी पीठ पर हैं। इनमें मेरी जय, पराजय, आह्लाद, अवसाद, गीत और आँसू अंकित हैं। मेरे स्वप्नों की सूची भी है।
सुनो! अब मुझे सपने नहीं आते। कभी-कभी कोशिश करता हूँ, तब भी नहीं। लगता है यह बहुत भयावह संकेत है। जहाँ-तहाँ पूछता हूँ पर वहाँ वे अपना सपना मुझ पर आरोपित करने लगते हैं। मैं चल नहीं पा रहा... धकेला जा रहा सा लगता हूँ। थमकर सोचने का अवसर ही नहीं मिल रहा मुझे। स्पष्ट... बिल्कुल स्पष्ट नहीं कि कौन धकेल रहा है? एक आवाज सुनाई पड़ती है कि साथ ले रहे हैं, दूसरी का अर्थ है कि उधर साथ नहीं स्वार्थ है। हर आवाज मुझे अपने साथ गँसना चाहती है... जाने कहाँ ले जाने के लिए? अच्छा? इतना तो बता ही दो कि मैं आगे बढ़ रहा हूँ या...। संभव तो यह भी है ना कि मुझे आगे बढ़ने का भ्रम बनाया गया हो और मैं आगे की ओर मुँह उठाये पीछे जा रहा होऊँ।
लो, उत्तर कहीं नहीं। बस वही शोर, वही सनसनाहट...।
ओह! लगता है मैं किसी निष्प्राण द्वीप में आ पहुँचा हूँ। इस अकेलेपन में हँस लूँ तो कैसा रहे?... हा हा हा हा हा... हा हा हा हा। जब मैने नियति को अनेक बार ठेला है तो नियति भी अपना दाँव क्यों चूकेगी?... पर इस शोर में यह कूँ कूँ कूँ कूँ की ध्वनि कैसी?
(जोर से चिल्लाकर) - यह कूँ कूँ के स्वर क्या मेरे श्वान सखा के हैं?
श्वान : हाँ मेरे सखास्वामी! मैं ही हूँ।
मनुष्य : किंतु मैं तो तुम्हें स्वर्ग में छोड़ आया था।
श्वान : हाँ। कुछ समय तक मैंने आपके लौटने की प्रतीक्षा की। बहुत काल बीत गया तो खोज में निकल पड़ा। उतर आया और गंध के पीछे-पीछे चलते हुए पा लिया आपको।
मनुष्य : तुमने स्वर्ग के सुख क्यों छोड़े? मेरी तो विवशता थी... पुण्य क्षीण हो गये हैं।
श्वान : मेरी विवशता है कि कोई स्वामी हो मेरे लिए जो एक टुकड़ा खिलाकर पीठ पर हाथ फेर दे। पुचकारे... दुत्कार भी दे यदा-कदा। टुकड़ा पाने के लिए स्वामी के संकेत पर भौंकना भी पड़े... पैने दाँत चमकाने पड़ें। कुछ करना पड़े। वहाँ सब कुछ प्राप्त था... सहज ही। एक बात और कि वहाँ वही-वही चेहरे... सदियों, सहस्राब्दियों पुराने... वही गीत, संगीत और नृत्य। संबंध एक सार... ऊष्माहीन। हर बार एक-सी मुस्कान... बिल्कुल यांत्रिक, औपचारिक। मैं सुखों से ऊब गया और सबसे प्रमुख बात यह कि वहाँ सब देवता थे... न आदमी था न कोई श्वान।
मनुष्य : पर यहाँ भी तो कोई आदमी नहीं दिखता। मैं भूख, थकान और पीठ पर लदे बोझ से बेहाल हूँ। सदियों के अनुभव ढोते हुए घूम रहा हूँ... कोई बाँटने वाला नहीं... कहीं से सांत्वना नहीं। इस धुंध में घिरकर रह गया हूँ।... बस आसपास अँधेरा ही अँधेरा। अनेक बार सैकड़ों साल गहरी खाइयों में रपट पड़ा हूँ और देह छिली है, गहरे घाव लगे हैं। अभी देखो! दिशाज्ञान ही लुप्त है। धुंध में कुछ सूझता भी नहीं, बस प्राचीन स्मृतियों के सहारे आगे जाने की कोशिश में लगा हूँ।
श्वान : स्वामी निराश न हों। मैं आ पहुँचा हूँ मुझमें सूँघने और देखने की क्षमता है...।
मनुष्य : अच्छा रहा यह, अब तुम आगे चलो। मुझे लगता है कि यहाँ दलदली जमीन है। गलत पाँव पड़ते ही आदमी धँसकर डूब सकता है...।
श्वान : क्षमा करें, मैं आगे नहीं हो सकता। श्वान पीछे ही रहना चाहिए। कभी-कभार बगल में आ जाय तो और बात है। हाँ, कहीं अनिष्ट की आशंका या हानि की संभावना हो तो मुझे आगे कर दीजिएगा।
मनुष्य : (साँस छोड़ते हुए) मुझे विश्राम की आवश्यकता है। देखे तो जाने कब से मैं कुछ भी दर्ज नहीं कर पाया हूँ। अँधेरे में हो भी कैसे? इन दिनों सूरज का पता ही नहीं है कहीं...।
श्वान : मुझे पता है। वह बहुत ऊपर की ओर उछल गया है। नीचे उतरते ही सक्षम लोग नुकीले औजारों से खोंट लेते हैं उसे और उसके टुकड़ों की कंदीलें बनाकर बेचते हैं। घायल, लहूलुहान सूरज धरती की ओर रुख करने से डरता है...।
मनुष्य : ओह, सुनो तो श्वान, ये कर्कश स्वर कहाँ से आ पहुँचे?
श्वान : पीछे मुड़कर देखता है। ऊँ ऊँ ऊँ... पीछे बहुत दूर आँधी-सी है। शायद भीड़ है जो हुँकारती हुई इधर आ रही है।
मनुष्य : (भयभीत होकर) हुंकारती भीड़! पर क्यों? हमारी ओर ही क्यों? पता तो करो, कौन हैं वे।
श्वान : जहाँ हम हैं, वहाँ से कुछ ऊँचा स्थान पकड़ना होगा। ऊँचे होकर आकलन में सुविधा होती है।
मनुष्य : तो चढ़ जाओ और देख-परख करो। उनके स्वर सामान्य नहीं हैं। वे अपने मार्ग की हर चीज रोंद सकते हैं। हमें भी...।
श्वान : यहाँ न कोई टीला है न नसैनी। मेरा कद तो आपके घुटनों तक ही है।
मनुष्य : कुछ सोचो श्वानमित्र! कोलाहल निकट आता जा रहा है। कहीं छिपने का स्थान ही देखो अन्यथा हमारे साथ मेरी पीठ पर कसे अनुभव के पोथे भी नष्ट हो जायेंगे। इनकी चिन्दियाँ बिखेर देंगे वे...।
श्वान : सोचने का कार्य तो आप ही करते आये हैं अब तक। मैं तो अनुगमन करता रहा। केवल देख, सुन, सूँघकर स्मृति का सहारा ले भविष्य भाँप लेता हूँ। मैं आपके अभियान का सहायक हो सकता हूँ, संवाहक नहीं।
मनुष्य : (उतावली और आशंका से) हाँ, सोच लिया। मेरे कंधों पर आ जाओ तुम और अपनी दृष्टि से धुँध को भेदकर मुझे बताओ कि उनके हाव-भाव कैसे हैं? गति कितनी और दिशा कौन-सी? उनकी भाषा का इंगित क्या है? आओ! इन कंधों पर शीघ्रता से चढ़ लो। दोहरा कार्य करना है तुम्हें - पीछे की गतिविधि बताना है और आगे का मार्ग जिस पर चलते हुए हम सुरक्षित हो सकें।
श्वान : प्रभु! मैं स्वर्ग में रहकर देख चुका हूँ कि देवताओं के यहाँ अश्व हैं, हाथी हैं, गायें तथा वृषभ हैं। गरुण, बाज, मयूर आदि विभिन्न पक्षी एवं सर्प-बिच्छू तक हैं पर श्वान नहीं हैं। मेरी स्मृति कहती है कि चराचर में जिन-जिन वस्तुओं और प्राणियों के स्वामी देव हैं... धरती पर उन सबका अधिकारी मनुष्य है। केवल श्वान के स्वामित्व की ओर देवों ने ध्यान नहीं दिया... अवतारों ने भी रुचि न रखी, अत: मेरी जाति का देवता और अवतार भी मेरे मत से मनुष्य ही है। अपने देवता के कंधों पर चढ़ने का पाप मैं कैसे करुँ?
(कोलाहल के स्वर निकट आते जाने से मनुष्य की अकुलाहट बढ़ी)
मनुष्य : श्वान! यह शीघ्र ही कुछ करने का समय है और तुम पाप-पुण्य, सही-गलत के विमर्श में उलझे जा रहे हो। अच्छा अब यूँ लो कि यह मेरी आज्ञा और तुम्हारा आपद्धर्म है। मैं संहिताओं का भाष्यकर्ता तुम्हें आदेशित कर्म के पाप से मुक्त करता हूँ। शंका न करो! भाष्य में न देवों का हस्तक्षेप है न अवतारों का। यह मेरी व्यवस्था है अत: मैं बैठता हूँ... तुम आओ इन कंधों पर।
(हल्की कराह के साथ मनुष्य बैठ जाता है)
मनुष्य : बैठ लिए ठीक से?
श्वान : हाँ।
(बढ़े हुए बोझ के संग उठने के प्रयास में साँस रोककर हूँ ऊँ ऊँ के स्वर की संगत लेता मनुष्य खड़ा होता है)
श्वान : (अपना थूथड़ा उठाते हुए आँखों देखा वर्णन करने लगता है) धुंध के पार/धूल का गुबार/उठ रहा है व्योम तक/ निगलेगा वह आकाश शायद।
मनुष्य : (खीझते हुए) ओ भाई! कविता न सुना। अवकाश में सुन लूँगा। तू तो सीधे-सीधे कह कि स्थिति क्या बन रही है?
श्वान : मुण्ड ही मुण्ड चमक रहे हैं... उसका कोई चेहरा नहीं बन पा रहा। कुछ रथी हैं जो इस भीड़ को उत्साहित या उत्तेजित कर रहे हैं और भीड़ आक्रामकता से उत्तेजना को अपनाती लगती है। हुंकार और कोलाहल सुनाई दे रहा है न आपको?
मनुष्य : वहाँ कोई सेना है?
श्वान : अभियान तो सेना की नकल ही लग रहा है किन्तु अनुशासन सेना का नहीं है। अस्त्र, शस्त्र भी हैं पर आज के नहीं... सदियों पुराने। अनेक निहत्थे और बस हाथ उठाते मुँह फाड़ते दिख रहे हैं... किसी की जय बोलती मुद्रा में।
मनुष्य : इस धुंध में भी चले आ रहे हैं जिसमें पाँच कदम आगे देखना भी कठिन है?
श्वान : लगता है इस भीड़ के मुण्डों की आँखों अँधेरे में रहते-रहते देखने की अभ्यस्त हो चुकी हैं। रथों के आसपास कुछ प्रकाश भी है। शायद रथों में सूरज से लिए कुछ टुकड़े लटक रहे हैं। शायद इन रथों को घेरे हुओं को भी सूरज का कोई कण पाने की उम्मीद हो।
मनुष्य : अच्छा! ये सूरज के प्रकाश को पाने जा रहे हैं...।
श्वान : उतनी ऊँचाई तक तो इनका पहुँचना संभव नहीं होगा। हाँ, वे कुछ और पास हुए हैं हमसे...। इसलिए अब मुझे दिखने लगा है कि उनके हाथों में तख्तियाँ हैं... अलग-अलग रंगों की। कुछ लिखा है उन पर। अलग-अलग रंग वाले नारे हो सकते हैं। रथी संपन्न दिख रहे हैं और उनके पीछे की भीड़ क्रमश: विपन्न। विपन्नता के बीच भी बहुत-सी विभाजक रेखाएँ हैं...। आपको थोड़ा थमना होगा... देखना होगा कि ये रथी इस भीड़ को किस ओर ले जाना चाहते हैं।
(कोलाहल की गूँज)
श्वान : मैं आगे की ओर देख पा रहा हूँ। वहाँ जगर-मगर है... अट्टालिकाएँ हैं। शायद वही उनका गंतव्य हो। अब मुझे उतार दीजिए स्वामी ! हमें बहुत तेजी से उन्हीं जगमगाती अट्टालिकाओं की ओर पहुँचना होगा अन्यथा इनके उन्मादी ज्वार में हम तिनके की तरह बह जायेंगे या पाँवों के नीचे कुचल जायेंगे।
मनुष्य : (ठहरता हुआ) हाँ, तो कूद लो।
श्वान : (कूदने के बाद शीघ्रता दिखाते हुए) आपद्धर्म है कि अब मैं आगे हो लूँ और आप पीछे। शीघ्रता से बढ़े आइए।
मनुष्य : (स्वर में हताशा है) मैं अत्यंत शिथिल हो रहा हूँ। पीठ पर बोझ है और तुम जाने किधर ले जाना चाहते हो। इतनी तेजी से न चलो कि मैं तुम्हारा पीछा भी न पकड़ पाऊँ।
श्वान : स्वामी! यह कठिन समय है। माना कि चिंता और भूख से आप निर्बल हुए हैं... थके हैं... दृष्टि पुरानी, धुँधली है। पर सारी शक्ति संचित कर सुरक्षित स्थान पाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा है। आप देख नहीं पा रहे तो मेरी आँखों के सहारे आइए। कल्प-विकल्प छोड़कर प्रकृतिदत्त शक्ति का प्रयोग कीजिए।
(कोलाहल की पृष्ठभूमि में हाँफती हुई आवाजें)
मनुष्य : कितनी दूर और है गंतव्य? मुझे प्रत्येक पग पहाड़ लग रहा है। क्षण युग-सा अनुभव होता है। शरीर का रक्त स्वेद बनकर बहा जाता है। किसी भी क्षण लटपटाकर गिरने की आशंका है।
श्वान : बस, आ ही पहुँचे समझो। सामने ही प्रहरी-पीठ है और उसके पश्चात सुविस्तृत राजपथ। दोनों ओर सुगंधित, प्रियदर्शन पुष्पकुंज तथा सघन छायावाले वृक्ष। दृष्टि के सीमांत तक बिखरा हुआ ऐश्वर्य... बिल्कुल देवोपम। यहाँ हमें सुरक्षा और विश्राम मिल सकता है।
आओ! हम द्वार पर आ पहुँचे।
मनुष्य : (आश्वस्ति के साथ) आह! यहाँ उजास भी है। ठहरकर आगे सोचने का अवकाश व अवसर भी मिल जायेगा। ईश्वर! तुम सचमुच दयालु हो... अब मैं प्रवेश कर लूँ। (चौपाई बुदबुदाता है - प्रविसि नगर कीजे सब काजा। हृदय राखि...। )
प्रधान प्रहरी : ऐ ए ए, कहाँ घुसे जा रहे हो। इधर... उधर आ। जानता नहीं यह प्रतिबंधित क्षेत्र है। सामान्य (का स्वर) आदमी के लिए प्रवेश निषिद्ध है इसमें।
मनुष्य : (अचकचाकर) क्यो भाई!
प्रधान प्रहरी : यह प्रतिनिधि निवास का जनपथ है।... और ये पीठ पर क्या लिए हो?
मनुष्य : अनगिनत वर्षों की यात्रा के संचित अनुभव हैं... ज्ञान है।
प्रधान प्रहरी : ज्ञानी हो तो किसी मंदिर-वंदिर में पहुँचो। यहाँ तुम्हारा क्या काम?... क्या लेने आ गए?
मनुष्य : मैं आपसे सुरक्षा और कुछ विश्राम पाना चाहता हूँ।
प्रधान प्रहरी : हमें प्रतिनिधियों की सुरक्षा के लिए वेतन मिलता है तू रास्ता देख...।
('हट् हट्' के संग धकियाने लगता है)
मनुष्य : अरे रे, धक्का क्यों मारते हो? तुम शायद नहीं जानते कि मैं बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति हूँ।
प्रधान प्रहरी : (हँसता हुआ) सो तो मेरी सूरत ही बता रही है (पुचकार कर) भाग जा पुत्तर... मेरे बाप, नहीं तो एक ही घूँसे में तेरा रूप बिगड़ जायेगा।
मनुष्य : (समझाते हुए) भाई! मुझे मात्र प्रवेश ही नहीं करना। यहाँ के लोगों को आगत से सावधान भी करना है। एक संकट शीघ्र आ रहा है...।
प्रधान प्रहरी : (व्यंगपूर्ण हँसी के साथ) अरे सुना, यहाँ संकट आ रहा है... ये तो ज्ञानी के साथ ज्योतिषी भी है। अच्छा संकट महाराज! तू इसी क्षण नहीं टला तो तेरा संकट हो जायेगा। ऐ सुनो! जरा इसका स्वागत कर बंदीगृह में तो पटक दो।
मनुष्य : (हैरान, परेशान सा) पर भाई! मेरा साथी तो अंदर है...।
प्रधान प्रहरी : बाँध लो इसे। मुझे पहले ही संदेह था कि साला कोई भेदिया भिखारी जैसा भेष बनाकर आया है।
(घूँसों, थप्पड़ों की आवाजें आरंभ हो जाती हैं, बीच-बीच में कराहता मनुष्य)
बता कौन है तेरा साथी?...कब घुसा... कहाँ छिपा है?
मनुष्य : सचमुच आप लोग अज्ञानी हैं... संवेदनाशून्य। जनसामान्य का इस प्रकार अपमान असभ्यता की पराकाष्ठा है।
प्रधान प्रहरी : इसकी पीठ की पोटली सावधानी से खोलो। इसमें विस्फोटक सामग्री लगती है।
(झपटना, छीनना)
श्वान : (भौंकता है) - भों भों भों भों। छोड़िए... छोड़िए इन्हें। क्या अनर्थ कर रहे हैं आप लोग? अंदर मैं था, इनका साथी। कैसा राज्य है यह जहाँ कुत्ता बेरोकटोक आ-जा सकता है और मनुष्य पर बंधन है।
(सायरन के स्वर किसी महत्वपूर्ण पदाधिकारी के आने की सूचना देते हैं)
प्रधान प्रहरी : हटो हटो! महाप्रतिनिधि गुजरने को हैं यहाँ से। जो जहाँ जैसा है वहीं वैसा ही थम जाय। हिले-डुले भी न। पथ पर चलने या पार करने का प्राणदण्ड तक दिया जा सकता है।
श्वान : (मनुष्य को एक ओर खींचते हुए) इधर आइए। ऐसे में निकल लें, इनसे दूर। ऐसे रक्षक कुछ भी कर डालते हैं।
मनुष्य : (बदहवास-सा) आश्चर्य है...। मैंने इतने लंबे समय की यात्रा की है। राजतंत्र देखे। मंगलतंत्र का आदर्श भी मेरे अनुभव में है किंतु...।
श्वान : धीरे बोलिए। यहाँ मंगलतंत्र का आदर्श शासन है।
मनुष्य : पर...?
श्वान : इसे भी अपनी पीठ पर लिख रखिएगा, पर अभी नहीं। यहाँ से जीवित निकल सको तो बाद में। अभी केवल बच लो।
(गूँजते हुए सायरन पास से निकल दूर चले जाने पर)
प्रधान प्रहरी : (सहायक को डाँटते हुए) अरे वे भेदिए कहाँ गये? यही होता है। इनकी सुरक्षा में जुटने पर ध्यान बँट जाता है।
( दूर से कोलाहल बढ़ा आ रहा है - सिंह सेन की जय... वृषभपाल जिंदाबाद, अश्वधर अमर रहें... वृकोदर संघर्ष करो - हम तुम्हारे साथ हैं... अपना नेता - नागदेव )
प्रधान प्रहरी : एक और झंझट। अब इन्हें सम्हालो। रोज-रोज यही ऊधम। महाप्रतिनिधि भी पहले यही करते थे। मुझसे पहले के अधिकारी ने तब इनकी बाँह झटक भूमि पर पटक दिया था और इन्होंने राजदण्ड हाथ आते ही उसे चलता कर दिया। ऐ! सब सावधान हो जाओ! जब तक ऊपर से कोई आदेश न मिले, इस भीड़ को प्रवेश द्वार पर ही रोके रखना है। अग्निशमन अधिकारी को सूचना दो... वज्रवाहन द्वार पर ले आओ।
(कोलाहल और भी निकट आ गया)
मनुष्य : उचित यह होगा कि हम भीड़ का हिस्सा हो जायें। यह तंत्र भीड़ की उत्तेजना से भयभीत लगता है। कभी-कभी भय भी सुरक्षा देता है... क्यों श्वान!
(तुमुल कोलाहल में अब कुछ भी सुन पाना कठिन हो उठा है)
प्रहरी द्वार के ऊँचे स्थान से उद्घोषणा - 'आप लोग कृपया आगे न बढ़ें। अभी महाप्रतिनिधि नगर से बाहर हैं। नगर आपका है... इसकी शांति-व्यवस्था बनाये रखने में प्रशासन का सहयोग करें। नागरजनों की दिनचर्या में बाधा सहन नहीं की जायेगी। महाप्रतिनिधि के आने पर आप अवश्य ही अपनी बात रख सकेंगे।'
(कोलाहल आक्रामक होने लगा... फिर धमाका और चीख-पुकार)
मनुष्य : श्वानमित्र! अब भागो यहाँ से। यहाँ अकेले और साधारण की कोई पूछ नहीं। कोई किसी का न विश्वस्त है न उत्तरदायी। जिसे देखो वही सूरज से चमक छीनने को तत्पर है। भीड़ के इन भगवानों से बचने का मार्ग खोजे कोई...।
श्वान : (फुसफुसाते हुए) मैंने भीतर पहुँचकर देखा है कि बाहर से अलंघ्य दिखते इस प्राचीर में बहुतेरी खिड़कियाँ हैं जिनसे होकर अंदर पैठा जा सकता है। अच्छा बताइए कि आपकी जाति क्या है?... मजहब का नाम... ?
मनुष्य : मुझे इतने लंबे जीवन में इसकी आवश्यकता ही अनुभव न हुई।... तुम्हीं खोजो कुछ आवश्यकता या समयानुसार...।
श्वान : आप जाने किस समय में जीना चाहते हैं। यहाँ तो इन दो तत्वों के बिना कोई परिचय ही नहीं बनता। हम कुत्तों तक की जातियाँ बताई हैं इन्होंने। अच्छा मुद्राएँ तो होंगी आपके पास... सोना, चाँदी... ?
मनुष्य : मैंने कभी संचय नहीं किया।
कुत्ता : (झुँझला गया) तो किया क्या है आपने? स्वर्ण ही सबकी आँखें चौघाता है। उसकी गति त्रैलोक्य में कहीं नहीं रुकती। समझ तो रहे होंगे कि यहाँ स्थिति विस्फोटक है। अधिकाधिक हस्तगत करने की होड़ में कहो कि इन्हें आपस में ही लड़ा दिया जाये। इनका नेतृत्व अपने-अपने सूरज समेटकर भवनों में बैठ जायेगा। अपनी वंचना से विचलित भीड़ के कबीले एक-दूसरे पर दोष धरेंगे। मारेंगे... मरेंगे। जो हो, अपने लिए फिलहाल एक युक्ति सूझी है...।
मनुष्य : क्या?
श्वान : आप कोपीन धारण करिए। इस समय राजपुरुष से लेकर जनसामान्य तक अनिश्चय में भयग्रस्त और भविष्य की चिंता में डूबा है, इसलिए संन्यासी, तांत्रिकों के माध्यम से अभय खोज रहा है...।
मनुष्य : (बड़बड़ाता है) पाखण्ड है सब...।
श्वान : (फुसफुसाकर और आतुरता से) कुछ समय के लिए आपको भी रचना होगा पाखण्ड। रहस्यमयी भाषा बोलनी पड़ेगी। मैं समझा दूँगा कि महाप्रतिनिधि ने आपको अनुष्ठान संपन्न करने बुलाया है। श्रद्धा और भय में वे हमें भीतर जाने देंगे।
(कोलाहल के साथ धमाके बढ़ते जा रहे हैं)
(दोनों भीतर जा पहुँचे तो जैसे दृश्य ही बदला मिला)
मनुष्य : यहाँ पहुँचकर लगता ही नहीं कि विपन्नता भी कुछ होती है। राजपथ पर हंस की भाँति तैरते वाहन, सजे-सँवरे स्वस्थ सुंदर उपवन, भवन, स्त्री, पुरुष... जैसे जीवन का ताप इन्हें छूकर भी न गुजरता हो। हे परमेश्वर! तेरी संरचना भी विचित्र है कि एक ही लोक में ऊँचे नीचे अँधेरे-उजले अनेक लोक बस रहे हैं। गले तक उफनते पेट वालों के नेतृत्व में खाली पेटों का हाहाकार है। द्वार पर धमाके पर भीतर बदस्तूर आमोद-प्रमोद जारी है। किसी के पास सोचने का समय नहीं न सोचने वाले की बात सुनने का।
श्वान : हैं, सोचने वाले यहाँ भी पर उनकी दृष्टि रंगीन अनुभवों का रस लेता है। एक आँख से सत्ता को घूरते हैं और दूसरी कृपा की बाट में तत्पर। मैं कुत्ता हूँ - भागते, दुबकते, पूँछ हिलाते मैंने कुछ नगरों की परिक्रमा की है। आप को लिए, लादे रहे अपनी पीठ पर आगम-निगम, नीति-इतिहास, आचार-उपदेश। व्यवस्थापकों ने शक्तिशाली शब्दों की सामर्थ्य खरीद ली है। आप जैसे चिंतक विषहीन सर्प की भाँति बस फुसकार मारने वाले हैं, उनके लिए...।
(इसी बीच धमाके होते हैं... सायरन गूँजता है)
उद्घोषणा (होती है) : पता चला है कि नगर राज्य की लोकतांत्रिक शांति में विघ्न डालने कुछ विप्लवी घुस आये हैं। नागरिकों को सावधान और सूचित किया जाता है कि जहाँ भी कोई संदिग्ध, बाहरी व्यक्ति दिखाई दे उसकी सूचना तुरंत दण्डघर अथवा उनके प्रतिअधिकारी तक पहुँचायें। दो संदेहास्पद व्यक्तियों के घुसने की जानकारी मिली है... आशा है वे शीघ्र ही पकड़े जायेंगे।
(सायरन के संग उद्घोषणा आगे जाती हुई दूर पहुँचती है)
मनुष्य : लगता है मेरे साथ तुम्हें भी संदेहास्पद मान लिया है। चक्की में गेहूँ के साथ घुन भी तो पिसता है। हर शासक अपने लिए सरल आखेट चिह्नित करता है।
श्वान : हमने कोई अपराध नहीं किया। संयोग से राजपुरुष का संरक्षण भी मिल गया है। चिंता न करें आप! समय की इतनी लंबी यात्रा और स्मृतियों का इतना बड़ा बोझ। आप कुछ समय कुछ भी न सोचें... विश्राम करें। राजपुरुष की उदारता का सुख लें।
मनुष्य : राजपुरुष कोई पैगंबर नहीं कि नीति और धर्म के लिए स्वयं को दाँव पर लगा दे। इतने ही समय में मुझे लगता है कि शक्ति केंद्र के लिए पूजनीय भर रह गये हैं पैगंबर, अनुकरणीय नहीं।
श्वान : फिर तो यहाँ से भी भागना पड़ेगा!
मनुष्य : इतना बोझ लादे हुए आगे जाने की क्षमता नहीं है मुझमें। मैं जो अपने समय का सूर्य था। महान चिंतकों, अपराजेय योद्धाओं का वंशधर... विराट स्मृतियों का उत्तराधिकारी। विडंबना तो देखो कि आज जीवित रहने के लिए संरक्षक की खोज में हूँ। जो हो, कभी-कभी स्वयं को बचा लेना भी धर्म है। लगता है आज मुझे अपने इतिहास-कोष की स्मृतियों को कहीं छोड़ना या फेंकना पड़ेगा। आह! मेरा स्वर्णिम अतीत। लगता है इस अँधेरे में ही निकलना उचित होगा -
(बुदबुदाता है)
सनसनाती रात
जलकर बुझ चुकी हैं सब मशालें
समय सागर खौलता है
झूलती है नाव
तट से दूर
एकाकी...।
(गहरी साँस छोड़ता है)
(आँधी के झकोरों, भयावह आवाजों के भीषण मार्ग पर बढ़ते हुए )
मनुष्य : श्वान! तुम तो साथ हो ना!
श्वान : हाँ स्वामी, ठीक आपके पीछे।
मनुष्य : (पथहारी हँसी) यह भी एक विडंबना ही है कि देख सकने वाला पीछे है... तुम्हें आगे होना चाहिए।
श्वान : मेरी अपनी सीमा है। मुझमें नया रचने की शक्ति नहीं है। यह शक्ति केवल मनुष्य में है कि वह अपने जैसा ही नहीं, अपने से श्रेष्ठ भी रच सकता है। देवताओं के बीच रहकर यह भी जाना है कि वे मेरी ही भाँति कुछ या मुझसे बहुत अधिक प्राकृतिक शक्तियों के स्वामी भले हों पर नये के लिए मनुष्य के मुखापेक्षी हैं। किसी भी संकट या चुनौती के समय उन्हें किसी पुरुषोत्तम की शरण लेनी होती है... धरती पर आना पड़ता है। (हँसकर) इसीलिए तो मैंने भी मनुष्य का संग चुना है।
मनुष्य : किंतु इस समय तो मैं दीन-हीन हूँ।
श्वान : कदाचित यह भी कोई सृजन का सोपान हो। मनुष्य तो विधाता है ना!
मनुष्य : (वही अवसाद भरी हँसी) - और विधाता भाग रहा है... ।
श्वान : हम किस ओर भाग रहे हैं?
मनुष्य : पता नहीं - बस भाग रहे हैं। राजनगर की रोशनियाँ पीछे छोड़ आये। कभी-कभी ललक उगती है कि वहीं किसी स्वर्णसोपान पर ठहरना ठीक होता। इतना आगे आने का श्रम व्यर्थ है।
श्वान : श्वानमुँह से बड़ी बात करना पड़ रही है कि जिसके सामने वर्तमान को सँभालने व भविष्य को बनाने की चिन्ताऐं हों वह स्वर्ण और अतीत के स्वप्न नहीं देखता। ऐसे सपने वर्तमान और भविष्य दोनों को कुतरते हैं।
मनुष्य : तो क्या करूँ? मुझे कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा। यह भी नहीं कि इस समय हम हैं कहाँ?
श्वान : हमारे आसपास खदबदाता दलदल है और मार्ग संकीर्ण।... इतना कि चूके और धँसे। आगे कुछ दूरी पर जीभ निकालती लपटे हैं।
मनुष्य : तब, यहीं ठहरे रहें?
श्वान : ठहर पाना भी संभव नहीं। मुझे यहाँ प्रतीक्षारत प्रेतों का अट्टहास सुनाई पड़ रहा है और...। सुन रहे हैं ये आवाजें... ?
(पकड़ो... पकड़ो... रोको... जाने न दो... बाँध लो... ऐ ठहरो...)
मनुष्य : श्वान! अब भागो। ये प्रेत हमें चबाने को आतुर हैं।
आवाज : हाँ... आँ! भागे जा रहे थे। मुझसे बचकर कोई भाग पाया है। मैं तुम्हें देखते ही पहचान गया कि वही भेदिये हो तुम।
मनुष्य : अरे, यह तो उसी द्वार रक्षक की आवाज है।
प्रेतस्वर : (डाँटते हुए) अब मैं द्वार प्रमुख नहीं, नगर प्रमुख हूँ... महारक्षक। मैंने बड़ी वीरता से भूखे-नंगों की भीड़ को रोका। हजारों विप्लवकारियों को भूमि पर सुला दिया। महाप्रतिनिधि ने मुझसे प्रसन्न होकर तत्काल प्रभाव से उच्च पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।
मनुष्य : नगर महारक्षक सही, पर प्रेत कैसे बन गए?
प्रेत : (दुखी होकर) मेरी पदोन्नति से अप्रसन्न एक अधिकारी ने पीठ में कृपाण भोंक दी और विप्लवियों से जा मिला।
मनुष्य : नगर का क्या हाल है?
प्रेत : मुझे मारने वाला महारक्षक बन गया है। मोहक उपवन भीड़ के पैरों तले तहस-नहस हैं। महाप्रतिनिधि के भवन में भीड़ के रथी आपस में जूझ रहे हैं।... भूखी भीड़ बाहर चीख रही है।
मनुष्य : नागरजन किसके साथ हैं?
प्रेत : वे सुसभ्य पढ़े-लिखे लोग विवेकवान और सहनशील हैं। अपने किवाड़ बंद कर शायद स्थिति का आकलन कर रहे हैं। फिर वक्तव्य का कर्तव्य निबाहेंगे। अब तुम्हें साथ लेना है मुझे।
मनुष्य : पर मैं जीवित हूँ और तुम मृत... ?
प्रेत (का अट्टहास) : हा हा हा, हा हा हा... निष्क्रिय, भागने वाले और मृत में कुछ अंतर होता है क्या? अब तुम बच नहीं सकते।
ऐं, यह यहाँ भी आ पहुँचा। हटो... बचो इससे!
मनुष्य : क्या हुआ?... किससे बचना है?
प्रेत (हड़बड़ाया हुआ) : नगर का कवि है... पागल। मैंने इसे कई बार मारा... पर ये नहीं मरा। जब भी मारता हूँ... यह सपने में उतरकर कोई न कोई प्रहार कर जाता है। देखो ये घाव।... छाती, मस्तक, पीठ, पेट पर... हथेली पर और ये हृदय में घातक घाव...।
(सनसनाहट भरे प्रेत का दूर जाना और गीत की गुनगुनाहट का पास आना)
कवि : अंतत: पा ही लिया मैंने तुम्हें। मैं तो थक गया खोजते-खोजते। जवानी की दहलीज पर सुरैया चली गई... उसे खोजता रहा। बुढ़ापे के द्वार पर तुम्हारी आवाज सुनाई पड़ी जिसमें सुरैया के सुर की सांत्वना थी... संकल्प था। तुम मनुष्य हो ना!
पुरुष : (अचंभित होकर) हाँ, पर तुम मुझे क्यों खोजने लगे?
कवि : (मुस्कराकर) इसलिए कि तुमने सुख-दुख के पहियों पर चढ़कर पृथ्वी का छोर नापा है तो सुरैया से भेंट अवश्य हुई होगी।
मनुष्य : ये सुरैया कौन है?
कवि : नहीं जानते... ? फिर वह कविता जो मैंने सुनी... क्या तुम्हारे शब्द अनायास, निरर्थक ध्वनि मात्र थे?
मनुष्य : ओह कविता... वह तो मेरे जीवन और मृत्यु के द्वंद्व की छटपटाहट में आई थी।
कवि : तभी उसने बेचैन किया मुझे। सुरैया के जाने से मेरा सुर चला गया था। उसके संग ही कविता भी। मैंने तुम्हारी कविता में कुछ जोड़ा है। सुनोगे... ?
मनुष्य : कहो!
कवि : सनसनाती रात थी
गहरा कुहासा ओढ़कर
सो रही थीं सब दिशाऐं
और सपने चल रहे थे
हाँ
नंगे पाँव शायद।
(तेज दौड़ते घोड़े की टापें पास आती जा रही हैं, निकट आ ही गईं)
कवि : (आतुर, उद्विग्न होता हुआ) ऐ ठहरो! सुनो, तुम जिस ओर अश्व पर चढ़े दौड़े जा रहे हो वहाँ केवल आत्महत्या के टिकिट बँटते हैं। बेशक चले ही जाना पर क्षण भर रुककर मेरी बात तो सुन लो।
(टापों की तेज आवाज गुजर गई)
मनुष्य : अरे, उठो! यह तो तुम्हें गिराकर निकल गया। कुचल ही दिया होता...। कौन है वह? क्यों रोकना चाहते थे उसे?
कवि : मेरे राजनगर का मेधावी युवा है। जल्दी से जल्दी पाना चाहता है - सुख, ऐश्वर्य की सभी वस्तुएँ। उसकी दृष्टि पाने पर है इसलिए अपने तेजी में यह नहीं देखता कि रास्ते में और भी हैं... अपने पाँवों पर चलते लोग। वह किसी को भी रोंदकर सिर्फ आगे होना चाहता है। आगे... सबसे आगे होने की प्रतिद्वंद्विता का दुर्बोध मेरी पीढ़ी ने ही दिया है उसे; इसलिए उसे दोष नहीं देता। हड़बड़ी में वह आगे का विचार ही नहीं पढ़ता कि उधर जलती हुई नदी है जिसे पार करते वह मारा जाऐगा।
मनुष्य : सो कैसे?
कवि : महत्वाकांक्षा के जिस घोड़े पर वह सवार है उसमें मोम के जोड़ लगे हैं। यह अश्वतकनीक हिमराज्य के अनुकूल है। वहीं की आवश्यकतानुसार खोजी भी गई है और यह उसके आधार पर लपटों भरी नदी फाँदना चाहता है। आँच से मोम पिघलते ही अश्व के अंग बिखर जायेंगे और यह...।
कोई भाग्यशाली होकर जलते, झुलसते पार भी हो जाता है किंतु मेधा को भाग्य के भरोसे तो नहीं छोड़ा जा सकता ना !
(कवि लगभग रुआँसा होकर) और मैं दोनों भुजा उठाकर कहता हूँ किंतु मेरी कोई नहीं सुनता (सुबकता है) सुरैया भी अनसुनी कर गई... जाने कहाँ होगी... कैसी होगी?
(श्वान की किकियाहट सुनाई देती है और भेडि़यों की गुर्राहटें फिर मनुष्य की चीख)
कवि : (हल्ला मचाते हुए) बचो! बचो! मनुष्य बचो! तुम्हारे विश्वसनीय साथी को भेडि़ये दबाये लिये जा रहे हैं। ओह! तुम्हारी भी पिण्डली तो नोच ले गये... रक्त की धारें छूट रही हैं। सुनो! चेतना न खोना!... ये फिर से लौटेंगे। मैं सम्हालूँगा इन्हें। तब तक तुम आग खोजो... पैदा करो आग। इस धरती के बचे रहने के लिए तुम्हारा और आग का बचा रहना जरूरी है।
मनुष्य : आग?... कैसे? और तुम अकेले कहाँ तक लड़ोगे, रोकेगे?
कवि : अपनी-अपनी कहने में व्यस्त और असावधान देख भेड़िये अवसर पा गये। अब जैसे भी हो... देखो वो लौटने लगे हैं। मैं रोकता हूँ इनको... तुम आग...।
मनुष्य : (स्वगत-सा बुदबुदाता है)- मैं जीवित हूँ या मृत?
मानुषी (का कोमल स्वर) : जीवित हो। निश्चित रूप से।
मनुष्य : तुमने बचाया मुझे?
मानुषी : तुम्हारा मन स्वीकार करे तो मान लो।
पुरुष : तुम आग हो?
मानुषी : नहीं।... आग की निमित्त हूँ।
पुरुष : आग कहाँ से लाईं?
मानुषी : अपनी और तुम्हारी देह से पैदा की।
मनुष्य : अब तक कहाँ थी?
मानुषी : तुम्हारी अनदेखी में।
मनुष्य : साथी कहाँ गए?
मानुषी : हम लौटायेंगे उन्हें।
मनुष्य : कैसे?
मानुषी : सब कुछ खोकर/फिर से पाने के लिए
हमें जाना होगा वहाँ
वहाँ से भी आगे
नदियों की सजलता के लिए
ऋतुओं के लिए
शब्द के लिए
सृष्टि के लिए।