आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ / सुरेश कुमार मिश्रा
जीवन की आपाधापी में समय कब गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता। सब अपने में लगे हैं। स्वार्थ के मोहजाल से घिरे पड़े हैं। उनमें ख़ुद से पहले दूसरों के हित के बारे में सोचने, त्याग करने, मिल बैठकर बाँटने की प्रेरणा धीरे-धीरे कम होती जा रही है। सच यह भी है कि इन सबके बावजूद कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो हमेशा याद किए जाते हैं। वे आदमी होने का सच्चा दायित्व निभाते हैं। ऐसे लोग समाज की चिंता में दिन-रात जलते रहते हैं। अपने आस-पड़ोस, समाज की सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। कोरोना के इस महाकाल में अब मानव एकता ही महामंत्र बनकर इस धरती को बचा सकता है। एक समाज, एक समूह, एक करुणा सागर, एक जीवन की सार्थकता का प्रतीक बनने का समय आ चुका है। भिन्न-भिन्न धर्म ग्रंथ भिन्न-भिन्न नदियों के समान हैं। अंत में इन सबको मानवता के महासागर में ही विलीन होना है। कोरोना विषाणु की भांति भीतर ही भीतर थमती साँसों के समान ईर्ष्या, क्रूरता, पाशविकता भरे संसार में मानवता कि अपेक्षा नहीं की जा सकती। परंतु मानवता को बचाए रखने वाले कुछ ऐसे भी द्वीप हैं जो प्रलय के इस तूफान में स्वयं को बचाए रखे हैं। धरती पर होने के मायने समझाते हैं। वर्तमान समय की मानवीय आपदा को देखकर ऐसे कई मानवता भरे दीप जल उठे हैं, जिनमें सहायता, करुणा, प्रेम का तेल तो था लेकिन जलाने वाली कोई प्रेरणा नहीं थी। सूर्य और चंद्रमा कि भांति ऐसे महानुभाव हर युग, हर समय में होते हैं। अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराते हैं। प्रार्थना करने वाले होठों से कहीं अधिक सहायता के लिए हाथ आगे बढ़ाते हैं।
प्रवासी मजदूरों के पैरों पर पड़े छालों और सिर पर उठाए पारिवारिक बोझों को देखकर कभी सड़क किनारे पियाऊ बनना, कभी लंबी दूरी तय करने का भरोसा बनना, मंज़िल तक पहुँचाने वाला सहायक बनना मानवता का प्रतीक नहीं तो और क्या है? मजूदरों को भूख लगने पर निवाला खिलाना, धूप लगने पर ख़ुद साया बनकर छाया देना, चिलमिलाती धूप में बच्चों को गोद में उठाकर उनके सिरों को ढकना, समाज के कर्ज़ को अपने फ़र्ज़ से चुकाना कोई आम बात नहीं है। ये वे लोग हैं जो निराशा में आशा, अंधेरे में उजाला, नाश में निर्माण का रूप लेकर हमारे समक्ष प्रकट होते हैं।
देश मिट्टी से नहीं लोगों से बनता है। उनकी साँसों, उनके अहसासों में बसता है। तालाबंदी के पीड़ादायी काल में संकरी गलियों में जीवन गुजर बसर करने वाले ऐसे न जाने कितने फुटपाथी हैं, न जाने कितने फेरीवाले हैं, न जाने कितने टैक्सी ड्राइवर हैं, न जाने कितने नौकर-चाकर हैं, न जाने कितने पान की दुकान वाले हैं, न जाने कितने मंदिरों के सामने फूल बेचने वाले हैं, न जाने कितने साइकिल में हवा भरने वाले हैं जिनकी ज़िन्दगी थम-सी गयी। टूट-सी गयी। रूठ-सी गयी। आत्मनिर्भरता के नाम पर इन्होंने अपनी आत्मा के साथ समझौता किया। सच तो यह है कि कोरोना महामारी के चलते देश में मरने वालों की संख्या अन्य कारणों से मरने वाले लोगों से कम है। कोई भूख से, कोई प्यास से, कोई चलने से, कोई नौकरी जाने से, कोई पैसों की कमी से मर गया। देश में कोरोना वायरस से भी बढ़कर कई बीमारियाँ हैं। भूख, प्यास, शिक्षा, बेरोजगारी, इलाज़ की कमी जैसी अनगितन बीमारियाँ हैं जो कोरोना के पहले से ही चली आ रही हैं।
कोरोना महामारी ने जो सबक दिए हैं, उनमें एक है-मानवता का पाठ। इसलिए मनुष्य को, विशेषकर थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे, अच्छे-बुरे की पहचान रखने वालों को चाहिए कि वे कोरोना कि समाप्ति के बाद भविष्य में ऐसी विपदाओं का संगठित रूप से कैसे सामना कर सकते हैं, के बारे में विचार-विमर्श करें। योजनाएँ बनाएँ। उनका कार्यान्वयन करें। अगर आप उड़ नहीं सकते तो दौडि़ये, अगर दौड़ नहीं सकते तो चलिए और अगर चल भी नहीं सकते तो रेंगिए, जो कुछ भी कीजिए लेकिन सिर्फ़ आगे ही बढ़ते रहिए। सरकार को उनकी जिम्मेदारी याद दिलाएँ। उसके लिए भरसक प्रयास करें। हमें चाहिए कि हम एक-दूसरे के साथी बनकर एक-दूसरे के दुख-दर्द बाँट लें। जीवन की विडम्बना यह नहीं है कि हम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाए, बल्कि यह है कि पहुँचने के लिए हमारे पास कोई लक्ष्य ही नहीं था। अब जबकि हमारे सामने कोरोना महामारी का यह सबक लक्ष्य बनकर उभरा है, तो इसे किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाहिए। आदमी हो तो आदमी से प्यार करना सीखिए। मानव जीवन अनमोल है, मानवता ही उसका सच्चा मोल है। हमें धर्म, जात-पात आदि भेदभाव से उठकर मानवता कि सेवा करनी चाहिए।