आदमी और लड़की / निर्मल वर्मा
उसने दुकान का दरवाजा खोला तो घंटी की आवाज हुई - टन। जब वह भीतर आया और दरवाजा मुड़ कर देहरी से दोबारा सट गया; तो घंटी दोबारा बजी, इस दफा दो बार-टन, टन।
यह दूसरी आवाज काफी देर तक गूँजती रही। यह चेतावनी थी कि कोई भीतर आया है।
दुकान में कोई नहीं था। उसे हमेशा लगता था कि यदि वह शेल्फ से दो-चार किताबें उठा कर भाग जाए, तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। यह उसका भ्रम था। घंटी बजते ही काउंटर के पीछे दो आँखें उसे अनजाने में ही पकड़ लेती थीं - आँखें, जो नीली थीं और गीली भी। ऐनक के पीछे दो डबडबाए धब्बे उसे निहार रहे थे।
वह किताबों की अलमारियों के बीच रास्ता टटोलता हुआ काउंटर के सामने आ खड़ा हुआ।
‘क्या हाल हैं?’ उसने पूछा।
अधेड़ मैनेजर ने उसकी ओर देखा; फिर कंधे उचका दिए - जिससे कुछ पता नहीं चला कि वह कैसे मूड में है।
‘सर्दी शुरू हो चली है।’ उसने कहा। मौसम का खयाल अचानक उसे मैनेजर की मूँछें देखने पर हो आया था, जो इतनी सफेद थीं, मानो अभी-अभी उन पर ताजा बर्फ गिरी हो।
‘होगी ही।’ बूढ़े ने तटस्थ भाव से कहा, ‘अक्तूबर का महीना है।’
‘अभी हीटिंग शुरू नहीं हुई?’
‘नवंबर से पहले नहीं, चाहे बर्फ ही क्यों न गिरने लगे।’ बूढ़ा बहुत ही महीन भाव से सरकार पर कटाक्ष करता था। मुद्दत पहले वह दुकान का मालिक था, अब नए तंत्र के नीचे, सरकार उसकी मालिक थी, उन किताबों की भी - जो उसके बाप-दादाओं ने पहली लड़ाई के जमाने से जमा की थीं। दुकान वही थी, लेकिन रातों-रात कानून की लकीर उसके और बाप-दादा की विरासत के बीच एक खाई-सी खोल गई थी। काउंटर पर वह अब भी बैठता था - पहले की तरह - लेकिन अब किताबों से उसका रिश्ता कुछ वैसा ही था, जैसे कोई बाप जीते-जी अपने बच्चों को अनाथालय में देखता है।
‘आप सोचते हैं, क्या बर्फ गिरेगी?’ आदमी ने पूछा।
बूढ़े ने ऐनक उतारी, मैले रूमाल से शीशे साफ किए, फिर नाक सिनकी, ‘बर्फ और मौत घंटी बजा कर नहीं आती।’
उसे लगा, जैसे बूढ़े का इशारा उसकी तरफ है। पिछले दिनों जब कभी वह दुकान की घंटी बजाता था, बूढ़े के चेहरे पर एक बेचैन-सी झुँझलाहट झलक आती थी। सीधे-सीधे कुछ नहीं कहता था, पर लगता था जैसे उसे सामने देख कर पिछली जिंदगी की सारी शिकायतें खुल जाती थीं। पहले लड़ाई और हिटलर, फिर कम्युनिज्म, और अब... वह!
वह आगे चला आया, अलमारियों के बीच। किताबों पर दुपहर की ठंडी म्लान रोशनी गिर रही थी। उसने चारों तरफ टटोलती हुई निगाह डाली, लेकिन वह कहीं दिखाई न दी। अचानक एक आशंका ने उसे पकड़ लिया - संभव है, वह आज दुकान नहीं आई। वह ठिठुरने लगा। अपने कोट की जेब में हाथ डाला, तार के कागज को छुआ, फिर उसे झटके से बाहर खींच लिया। गरमाई कहीं न थी, न कोट के अंदर, न बाहर।
वह अब भी झिझक रहा था। लेकिन दुकान के बीच, बूढ़े की आँखों के सामने खड़े रहना असंभव था। वह कुछ आगे बढ़ कर एक लंबी शेल्फ की ओट में छिप गया। उसने जेब से रूमाल निकाला और माथे का पसीना पोंछने लगा, सर्दी का पसीना, जो भीतर की देह से नहीं, बाहर की दहशत से टपकता है।
वह फटाक से मुड़ गया। ट्रॉली के पहिए चूँ-चूँ करते हुए शेल्फ की दूसरी तरफ जा रहे थे। पीछे-पीछे वह आ रही थी, ट्रॉली के हैंडिल को दोनों हाथों से पकड़े हुए - जैसे वह कोई छोटी-सी प्रैम हो, जिसमें बच्चे की जगह बहुत-सी किताबें बैठी थीं।
लड़की का सिर ट्रॉली पर झुका था। वह एक-एक किताब उठा कर शेल्फ की दराज में रख रही थी। उसकी आँखें शायद बचपन से ही कमजोर रही होंगी। वह हर किताब को उठाती, उसे अपनी ऐनक के बहुत पास ले आती, लेखक का नाम और किताब का टाइटल पढ़ती, फिर डस्टर से उसे झाड़-पोंछ कर दूसरी किताबों के सिरहाने टिका देती। वह अपने काम में इतनी डूबी थी कि उसे गुमान भी न था कि शेल्फ की दूसरी तरफ कोई उसे देख रहा है।
वह उसे देख रहा था। छत पर लटकी बत्ती का प्रकाश सीधा उसके चेहरे पर गिर रहा था; वह एक ठिगने कद की लड़की थी, लेकिन शेल्फ के पीछे सिर्फ उसका धड़ दिखाई देता था, कमर से ऊपर, जो उसकी टाँगों से कहीं ज्यादा वयस्क दिखाई देता था। उसने एक लंबा नीले रंग का एप्रन पहन रखा था, जो दुकान में काम करनेवाली लड़कियाँ पहनती थीं - लेकिन उसके ऊपर वह ज्यादा नहीं फबता था। शायद इसलिए कि वह उसमें पूरी ढँक जाती थी - और तब कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि वह कितनी छोटी है, कि अभी कुछ दिन पहले उसकी बीसवीं वर्षगाँठ पर वह उसके लिए फूल लाया था, जो शायद अब भी उसके कमरे में पड़े सूख रहे होंगे।
अब वह सरकते हुए उसके बिल्कुल पास चली आई थी - लगभग उसके सामने। शेल्फ की सँकरी दराजों के बीच उसका सिर दिखाई दे रहा था। उसने हमेशा की तरह अपने बाल कस कर बाँधा रखे थे - भूरे चमकीले बाल, जिनके बीच एक हिचकिचाती-सी माँग कुछ दूर चल कर उलझी हुई लटों में लोप हो गई थी।
इस बार वह अपने को नहीं रोक सका। जब लड़की ने अंतिम किताब शेल्फ पर रखने के लिए हाथ उठाया, तो उसने आगे बढ़ कर उसके हाथ को पकड़ लिया, वहीं शेल्फ के ठंडे लोहे पर। लड़की के मुँह से हल्की-सी चीख निकल गई और वह घबरा गया। उसने जल्दी से किताबों को ठेल कर शेल्फ के बीच अपना सिर अड़ा दिया -
‘मैं हूँ।’
लड़की ने हकबका कर आँखें ऊपर उठाईं; वह जैसे कोई जिन हो, किताबों के बीच मुस्कराता हुआ।
‘तुम?’
‘हाँ!’
‘कब आए?’
‘कुछ देर पहले... तुम डर गईं?’
‘हाँ...’ लड़की ने सिर हिलाया। वह छोटी बातों में भी झूठ नहीं बोलती थी। उसका हाथ अब भी आदमी की हथेली में भिंचा था। एप्रन के पीछे छोटा-सा वक्ष ऊपर-नीचे हो रहा था। वह सचमुच डर गई थी - वह कभी दुपहर के वक्त दुकान में नहीं आता था।
‘तुम कुछ देर के लिए छुट्टी ले सकती हो?’
‘अभी?’ लड़की का हाथ ठंडा-सा हो गया - उसके हाथ के भीतर।
‘सिर्फ कुछ देर के लिए!’ उसने कहा।
‘कोई बात हुई है?’ लड़की की आँखें उस पर फैल गईं।
‘नहीं, ऐसे ही।’ उसने उड़ते हुए स्वर में कहा। लड़की जिस तरह कभी झूठ नहीं बोलती थी, वह कभी सीधा सच नहीं बोल पाता था।
‘तुम भीतर बैठो, मैं अभी आती हूँ।’
उसने अपना हाथ उसकी हथेली से बाहर निकाला, एक क्षण उसकी ओर देखा और फिर वह मुड़ गई, किताबों की शेल्फों के पीछे छिप गई।
दुकान के पिछवाड़े एक स्टोर-रूम था, जहाँ लोग पुरानी किताबें बेचने आते थे। लड़की वहीं एक स्टूल पर बैठती थी। पीछे एक परदा लगा था, जो दुकान के मुख्य, अगले भाग को भीतरी हिस्से से अलग कर देता था। परदे के पीछे एक छोटा-सा केबिन था, जहाँ लड़की लंच-टाइम में घड़ी-दो घड़ी सुस्ताने आ बैठती थी।
वह यहाँ चला आया; कई बार यहाँ आया था; हर बार एक अजीब-सा भ्रम पकड़ लेता, मानो यह दुकान नहीं, लड़की के घर का प्राइवेट कमरा हो। वहाँ बाहर की कोई आवाज नहीं आती थी : न आदमियों का शोर, न ट्रैफिक का कोलाहल, सिर्फ ट्राम की गड़गड़ाहट जरूर सुनाई देती थी - बहुत गूढ़ और धीमी, जैसे कहीं दूर शहर के किनारे पर बादल कड़क रहा हो।
वह बेंत की आरामकुर्सी पर बैठ गया। कमरे में अँधेरा उतना नहीं था, जितना रोशनी का अभाव : न कोई खिड़की, न रोशनदान। सिर्फ किताबों की बासी बू और दीवार के पीछे चूहों की सरसराहट। एक छोटी-सी मेज पर चाय-कॉफी का सामान रखा था - पुराने सिलाबी बिस्कुट और ब्राउन रोटी की स्लाइसें हमेशा तैयार रहती थीं। कभी लड़की को भूख लगती, वह जल्दी से भीतर आ कर कुछ-न-कुछ पेट में डाल आती थी।
उसने पहली बार लड़की को इसी केबिन में देखा था। वह अपनी कुछ पुरानी किताब बेचने आया था। लड़की काउंटर के पीछे स्टूल पर बैठी डबलरोटी की एक स्लाइस कुतर रही थी। गोद में ब्राउन रंग का अधबुना स्वेटर पड़ा था जिसकी ऊनी देह में दो सलाइयाँ घुपी थीं। उसकी आहट सुन कर लड़की हकबका कर उठ खड़ी हुई - और तब पहले दिन, पहली बार उसने लड़की के चेहरे को देखा था।
वह मार्च का दिन रहा होगा और अब - अक्तूबर खत्म हो रहा था। इन सात महीनों में वह तकरीबन अपनी सब किताबें बेच चुका था, जिन्हें वह अपने देश नहीं ले जाना चाहता था। पुराने शब्दकोश, टूरिस्ट गाइड्स और वे सब उपन्यास, जिन्हें लड़की दुकान के लिए खरीद लेती थी - और खाली समय में खुद पढ़ती थी। उसे यह जान कर काफी हैरानी हुई थी कि वह अंग्रेजी पढ़ लेती थी और थोड़ी-बहुत बोल भी लेती थी।
दरअसल अंग्रेजी को ले कर ही उनके बीच बोलचाल का सिलसिला शुरू हुआ था। एक दिन जब वह कुछ किताबें बेचने आया, वह कुछ देर तक उन्हें उलट-पलट कर देखती रही। फिर अचानक बोली, ‘क्या आपके देश में सब लोग अंग्रेजी बोलते हैं?’
‘नहीं, ऐसा नहीं है।’ उसने कहा, ‘मैं भी ठीक से नहीं बोल पाता।’
‘आप बहुत अच्छा बोलते हैं।’ उसने बहुत उदासीन भाव से कहा। फिर उसकी ओर से आँखें मोड़ कर किताबों को समेटने लगी। ‘मैं अभी आती हूँ।’ उसने किताबों का बंडल उठाया और पार्टीशन के पीछे चली गई।
वह सोचने लगा-पता नहीं, आज कितनी किताबें चुनी जाएँगी। वहाँ कुछ ऐसा ही सिस्टम था। लड़की किताबों को मैनेजर के पास ले जाती, वह उनमें से उन्हें चुन लेता, जो खरीदने लायक होतीं-बाकी वापस लौटा देता। सारा व्यापार जुए के खेल-सा होता था। किताबों को चुनने और ठुकराने का कोई ठोस आधार रहा हो, यह उसे कभी समझ में नहीं आया। जब कभी लड़की से वह इसके बारे में पूछताछ करता, तो वह अक्सर टाल जाती थी। जब वह बहुत जोर डालता (बाद के दिनों में) तो वह झुँझला कर कहती, ‘हम वही किताबें पढ़ते हैं, जो हमारे लिए ठीक हैं!’
सौभाग्य की बात कहिए, उस दिन सब किताबें ‘ठीक’ निकलीं, तकरीबन सब-सिवा एक किताब के, जो मैनेजर ने वापस भिजवा दी, रेक्विएम फॉर द नन। लड़की ने कुछ कौतूहल से उसकी ओर देखा, ‘क्या यह कोई धार्मिक किताब है?’
‘नहीं,’ उसने कहा, ‘यह एक वेश्या के बारे में है।’
वह देखना चाहता था, उस पर क्या प्रतिक्रिया होती है। धर्म और रंडीबाजी - दोनों ही वहाँ वर्जित थे; किंतु लड़की के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया; उसने चीमड़ पेपरबैक को धीरे से काउंटर के नीचे सरका लिया, जिसे ‘छिपाना’ भी नहीं कहा जा सकता; काउंटर के नीचेवाली दराज उसकी अपनी थी, जिसमें वह दिन का टिफिन, रूमाल-तौलिया और घर की चाभियाँ रखती थी।
पता नहीं, उसकी कितनी किताबें इस काउंटर के भीतर गायब हो गई थीं।
‘आज आपको काफी पैसे मिलेंगे।’
उसने सरसरी निगाह से बिल को देखा, जो खट-खट करता हुआ कंप्यूटर मशीन के बाहर निकल आया था। उसका मन हुआ, एक बार झाँक कर बिल को देखे - फिर वह अपने को रोके रहा। यदि कमरे का चौथाई किराया भी निकल सके, तो बाकी पैसे जुटाने में ज्यादा मुश्किल नहीं पड़ेगी।
‘मालूम है, कितना है?’ उसने बिल को मशीन से खींच कर उसके सामने रख दिया।
चालीस क्राउन! पहले क्षण विश्वास नहीं हो सका। पहले कभी उसे अपनी किताबों के लिए इतनी बड़ी रकम नहीं मिली थी। लड़की उसकी ओर विजयोल्लास से मुस्करा रही थी।
‘इतना कैसे?’ उसने पूछा।
‘ऐसे ही!’ लड़की ने कहा, ‘ये अच्छे दिन हैं!’
अच्छे दिन? दुकान के भीतर लड़की की भाषा मोहनजोदड़ो की लिपि जैसी होती थी -छिपे मतलब बहुत कुछ और देखो तो कुछ भी नहीं। कभी-कभी रात को नींद न आने पर, बिस्तर पर पड़े-पड़े एक कंगला वाक्य, कोई लूला लफ्ज अँधेरे में चमक जाता - लड़की के साथ चिपका हुआ। अच्छे दिन, बुरे दिन, काफी बुरे दिन। सबसे बुरे दिन वे होते, जब लड़की उसकी सब किताबें वापस कर देती, खेद-भरी निगाहों से उसकी ओर देखती, ‘आज कुछ भी नहीं’ और वह सब किताबों को अपने डफल बैग में ठूँस कर बाहर सड़क पर आ जाता। दुकान की लंबी शीशेदार खिड़की पर एक छाया खड़ी हो जाती। वह देखती कि वह जा रहा है। वह सोचता, अगली बार कौन-सी किताबें लाऊँगा, जो खरीदने लायक होंगी। लड़की सोचती, कैसा आदमी है जो सिर्फ अंग्रेजी किताबों को बेचने आता है।
मैनेजर सब कुछ देखता, ऊँघने लगता। सोचता, वह किताबों के लिए नहीं, लड़की से मिलने आता है... लेकिन इस उम्र में?
लड़की भीतर आई। वह अपना लंच का टिफिन ले कर आई थी, वह देहरी पर ठिठक गई और उसे देखने लगी। आदमी कुर्सी के सिरहाने सिर टिका कर आँखें मूँदें बैठा था। उसके चेहरे पर एक महीन-सी थकान थी, मानो उसकी नींद का फायदा उठा कर न केवल बीते हुए वर्ष, बल्कि आनेवाली उम्र भी उसके चेहरे पर सरक आई हो। लड़की कुछ देर चुपचाप उसके चेहरे को देखती रही। कोई और दिन होता तो आदमी का इस तरह अचानक दुकान में प्रकट हो जाना उसे अच्छा लगता। लेकिन आज उसे यह अपशगुन-सा जान पड़ा। उसे प्रेतों में विश्वास नहीं था, किंतु आज जब उसने आदमी को किताबों की शेल्फ के पीछे देखा - पुराने ओवरकोट के गर्दभरे कॉलर, जो काले डैनों-से उसकी गर्दन पर उठे थे, तो वह अवाक-सी उसे देखती रही थी, जैसे आदमी के वेश में कोई दूसरा आदमी उसे ताक रहा है; दूसरा आदमी? वह धीरे से आगे बढ़ी, उसे सहलाने को मन हुआ, किंतु फिर हाथ रोक लिया। सोने दो - उसने सोचा, अभी काफी समय है।
दुपहर के समय कोई गाहक नहीं आता।
वह अपना टिफिनदान खोलने लगी, ब्राउन रोटी की सैंडविच, जिसके भीतर सलामी दबी थी, एक छोटी बोतल में योर्गुर्त, चीज के क्यूब, सिरके में भीगा खीरा - यही उसका लंच था, जो वह हर रोज अपने साथ लाती थी। अगर उसे मालूम होता कि वह भी आ रहा है, तो वह उसके लिए भी कुछ ले आती - उसने कितनी बार आदमी से कहा था कि उसे घर में खाना बनाने की जरूरत नहीं; दुपहर का खाना वे एक साथ दुकान में खा सकते हैं। लेकिन आदमी हर बार इनकार कर देता था जैसे दिन की रोशनी में उससे मिलना खतरनाक हो। दिन के समय वह उससे तभी मिलता था, जब कोई ऐसी जरूरत हो जिसे टाला न जा सके। लेकिन आज; आज क्या जरूरत है? वह कल रात ही तो उससे मिली थी।
वह कॉफी के लिए पानी गर्म करने उठी तो देखा, आदमी की आँखें खुली हैं, पता नहीं, कितनी देर से वह उसकी हरकतों को देख रहा था।
‘कुछ खाओगे?’ लड़की ने पूछा।
आदमी ने सिर हिलाया, फिर सीधा हो कर बैठ गया। आँखें सुर्ख थीं और शेव के बाद भी गालों पर पिछली रात की परछाईं बिछी थी। उसने आँखें मलीं और बालों को पीछे समेट लिया। याद नहीं आया, वह सो गया था - सपने की एक चिंदी अब भी डोल रही थी, धीरे-धीरे वह गायब हो गई और उसकी जगह लड़की दिखाई देने लगी।
लड़की ने अपना एप्रन उतार दिया था। अब वह हरे रंग की स्कर्ट पहने थी, जो हमेशा उसके घुटनों तक आ कर रुक जाती थी। काली नॉयलन की जुराबों के पीछे उसकी टाँगों का भोलापन झाँक रहा था। कमर पर काले रंग की पेटी कसी थी - बिल्कुल स्कूली लड़कियों की तरह - जिसके ऊपर भूरे रंग का ढीलाढाला कार्डीगन लटक रहा था। लड़की का चेहरा छिपा-सा जान पड़ता था, लेकिन देह हमेशा खुली और उजली दिखाई देती थी - दूसरी लड़कियों से बिल्कुल उल्टी, जिनका चेहरा सार्वजनिक होता है, जबकि देह बहुत प्राइवेट जान पड़ती है।
पानी उबलने लगा था - अचानक भाप का झोंका उठा और लड़की झुक गई, दो मगों में कॉफी डाली और जब मुँह उठाया तो होंठ खुल-से गए। पसीने की बूँदें माथे पर चमक रही थीं।
‘घर से आ रहे हो?’
आदमी कुछ हिचका - वह घर से आ रहा था, लेकिन सीधे नहीं। उसका हाथ जेब में गया, फिर वहीं ठिठका रहा, टेलीग्राम पर।
‘इंस्टीट्यूट गया था।’ उसने कहा।
‘पूरा कर लिया?’ लड़की हमेशा यही एक प्रश्न पूछती थी।
‘नहीं, एडवांस माँगने गया था।’ उसने कहा।
‘कितने पेज करने हैं?’
‘आखिरी चैप्टर बचा है - बाकी सब टाइप करना है।’
‘क्या वे टाइप भी नहीं करवा सकते?’ लड़की ने कुछ झुँझला कर कहा।
‘एक ही अंग्रेजी टाइपिस्ट है और वह छुट्टी पर गया है।’
आदमी धीरे-धीरे उसका हाथ सहलाने लगा। एक-दूसरे की चिंताओं को ढाँपने का यही एक तरीका बचा था। वे कहाँ-से-कहाँ चले जाते थे। लेकिन लड़की की देह स्थिर रहती थी - स्थिर और ठंडी। पैर सबसे ज्यादा। जब वह उसके कमरे में आती थी तो सबसे पहले अपने पैर आग के सामने फैला देती थी। उसे काफी हैरानी होती थी कि इतनी कम उम्र में लड़की के हाथ-पाँव इतने सुन्न रहते थे।
‘कितने दिन में देना है?’ लड़की ने पूछा।
‘दस दिन... ज्यादा-से-ज्यादा पंद्रह दिन, क्यों?’
‘क्या मैं कर सकती हूँ?’
‘तुम?’ आदमी के चेहरे पर थकी-सी मुस्कराहट चली आई।
‘क्यों नहीं... हर शाम किया करूँगी।’
लड़की ने हाल ही में टाइप करना सीखा था - अंग्रेजी टाइपराइटर पर। उसके लिए वह एक खेल-जैसा था। आदमी जितना भी अनुवाद करता, उसे डिक्टेट करवाता और उसकी अँगुलियों के नीचे से फटाफट अंग्रेजी शब्द फिसलते जाते। फिर दोनों बैठ कर गलतियाँ छाँटा करते। आदमी का कहना था, इस तरह वह अंग्रेजी और टाइपिंग दोनों एक साथ सीख जाएगी... लेकिन उसे सीखने की चाह उतनी नहीं थी, जितना सकून-सा मिलता था; रात की वही एक घड़ी होती थी, जब वह आदमी के पास होती थी, खिड़की के बाहर तारे दिखाई देते, टाइपराइटर के अक्षरों-से टिमटिमाते हुए... खट, खट। वह उन्हें दबाती जाती और वे आकाश से उतर कर सफेद, फुल-स्केप कागज पर उतरते जाते।
केतली का पानी गुनगुना रहा था। लड़की ने स्विच बंद कर दिया और ऊपर का रोशनदान खोल दिया, ताकि इस बार पानी की भाप बाहर जा सके।
‘यह गर्म है...’ लड़की ने दूसरा कप बनाने के लिए सिर झुकाया तो गले के पिछवाड़े का जूड़ा कंधे की तरफ लुढ़क आया। लड़की की देह पर ऐसी अनेक छोटी-छोटी घटनाएँ घटती थीं और वह उनसे बेखबर रहती थी, जैसे जब वह कोई पुरानी किताब बेचने आता था, तो वह अपने थूक से अँगुली गीला करके पन्ने पलटती थी और होंठ हिला कर पढ़ती थी। ऐसे मौकों पर वह उसे बहुत गौर से देखता था, क्या यह वही लड़की है जिसकी देह को वह पिछली रातों छूता रहा था - और जो दिन में इतनी अछूती दिखाई देती थी? ऐसे क्षणों में उसे लगता, वह कहीं नीचे है, गढ़हे में, एक जानवर की तरह दुबका हुआ, बार-बार एक ही इच्छा में मथता हुआ कि जब तक लड़की उसकी ओर से बेखबर कॉफी बना रही है, वह उछल कर गढ़हे से निकल सकता है, उसकी सफेद और कुँवारी गर्दन को दबोच कर एक छलाँग में दुकान से बाहर हो सकता है - दुकान से, पछतावे से, पाप से - सबसे बाहर। लेकिन जब वह आँखें ऊपर उठाती, तो उसके सब इरादे बुहर जाते। वह टकटकी लगाए उसे देखता रहता। लड़की पता नहीं, किस खयाल में मुस्कराने लगती। वह बँधा रहता - अपने गुस्से और संताप और दिल की दलदल में।
वह नीचे झुक आया, तिपाई पर, जहाँ लड़की का हाथ केतली पर टिका था और ऐसे कहा, जैसे अभी-अभी कुछ याद आया हो, ‘कल रात टेलीग्राम आया था।’
‘टेलीग्राम?’ लड़की के हाथ में कॉफी का मग हवा में ठिठक गया।
‘वह बीमार है।’ आदमी ने कहा, ‘मुझे बुलाया है।’
उसने तार जेब से बाहर निकाला - लाल कागज की मुड़ी हुई, दयनीय चिंदियाँ जिसे लड़की ने देखते ही आँखें मोड़ लीं।
‘क्या बीमारी है?’ उसने लापरवाही से पूछा।
‘जा कर पता चलेगा।’ आदमी ने कहा।
‘कब?’
वह चुप बैठा रहा - मेज पर पड़े तार को देखता रहा।
‘कब जा रहे हो?’ लड़की ने दोबारा पूछा, किंतु अब उसके स्वर में लापरवाही के बदले एक अजीब-सी कोमलता भर आई थी।
‘मैं पत्र की राह देखूँगा।’ उसने कहा।
‘लेकिन अगर वह सचमुच बीमार है?’ लड़की ने कहा।
‘सचमुच का मतलब? तुम सोचती हो, यह बहाना है?’
‘मैंने यह नहीं कहा।’ लड़की ने कहा, ‘अगर वह बीमार है, तो तुम्हें जाना चाहिए।’
‘तुम्हें बहुत जल्दी है।’
‘जल्दी कैसी?’
‘मेरे जाने की!’
लड़की ने विस्मय से उसकी ओर देखा।
‘मैं समझी नहीं!’ उसने कहा।
‘मुझसे ज्यादा तुम उसकी फिक्र करती हो।’
यह कटाक्ष था। वह कटाक्ष से भी आगे जाना चाहता था, जहाँ क्रूरता शुरू होती है, किंतु वहाँ सिर्फ कमीनापन था और वह रुक गया। आगे कुछ भी न था - सिर्फ एक गँदली-सी थकान और जलन थी। वह रात-भर नहीं सोया था।
‘मैं अब चलता हूँ।’ उसने कहा।
‘नहीं, ठहरो।’ लड़की ने उसके घुटनों पर अपने हाथ रख दिए, ‘तुमने अभी क्या कहा? मैं बहुत जल्दी में हूँ?’ लड़की की आँखें चुँधिायाँ गई थीं जैसे वह उसकी क्रूरता को ठीक से नहीं देख पा रही हो।
‘मैं हँसी कर रहा था!’ आदमी ने धीरे से अपना हाथ उसकी बाँह पर रखा। लड़की की समूची बाँह थरथरा रही थी।
‘अगर मैं कहूँ, तुम रुक जाओगे?’
‘तुमने कभी कुछ नहीं कहा।’
‘क्योंकि...’ कोई फायदा नहीं। वह जब-जब आदमी की परीक्षा लेती, आदमी का चेहरा दूर होने लगता। उसकी जगह अपना पाप दिखाई देने लगता, जो उससे वैसे ही प्रश्न पूछने लगता, जिन्हें वह आदमी से पूछती थी। यह चक्कर था; पाप का चक्कर, जिसका कोई अंत नहीं था।
‘क्या वह अक्सर बीमार रहती है?’ उसने पूछा। वह कभी उसकी पत्नी का नाम नहीं लेती थी, सिर्फ ‘वह’ कहा करती थी, मानो इतनी बड़ी दुनिया में सिर्फ एक ‘वह’ उसकी पत्नी हो सकती है। उसे खुशी थी, उसने उसे कभी नहीं देखा था - वह दूसरे शहर में थी और उसने वह शहर भी कभी नहीं देखा था।
आदमी चुपचाप लड़की को देखता रहा; लड़की के पीछे खिड़की थी और खिड़की के परे... छतें जहाँ उगती धूप की सफेद थिगलियाँ निकल आई थीं।
‘कल रात मुझे एक सपना आया।’ उसने कहा।
‘कैसा सपना?’
‘मैंने देखा, तुम नीचे खड़ी हो, तुम ऊपर मेरे कमरे को देख रही हो। मैं तुम्हें आवाज दे कर बुलाना चाहता था, और तुम जाने लगीं और मैं जोर-जोर से दरवाजा भड़भड़ाने लगा, नीचे आने के लिए...’
लड़की हँसने लगी, ‘सच?’
‘फिर मेरी आँख खुल गई और मैंने सुना, कोई सचमुच दरवाजा खटखटा रहा है। मैंने सोचा, शायद तुम हो, लेकिन बाहर तारवाला खड़ा था।’
आदमी के चेहरे पर हँसी थी, लेकिन लड़की की हँसी बुझ गई। उसे सपने में अपशगुन-सा दिखाई दिया। वह अपशगुनों के बीच रहती थी - इसलिए गिरजे में घड़ी-दो घड़ी बैठना उसे अच्छा लगता था। उसने यह बात कभी आदमी को नहीं बताई थी, गिरजेवाली बात। यह नहीं, वह आदमी से कुछ छिपाती थी, किंतु ईश्वर में विश्वास करना, यह उसे एक प्राइवेट किस्म की बीमारी जान पड़ती थी, जिससे वह आदमी को दूर रखना चाहती थी। ईश्वर के इर्द-गिर्द वैसा ही अँधेरा था, जैसा उसकी पत्नी के आसपास और वह उसकी पत्नी के बारे में उतना ही कम जानती थी, जितना आदमी उसके ईश्वर के बारे में... उन दोनों को अकेले छोड़ देना ही अच्छा था।
दरवाजे पर घंटी खनखनाई और वे दोनों चौंक गए। एक-दूसरे से अलग हो गए। वह भागती हुई दरवाजे के पास गई, साँकल खोल कर बाहर झाँका - कोई गाहक आया था। ‘अभी लंच-टाइम है,’ उसने कहा और जल्दी से दरवाजा भेड़ दिया। लेकिन वह मुड़ी नहीं; चौखट पर खड़ी रही, बंद दरवाजे के शीशे से खुलता हुआ दिन देखने लगी। अक्तूबर का दिन धुंध की परत से निकल रहा था; उसे बहुत पहले के दिन याद आए, जब वह आदमी से नहीं मिली थी; दुकान से घर अकेले जाती थी और शहर खाली-सा लगता था।
जब वह आदमी की तरफ मुड़ी, तो मुस्करा रही थी।
‘कितनी दूर है?’ उसने पूछा।
‘क्या?’ आदमी जाने के लिए तैयार खड़ा था।
‘तुम्हारी पत्नी का शहर?’ इस बार उसने सचमुच ‘पत्नी’ कहा, जैसे वह उसकी दूर शहर की कोई सहेली हो।
आदमी व्यस्त-सा हो उठा, ‘एक घंटा लगता है।’ उसने कहा।
‘कैसे जाओगे?’
‘बस से, हर घंटे बाद बस चलती है।’
लड़की आदमी के पास आई, ऊपर देखा, जहाँ उसकी आँखें थीं, ‘मैं भी चलूँ?’
‘तुम?’
‘बस-स्टेशन तक चलूँगी।’
आदमी एक क्षण उसे देखता रहा; वह सुन्न सन्नाटे के बीच खड़ी थी - जहाँ टेलीग्राम पड़ा था - और पीछे किताबों की कतार थी, जिनके भीतर जीने-मरने का ज्ञान भरा था, लेकिन जो उस क्षण न उसकी मदद कर सकता था, न लड़की की।
उसने बैग उठाया और लड़की के पास चला आया, उसके छोटे-से सिर पर अपना मुँह रख दिया। वह उससे बहुत छोटी थी और एक स्कूली लड़की की तरह सुनसान खड़ी थी; और तब उसे लगा जैसे उसकी उम्र के चालीस साल एक गँदले नाले की तरह दुकान के बीचोबीच बह रहे हैं और बीच का पानी इतना उथला है कि वह उसमें डूब कर मर भी नहीं सकता-केवल लड़की को उसमें घसीट कर गँदला कर सकता है।
वह बाहर चला आया।
वह जल्दी से भाग कर खिड़की के पास आई; आदमी दुकान से निकल कर सड़क पार कर रहा था। वह खिड़की के लंबे शीशे से उसे छोटा होते हुए देखती रही।
दूसरे दिन लड़की उसके फ्लैट पर गई, यूँ ही टहलते हुए, हालाँकि उसे मालूम था कि वह शहर से बाहर है और मकान खाली है। वह पिछली रात को ही चला गया। फ्लैट की डुप्लीकेट चाभी उसके पास थी, जो हमेशा उसके पास रहती थी और वह किसी भी समय उसके अपार्टमेंट में जा सकती थी।
किंतु उस शाम वहाँ कोई न था। सीढ़ियाँ अँधेरे में डूबी थीं और चौकीदार का केबिन खाली पड़ा था। भीतर जाने के बजाय वह पीछे चलती गई, ताकि दूर फासले से वह आदमी का कमरा देख सके, जो तीसरी मंजिल पर था और जिसकी एक खिड़की पार्क की तरफ खुलती थी।
पार्क में बच्चे खेल रहे थे।
खिड़की बंद थी। वह जाने से पहले परदा गिराना भूल गया था। शाम की धूप खिड़की के शीशों पर चमक रही थी, जिसके भीतर सब कुछ दिखाई देता है - मेज पर रखा टाइपराइटर, दीवार पर टँगी कमीज और खिड़की के आले पर रखा गमला, जो वह बहुत दिन पहले उसके लिए लाई थी। एक बार मन भीतर जाने को हुआ, अँगुलियाँ पर्स में गईं और भीतर रखी चाभी से खेलने लगीं-लेकिन यह खयाल कि कमरा खाली पड़ा होगा जैसे अँगुलियों को भी छू गया। वह मुड़ गई और धीमे कदमों से घास पर चलने लगी।
पार्क के बीच पौंड था, अंग्रेजी ढंग का तालाब, जिस पर बत्तखें तैर रही थीं।
वह तालाब के साथ-साथ चलने लगी। वह सोचने लगी, लेकिन सोच का कोई ऐसा सिरा नहीं था, जिसे पकड़ कर वह भीतर की गाँठ खोल सके। सारा सोच आदमी से शुरू होता था, जब वह पहली बार दुकान में आया था। वह एक साधारण-सा दिन था, लेकिन तब उसे नहीं मालूम था कि उसके साथ रिश्ता इतना असाधारण हो जाएगा कि वह दिन-रात उसके बारे में सोचा करेगी। जब वह अपनी किताबें काउंटर पर छोड़ कर चला जाता, तो वह उनके पन्ने पलटने लगती; पुरानी, भुरभुरी, अंग्रेजी की किताबें, जिन पर उसका नाम, उसके शहर का नाम और नीचे वह तारीख लिखी होगी, जब उसने वे किताबें खरीदी होंगी। उन तारीखों को देख कर उसे अजब-सी हैरानी होती कि जब वह दुनिया में नहीं आई थी, वह अपने शहर में घूमता होगा, पढ़ता होगा और जब उसका विवाह हुआ होगा, वह स्कूल में पढ़ती थी... वह मुस्कराने लगी, लोग मुझे उसकी बेटी समझते हैं, उसने सोचा। शायद इसीलिए वह दिन के उजाले में मेरे साथ चलने में कतराता है। मुझे कभी उम्र याद नहीं आती। वह जब मेरे साथ होता है, तो मुझे पता भी नहीं चलता कि वह मुझसे कितना बड़ा है। उम्र के बारे में क्या सोचना? वह रात की बर्फ है। सोते हुए पता भी नहीं चलता, सुबह उठो तो फाटक पर ढेर-सी जमा हो जाती है।
बर्फ की बात से उसे मार्च का महीना याद आया; उस शाम वह पहली बार आदमी के साथ सोई थी; साल की आखिरी बर्फ गिरी थी और बाहर आई, तो सारी देह सुन्न; सारा शहर बर्फ में ठिठुर रहा था। आदमी ने उसे बहुत रोका, किंतु उसके भीतर कुछ बल रहा था, जो सारे शहर को सोख सकता था। वह चलती गई, और जब उससे बरदाश्त नहीं हुआ, तो उस गिरजे में चली आई जो बहुत पुराना था और खाली रहता था और जिसमें वह अक्सर जाती थी और जिसके बारे में आदमी को कुछ भी नहीं मालूम था।
वह भीतर चली आई और सबसे आगे की बेंच पर बैठ गई। कुछ देर पहले वह आदमी के बिस्तर पर थी और अब यहाँ? वह वहाँ क्या कर रही थी, यह उसे बहुत देर तक नहीं मालूम हो सका। सामने ऑल्टर पर एक आदमी टँगा था, पैरों, हाथों, छाती पर कीलों से बिंधा हुआ-और बहुत देर तक उसे यह भी पता नहीं चला कि वह आदमी वहाँ क्या कर रहा है? तब उसे अचानक लगा कि वह अकेली नहीं है; कोई उसके पास है, कोई बिल्कुल पास बैठा है, जिसे उसने अँधेरे में नहीं देखा था। एक बूढ़ी औरत, जो उसके साथ बेंच पर बैठी थी, गुनगुनाती हुई, प्रार्थना करती हुई, हवा में मोमबत्ती की लौ की तरह डोलती हुई; क्या वह कुछ माँग रही थी? वह ईश्वर से कुछ माँग रही थी और तब उसे हैरानी हुई कि इतनी लंबी जिंदगी गुजार देने के बाद - जब कुछ भी बचा नहीं रहता - ईश्वर से कुछ माँगा जा सकता है? वह बूढ़ी के पास सरक आई, ‘सुनो, क्या यह पाप है?’ उसने धीरे से बूढ़ी औरत के कानों में फुसफुसाया, ‘एक आदमी के साथ सोना, जिसकी पत्नी जीवित है?’
‘कौन?’ बूढ़ी ने उसके चेहरे को देखा, ‘कौन जीवित है?’
वह हँस रही थी। उसके सारे दाँत टूटे थे और खुले, पोपले मुँह से शराब का भभका छूट रहा था; शराब और बुढ़ापे और आँसुओं से सना उसका चेहरा ऊपर-नीचे हिल रहा था।
वह भाग कर बाहर चली आई। बहुत देर तक बूढ़ी का चेहरा उसके पीछे-पीछे भागता रहा। फिर वह अचानक गायब हो गया और बर्फ गिरना बंद हो गई। वह मार्च का महीना था, जब वह पहली बार आदमी के साथ सोई थी।
अब वह उसके घर के सामने बैठी थी। बच्चे अपने घरों को चले गए थे और बत्तखें? वे पता नहीं, कहाँ डूब गई थीं! तालाब अँधेरे में सोया था। न छप, न कुछ, न कोई आवाज। आसपास मकानों की बत्तियाँ जल रही थीं। सिर्फ आदमी का कमरा तीसरे तल्ले पर एक अँधेरे खोखल-सा खाली पड़ा था। अब वहाँ न गमला था, न मेज, न दीवार पर लटकती कमीज।
वह कहीं दूसरे शहर में था। वह अपनी पत्नी के साथ लेटा था। वह न जाग रहा था, न सो रहा था। वह सोच रहा था, जब वह सात महीने पहले लड़की की दुकान में आया था - और बगल में उसकी पत्नी साँस ले रही थी।
वह तीन दिनों बाद लौटा था। तीन छोटे दिन और दो लंबी रातें, जिनके बीच लड़की घर से दुकान गई थी, वापस घर लौटी थी; फिर दुकान, फिर घर। एक शाम वह बस-स्टेशन गई थी, हालाँकि उसके आने का समय उसे नहीं मालूम था; दूसरी शाम उसके घर गई थी, और पार्क में खेलते हुए बच्चों और तैरती हुई बत्ताखों को देखती रही थी। आदमी अपनी पत्नी से मिलने पहले भी जाता था लेकिन लड़की की जिंदगी में यह पहला मौका था जब उसने उस अजीब चीज को देखा था, जो कुछ भी नहीं थी, किसी का न होना, यह भी कोई चीज है? लेकिन जहाँ वह जाती, वह चीज भी उसके साथ-साथ चलती; जब रात को लेटती, तो वह चीज भी उसके साथ लेट जाती है और जब वह सोने लगती, तो वह जागते हुए उसका सोना देखती रहती - और तब उसे समझ में आया था कि क्यों अकेले लोग गिरजों में जाते हैं, शराबखानों में, ऐसे घरों में जहाँ औरतें पेशा करती हैं और ऐसे लोग भी जो अपनी पत्नियों के साथ रहते हैं हालाँकि साथ का सुख कब का सूख चुका होता है -
लेकिन सुख लड़की को नहीं सताता था। वह उसके बारे में सोचती भी न थी। वह सिर्फ यह जानना चाहती थी कि क्या वह उस चीज के बारे में जानता है, जो वह जाने के बाद उसके पास छोड़ जाता था? क्या वह उस चीज को जानता था? कभी-कभी उसे लगता था; उसे जानता है, इसीलिए उससे अलग होना चाहता था; किंतु वह अलग होता नहीं था, एक अजीब गुस्से में तना रहता था, जैसे उसकी आवाज फोन में सुनाई दी थी - भर्राई हुई, तनी हुई।
वह फोन तीसरे दिन आया था, लंच की घड़ी में, जब मैनेजर बाहर थे। वह अपने केबिन में थी और टिफिनदान खोल रही थी। घंटी सुनाई दी तो उसके हाथ डिब्बे पर पड़े रहे। यह उसका फोन है, उसने सोचा, हालाँकि फोन की घंटी हमेशा एक जैसी ही बजती थी। वह किताबों की अलमारियों के बीच भागती हुई काउंटर पर आई, फोन उठाया, आदमी की आवाज सुनी और जब वापस अपने केबिन में आई तो उसे खिड़की के बाहर पेड़ दिखाई दिया, सड़क दिखाई दी, सामने की दीवार पर पोस्टर दिखाई दिया, जिसका एक सिरा उखड़ कर हवा में फड़फड़ा रहा था। तीन दिनों बाद वह अपने शहर को नए सिरे से देख रही थी।
फोन की आवाज अब भी उसके भीतर थी - एक उदास नाराजगी में दबी हुई। पता नहीं, वह क्यों तना था? उसने यह भी नहीं पूछा कि उसके ये दिन कैसे बीते? तीन दिन अपनी पत्नी के साथ रह कर उस पर गुस्सा जताना? क्या वह पागल था?
उसने जल्दी-जल्दी वे किताबें बैग में डालीं, जो वह उसके लिए जमा करती थी, अंडरग्राउंड किताबें, जिन्हें न दिखाया जा सकता था, न बेचा जा सकता था, जो गोदाम में पड़ी सड़ा करती थीं। वह अपने पैसों से उन्हें खरीदा करती थी और गोदाम के अँधेरे कोनों में जमा करती जाती थी। वह उन्हें एक-एक करके अपने बैग में रखने लगी। फिर उसके हाथ ठिठक गए; उसे लगा, वह आदमी को देख सकती है। वह अकेला अपने कमरे में बैठा होगा। सर्दी का धुँधला दिन, टाइपराइटर और खाली, कोरे पन्ने, जिन्हें वह जाने से पहले ज्यों-का-त्यों मेज पर छोड़ गया था।
वह उकड़ूँ बैठा था। वह आग जला रहा था। वह अखबार के कागजों को अँगीठी में झोंक रहा था, जिसका धुआँ ऊपर उठता था, चिमनी में जाता था, खाँसने लगता था, फिर लौट कर पानी बन जाता था। आदमी बार-बार अपनी कुहनी से आँखें पोंछने लगता था।
लड़की काऊच पर लेटी थी। सिरहाने पर कुशन था, कुशन के नीचे किताबों का बैग, बैग के ऊपर टिफिनदान, जिसके भीतर से सलामी और खट्टे दही की गंध आ रही थी। उसकी आँखें खुली थीं; सिर मुड़ा था; वह आदमी की पीठ देख रही थी जहाँ उसकी कमीज पैंट से बाहर निकल आई थी, नीचे झूल रही थी।
आदमी ने सिर मोड़ा तो आग की लपटें भी उठने लगीं; धुएँ के पीछे लड़की का चेहरा दिखाई दिया; डबडबाती आँखों में आग और लड़की एक-दूसरे की बाँहों में तैर रहे थे। वह उठ खड़ा हुआ। वह काऊच के सिरे पर आ कर बैठ गया, जहाँ लड़की का सिर कुशन पर टिका था और पाँव नीचे लटक रहे थे। और तब उसे ध्यान आया कि लड़की के पाँव बहुत ठंडे रहते थे, नॉयलन जुराबों के बीच सिकुड़े हुए, लड़की इतनी स्थिर थी कि पैरों का हिलना उसे धोखा-सा जान पड़ा, ‘ठंड तो नहीं लग रही?’ उसने कहा।
लड़की के पैर हवा में ठिठक गए, ‘नहीं’ उसने सिर हिलाया।
‘बस में बहुत ठंड थी,’ उसने कहा, ‘सड़कों पर पानी जम गया था।’
‘कब पहुँचे?’ लड़की ने पूछा।
‘दुपहर को, तभी तुम्हें फोन किया था।’
‘क्या बीमारी थी?’ लड़की ने पूछा।
‘खास कुछ नहीं,’ आदमी ने कहा।
‘कुछ भी नहीं?’
‘वह मुझे देखना चाहती थी।’ आदमी ने अपने चेहरे पर हाथ फेरा मानो खाल की सलवटों को सीधा कर रहा हो।
‘तीन दिन तक?’ लड़की ने कहा।
‘क्या?’
‘वह तीन दिनों तक तुम्हें देखती रही?’
आदमी ने सिर उठाया, हैरत में लड़की को देखा। उसका चेहरा आग की शुष्क गरमाई में तप रहा था। वह अजीब आँखों से उसे निहार रही थी - जैसे कुछ पूछ रही हो। आदमी ने उसका हाथ अपने हाथ में सरका लिया, सहलाने लगा; सफेद कुँआरा हाथ, जिसने अभी तक केवल सेकेंड-हैंड किताबों को छुआ था, लेकिन उनके भीतर के भुरभुरे पन्नों को नहीं पढ़ा था, जिनमें लोग विवाह करते हैं, एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं, बूढ़े हो जाते हैं, अकेले कमरों में मर जाते हैं। आदमी के भीतर एक अंधी-सी वासना उठी, जिसका उस समय लड़की की देह से कोई रिश्ता नहीं था; उसने उसे अपने पास घसीट लिया, उसकी देह को अपने चालीस सालों के भीतर दबोच लेने के लिए और वह खिंच भी आई - बिल्कुल एक कबूतर की तरह उसके सीने से सट गई।
‘क्या तुम उसके साथ सोए थे?’ लड़की की आवाज इतनी धीमी थी कि आदमी को भ्रम हुआ कि जो उसने सुना है, क्या वह भी भ्रम है!
‘तुमने कुछ कहा?’
‘क्या तुम उसके साथ...’
आदमी ने सिर उठाया; धीरे से उसके सिर को अपने सीने से अलग कर दिया।
लड़की ने ऊपर देखा, जहाँ आदमी का चेहरा था, थकान, नींद और बीती हुई उम्र से लदा हुआ और तब उसे हैरानी हुई कि वह उससे प्यार करती है; वह जो कुछ कहेगा, उसका कोई मतलब नहीं था।
अँगीठी के कोयले अब खिलखिला रहे थे।
कुछ देर बाद लड़की काऊच से उठी और कुर्सी पर बैठ गई। टाइपराइटर में फँसे कोरे पन्ने को देखा और फिर आँखें खिड़की से बाहर ठहर गईं। पार्क अँधेरे में डूबा था और तालाब की जगह सिर्फ एक सफेद शीट दिखाई दे रही थी; सड़क की बत्तियाँ एक लंबी झालर-सी शहर के आर-पार लटक रही थीं। उसने कुर्सी मेज के पास सरका ली और टाइप करने लगी, जिसे आदमी ने अनुवाद किया था। टाइप करते हुए उसे अजीब-सा सकून मिलता था, जैसे वह दो भाषाओं के बीच फैले जंगल में अकेली निर्लिप्त और सब खतरों से मुक्त घूम रही है - जबकि पीछे काऊच पर लेटा आदमी उसे देख रहा था।
वह उसके झुके सिर को देख रहा था - जिस पर भूरे बालों का जूड़ा शिथिल-सा हो कर गर्दन पर लुढ़क आया था। वह उसके अनुवाद को पढ़ती, तो होंठ हिलने लगते, फिर उन्हीं फड़फड़ाते शब्दों को जल्दी-जल्दी कागज पर टीपने लगती। वह उसकी पत्नी को भूल गई थी। वह अब उससे अलग हो गई थी। सिर्फ कभी-कभी सिर उठा कर किसी शब्द का मतलब पूछ लेती थी। और वह सोचने लगता। पिछली रात वह पत्नी के साथ था और अब यहाँ; कल दुपहर के समय वह किताबों की दुकान में आएगा, लड़की से झूठ बोलेगा, पत्नी के पास जा कर लौट आएगा - इसी तरह दिन बीतेंगे। इसका कोई मतलब है?
आदमी ने हाथ आगे बढ़ाया – धीरे से लड़की की पीठ को छुआ - और वह चौंक गई, पीछे मुड़ कर आदमी को देखा, पीले चेहरे पर दुबली-सी मुस्कराहट चली आई।
‘कुछ चाहिए?’
‘अब रहने दो; बाकी कल कर लेना।’ आदमी ने कहा।
‘बस थोड़ा-सा बचा है; तुम सो क्यों नहीं जाते?’
क्या इतनी उम्र में लड़कियाँ माँ बन जाती हैं, पत्नी होने से पहले? उसने आँखें मूँद लीं। पलकों के भीतर अँधेरे पर टाइपराइटर सिर्फ एक शब्द गोद रहा था, नींद, नींद, नींद और नींद कहीं न थी।
बहुत गई रात तक लड़की टाइप करती रही; वह धीरे-धीरे चेप्टर के अंतिम अंश तक पहुँच गई थी। कहानी के काले जंगल में जब कभी वह बीच में अटक जाती तो कभी आदमी, कभी शब्दकोश उसका हाथ पकड़ कर अँधेरी खाई पार करवा देते और वह अर्थ की खुली रोशनी में आ जाती, दोबारा चलने लगती। इस तरह रेंगते हुए जब वह अंतिम पंक्ति पर पहुँची तो कुछ देर तक फुलस्टॉप की काली बिंदी पर ठिठकी रही, कागज के बाकी हिस्से को देखती रही जो खाली पड़ा था, उन तीन दिनों की तरह खाली, जब वह अपनी पत्नी के साथ था और वह अकेली शहर की सड़कों पर घूमती थी और तब उसे अजीब लगा कि खालीपन का मतलब न वह आदमी से पूछ सकती है, न शब्दकोश उठा कर देख सकती है।
उसने खट से कागज बाहर निकाला, टाइपराइटर को बंद किया, कुर्सी को पीछे धाकेला और बीच कमरे में आ कर खड़ी हो गई। फर्श पर किताबों की पोटली रखी थी और आदमी उससे बेखबर काऊच के सिरहाने लेटा था। अचानक उसे लगा कि अगर वह जीना उतर कर नीचे चली जाए तो किसी को पता भी नहीं चलेगा।
फिर ध्यान भटक गया। खिड़की के शीशे पर रात का पतिंगा फँस गया था, कभी ऊपर जाता था, कभी नीचे, फ्रेम से बार-बार टकरा कर एक अजीब बदहवासी में छटपटा रहा था। लड़की ने झपाट से खिड़की खोल दी, पतिंगा ऊपर उठा और एक हल्की-सी जान उसके गालों को छूती हुई बाहर अँधेरे में उड़ गई। वह कुछ देर तक खुली खिड़की से नीचे देखती रही।
अक्तूबर की धुंध पर बॉर की नियोन-लाइट एक लाल चिंदी-सी चमक रही थी। अचानक एक आदमी बाहर निकला और लड़खड़ाते कदमों से सड़क पार करने लगा। वह डोलता हुआ कभी एक तरफ जाता, कभी दूसरी तरफ - शीशे पर पतिंगे की तरह डगमगाता हुआ - फिर न जाने क्या सोच कर फ्लैट की दीवार से सट कर खड़ा हो गया, बिल्कुल खिड़की के नीचे, अपने पैंट के बटन खोलने लगा। लड़की ने झट से खिड़की बंद कर दी और वापस कमरे में लौट आई। उसने बालों को खोला, क्लिपों को उतार कर मेज पर रख दिया; फिर अपने बैग से वेसलीन की ट्यूब निकाली, अँगुली पर रख कर उसे दबाया और उसे अपने चेहरे पर, कानों से पीछे, बाँहों पर मलने लगी। अचानक उसके हाथ ठिठक गए। उसकी पत्नी भी यह करती होगी, उसके पास जाने से पहले? उसके भीतर कुछ हिला, सारी देह को मरोड़ता हुआ; उसने उसे पहले कभी नहीं देखा था - एक मैली-सी पीड़ा - जो देह में कीड़े-सी उलट जाती है, उठने को तिलमिलाती है, नीचे धँसती जाती है। एक क्षण के लिए वह आतंकित हो गई - हलक में राख अटकने लगी; वह मुँह पर हथेली दबा कर बाथरूम में भाग आई, बेसिनी पर दोहरी हो कर झुक गई, देह में जो कुछ उलट गया था, वह एक ही उलटी में बाहर निकल आया, पानी में एक पीले चकत्ते-सा तैरता हुआ।
उल्टी करने के बाद उसने मुँह धोया, आँखों पर पानी छिड़का, चेहरा पोंछने के लिए जब उसने तौलिया उठाया, तो उसकी आँखें बेसिनी के शीशे पर ठिठक गईं। वहाँ उसी बूढ़ी का पोपला चेहरा झाँक रहा था - जैसा उसने गिरजे में देखा था; लेकिन अब वह हँस नहीं रही थी; कुछ अफसोस के साथ उसे देख रही थी। वह उससे कुछ कहना चाह रही थी; लेकिन अब लड़की कुछ नहीं सुनना चाहती थी, न बीते हुए अपने पाप के बारे में, न आनेवाली जिंदगी के बारे में... इससे पहले कि बूढ़ी अपना मुँह खोलती, लड़की उसे आईने में अकेला छोड़ कर कमरे में चली आई।
वह लौट आई। वह काऊच के पास चली आई, जिस पर आदमी लेटा था। उसने कमरे की बत्ती बुझा दी; किंतु अँधेरा नहीं हुआ। आग की पीली, बुझती हुई रोशनी सब चीजों पर पड़ रही थी - टाइपराइटर, किताबों का बैग, कुशन पर टिका आदमी का सिर। उसने कपड़े उतारे, अलमारी से कंबल निकाला, धीरे से उसे आदमी पर डाल दिया और फिर कंबल का एक सिरा उठा कर खुद भी उसके नीचे लेट गई।
वह इतना निश्चल लेटा था कि कुछ देर तक उसे पता भी न चला कि वह जाग रहा है या सो रहा है। सिर्फ उसकी साँस सुनाई दे रही थी - छाती के भीतर घुरघुराती हुई। उसने टटोलते हुए उसे छुआ, खुली हुई कमीज के बीच नंगी छाती को, जहाँ कुछ सफेद बाल उग आए थे - और फिर अपना सिर वहाँ टिका दिया। आदमी सिहरने लगा; एक गर्म-सी आहट उसके लहू को खटखटाने लगी; नहीं, नहीं, नहीं, उसके भीतर कोई कह रहा था; लेकिन जब उसने आँखें खोलीं, तो लड़की का सिर उसके ऊपर था, उसके बाल एक दूसरा अँधेरा थे, कमरे के अँधेरे पर बिखरे हुए; वह हिल रही थी - और कुछ देर तक आदमी को पता भी न चला कि वह रो रही है - उसकी छाती के बालों के बीच एक गर्म-सी लकीर बह रही थी।
‘सुनो,’ आदमी ने बहुत धीरे से कहा, ‘मैं मरना चाहता हूँ।’
‘क्या?’ लड़की ने सिर उठाया; उसकी ओर देखा। आदमी कभी-कभी उससे अपनी भाषा में बोलने लगता था, जिसे वह बिल्कुल नहीं समझ पाती थी।
‘तुमने कुछ कहा?’
वह धीरे-धीरे उसके सिर को सहलाने लगा; वह माँ से बच्ची बन गई थी और आदमी उससे ऐसा सच बोल सकता था, जिसका अनुवाद वह कभी नहीं कर सकेगी।