आदम की डायरी / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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मैं क्यों और कैसे बना?

‘बनना’ क्या होता है, मैं जानता हूँ। क्योंकि यवा ने और मैंने मिलकर इस सुन्दर उद्यान की मिट्टी में कई बार टीले बनाकर ढहा दिये हैं, कई बार अपने पैरों से ऊपर गीली मिट्टी जमाकर पैर खींचकर वैसी ही खोह बनायी है जैसी में हम रहते हैं... यह भी मैं जानता हूँ कि जैसे पैर ढंक लेने से और हाथ छिपा लेने से भी उनकी बतायी हुई खोह बनी ही रहती है, उसी तरह जिन चीज़ों को बनानेवाला नहीं दीखता, उसका कोई बनानेवाला होता अवश्य है। खोह के भीतर पैर के आकार का खोखल देखकर हम उस पैर की कल्पना कर सकते हैं जिस पर वह कन्दरा टिकी थी; बाहर से कन्दरा की दीवार पर उँगलियों की छाप देखकर हाथ का अनुमान कर लेते हैं... इसी तरह यदि हम इस उद्यान के रंग-बिरंगे, सूखे-गीले, चल-अचल विस्तार से परे देख सकते, तो शायद इसके भीतर भी हमें किसी के पैर के आकार की प्रतिकृति दीख पड़ती, इस पर भी किसी के हाथों की छाप पहचानी जा सकती... हम छोटे हैं, बनानेवाला बड़ा होगा; हो सकता है कि जैसे इस उद्यान की मिट्टी पर बड़ी लम्बी लकीर बना सकता हूँ उसी तरह बनानेवाला वैसे तो छोटा हो, पर बड़ाई को भी घेर सकने की, मिटा और फिर बना और आड़ा-तिरछा बना सकने की भी सामर्थ्य रखता हो...

तो मुझे कैसे, किसने, क्यों बनाया?... समझ में नहीं आता। वह कोने के पेड़ में पड़ा हुआ साँप अपनी गुंजलक खोलकर और जीभ लपलपाकर कहता था-पर साँप की बात मुझे बुरी लगती है... वह जब इधर-उधर पलोटता हुआ सरकता है और मिट्टी पर सूखे नाले-सी लकीर डालता चलता है, तब मेरे रोएँ न जाने क्यों खड़े हो जाते हैं। साँप को देखता हूँ, तो दिन-भर अनमना-सा रहता हूँ; यवा पूछ-पूछकर तंग कर देती है कि क्यों? पर मेरा दिन अच्छा नहीं बीतता... साँप अनिष्ट है...

क्यों उसने मेरे मन को ठीक वैसे ही घेरकर बाँध लिया है जैसे वह उस फल देनेवाले पेड़ को अपनी गुंजलक से कसे रहता है? क्यों मेरा मन या तो सोच ही नहीं सकता, या साँप के दबाव के अनुसार ही सोच सकता है?

वह मुझे देखकर हँसता है। उसकी हँसी में कुछ ऐसा होता है, जो काँटे की तरह सालता है। वह बताना चाहता है कि वह मुझसे अधिक जानता है, मुझसे अधिक समर्थ है, मुझसे अधिक पराक्रमी है किन्तु मैं तो यवा को देखकर यवा को दर्द पहुँचाने के लिए कभी नहीं हँसा हूँ? यवा भी तो बहुत-सी बातें नहीं जानती जो मैं जानता हूँ। यवा से भी बहुत-से काम नहीं होते, जो मैं कर सकता हूँ।

यवा मेरे साथ रहती है। यवा मेरी है। मैं उसके लिए फल लाता हूँ, मैं उसके लिए फूल तोड़कर बिछाता हूँ। मैं अपने मुँह में पानी लेकर एक-एक घूँट उसके मुँह में छोड़ता हूँ। मुझे इसमें सुख मिलता है कि जो काम मैं करता हूँ वे सब-के-सब यवा न कर सकती हो। मुझे इसमें भी सुख मिलता है कि जो काम वह कर भी सकती है, वे भी मेरी मदद के बिना न करे। यवा मेरी है।

साँप तो मेरा कोई नहीं है? उसका दिया हुआ तो मैं कुछ लेता नहीं। एक फल दिखाकर कभी वह बुलाया करता है, कभी डराया करता है, तभी तिरस्कार से हँसता है, पर मैंने तो वह फल भी कभी चाहा नहीं है, मैंने तो उसकी ओर देखा भी नहीं है, मैंने साँप की बुलाहट की अनसुनी ही सदा की है, तब वह क्यों हँसता है?

मैं साँप का नहीं हूँ, क्या इसीलिए वह हँसता है? यदि मैं भी उसका होता, जैसे यवा मेरी है, तब क्या वह भी मेरी कमज़ोरी में सुख पाता, क्या वह भी अपनी लपलपाती हुई जीभ से चाटा हुआ पानी मुझे... पर उँह! मैं नहीं चाहता वह!

लेकिन साँप हँसता था और कहता था, मैं उसका हूँ। कहता था, जब तुम बने भी नहीं थे, तब से तुम मेरे ही थे; जब तुम नहीं रहोगे, तब भी तुम मेरे ही रहोगे। मेरी गुंजलक तुम को घेरनेवाली लकीर है। उसके बाहर कहीं भी नहीं जाओगे, कहीं भी नहीं रह पाओगे।

मैं उसका हूँगा, जिसने मुझे बनाया है और यह सब-कुछ बनाया है। पर यह कौन है, मैं कैसे जानूँ...

वह साँप तो कुछ भी नहीं मानता। उसकी हँसी एक भीषण अवमानना की हँसी है। उसमें विश्वास नहीं है... वह कहता है मैं सब-कुछ जानता हूँ; क्या जानना ही विश्वास छोड़ना है और क्या विश्वास छोड़ने से ही बड़ा और समर्थ बन जाता है?

उसकी किसी बात में विश्वास नहीं है। पर वह बात कहता है तो लगने लगता है, इस बात में विश्वास किया जा सकता है...

जबसे मैंने साँप का इशारा मानकर उसकी बतायी हुई दिशा में देखा है, तबसे मेरा तन अभी तक थर-थर काँपता ही जा रहा है...

उसने कहा था, “तुम कहते हो, यवा मेरी है, इसीलिए हम दोनों एक हैं। पर जो चीज़ें एक-जैसी हैं, एक तरह नहीं बनी हैं, वह एक कैसे हैं? तुम धोखे में हो, धोखे में।”

मैंने उसकी बात नहीं सुनी थी। मैंने जवाब भी नहीं दिया था। मन ही में सोचा था, यह झूठ है। हम दोनों एक हैं, क्योंकि इतने बड़े उद्यान में एक यवा ही थी जिसको देखकर मैंने जाना था कि यह मेरे-जैसी है, और जो सहसा ही मेरे पास आकर आयी ही रह गयी थी, भोजन खोजने भी नहीं गयी थी; जिसके लिए मुझे स्वयं ही भोजन लाने की ओर बैठने की जगह बनाने की इच्छा हुई थी... हम दोनों में कुछ भी भेद नहीं है, हम दोनों एक ही हैं, उद्यान से हम दोनों हैं जो एक-दूसरे को जानते हैं... साँप झूठा है।

पर वह ठठाकर हँस पड़ा था और बोला था, “तुम यवा को नहीं जानते, नहीं जानते। तुम अपने को भी नहीं जानते। तुम नंगे हो, नंगे!”

वह शायद मेरा मौन तुड़वाना चाहता था; तभी तो जब मैंने उसकी बात न समझकर पूछा था, “नंगा क्या होता है?” तब वह ठठाकर हँस पड़ा था और बोला था, - “नंगे हो तुम! नंगी है यवा! तुम दोनों नंगे हो, तुम अलग हो, तुम दो हो!”

मैं तब भी नहीं समझा था, किन्तु तभी से न जाने क्यों मेरे शरीर में कँपकँपी शुरू हो गयी थी। और यवा को अपने पार्श्व में आया देखकर मैं आश्वस्त नहीं हुआ था, और उसकी तरफ़ देखकर जैसे सहसा मुझे लगा था, क्या यवा सचमुच और है? अपनी देह देखकर तो मुझे ऐसा कौतूहल नहीं होता जैसा यवा की देह को देखकर होता है, तब क्या सचमुच वह देह मेरी देह से और है!

यवा ने कुछ समझकर मेरा कन्धा पकड़ लिया था, और जैसे मेरे रोंगटे और भी काँपकर खड़े हो गये थे... और साँप ने फिर हँसकर कहा था, “यवा कहती थी, सब कुछ एक ही किसी ने बनाया है। तब तो सब-कुछ एक है, है न? तब हमें सर्वत्र एकता दीखनी चाहिए। पर देखो तुम्हारे शरीर और-और हैं - वे तुम्हारे बनानेवाले की एकता को झूठा बताते हैं! जाओ, उसे छिपाओ - और उसे, और उसे, और उसे!”

और उसकी पहकहीन आँखें और लपलपाती दुहरी जीभ जैसे हमारी देहों को जगह-जगह छेदने लगी...

मैंने अपने को कम्पन पर क्रुद्ध होकर कहा, “यवा ने तुमसे कहा, यवा ने! तुम झूठे हो, यवा तुम्हारी ओर देखती भी नहीं!”

साँप कुछ शान्त होकर बोला, “क्या कहा?”

और जैसे हमें भूलकर चक्कर-पर-चक्कर देता हुआ उस पेड़ पर लिपटने लगा। पेड़ का तना छिप गया, फिर एक-एक करके शाखें भी छिपती चलीं...

पता नहीं क्यों पेड़ का छिपते जाना मुझे अच्छा नहीं लगा। लगने लगा कि यह अनिष्ट है, पर जैसे मेरी आँख उस पर से हटी नहीं, और मेरी देह और काँपने लगी।

यवा ने मुझे खींचते हुए कहा, “चलो, यहाँ से चलो...”

एकाएक मुझे कुछ याद आया; मैंने यवा से पूछा, “यवा, क्या तूने सचमुच साँप से बात की थी?”

यवा ने डरकर मुझे और भी ज़ोर से खींचते हुए कहा, “चलो, आदम, चलो यहाँ से !”

हम लोग हट गये। दूर चले गये, जहाँ वह पेड़ और साँप की खड़े पानी-सी आँखें हमें न दीखें। पर मेरे शरीर का कम्पन बन्द नहीं हुआ, और मुझे लगता रहा कि शून्य हवा में से कहीं से साँप की आँख निरन्तर मुझे भेद रही है...

जब झील में से नहाकर तपती रेत पर लेटे-लेटे हमें फिर भोजन की इच्छा हुई, और हमने देखा कि आकाश का वह पीला फल फिर लाल हो चला है, तब एकाएक मुझे बहुत अच्छा लगने लगा। मन में हुआ, आज साँप की हर एक बात का मैं सामना कर सकता हूँ। मैं यवा का हाथ पकड़कर उसे उसी पेड़ की ओर खींच ले चला जिस पर साँप लिपटा था।

मुझे डर नहीं लगा, मैं काँपा भी नहीं। राह में एकाएक मैंने पूछा, “यवा, तुमने सचमुच साँप से वह बात कही थी?”

यवा ने जवाब नहीं दिया। फिर एकाएक चौंककर बोली, “वह देखो, वह!”

मैंने देखा।

पेड़ सारा साँप की गुंजलक में छिप गया था। जैसे कीड़ा पत्ते को समूचा खा जाता है, वैसे ही साँप की गुंजलक ने भूतल से लेकर ऊपर तक समूचे पेड़ को लील लिया था - तना, शाखा-प्रशाखाएँ, टहनी-फुनगी सब छिप गयी थीं-और स्वयं साँप भी गुँजलक के भीतर कहीं सिर छिपाकर सोया था-जैसे वहाँ न साँप था, न पेड़, केवल एक गुँथी हुई विराट् गुंजलक-

और हाँ, उस गुंजलक के ऊपर, जैसी उसी से निर्भर, एक अकेला पका हुआ लाल फल...

यवा ने ज़ोर से मुझे पकड़ लिया। मैंने एक हाथ से उसे सँभालते हुए जाना, वह काँप रही है, और उसके भीतर कुछ बड़े जोर से धक्-धक् कर रहा है।

मैंने हौसला दिलाने को कहा, “क्यों यवा, क्या है?”

उत्तर में वह और भी ज़ोर से मेरे साथ चिपट गयी। मैंने फिर पूछा, “यवा, यवा डरती हो?”

उसने और भी चिपटकर कान के पास मुँह रखकर धीरे से कहा, “साँप सोया है।”

मैं बोला, ‘तो फिर?”

यवा फिर चुप हो गयी, मैंने देखा, वह मेरे साथ अधिकाधिक चिपटती जा रही है, और उसके भीतर धक्-धक् द्रुततर होती जाकर जैसे मुझे भी भर रही है...

मेरे रोंए फिर खड़े होने लगे, पर डर से नहीं, डर से कदापि नहीं - किससे, यह मैं नहीं जानता!

मैंने कहा, “कहो यवा, क्या है?”

वह फिर चुप रही। मैंने फिर उसकी काँपती देह-लता, समुची हुई मुद्रा और लाल होते चेहरे को देखते हुए, दूसरा हाथ उसके माथे पर रखते हुए पूछा, “मेरी बीरबहूटी, बता चाहती है?”

उसने एक बार बड़े जोर से धक्-से होकर कहा, “वह फल मुझे ला दोगे?” और मुँह छिपा लिया।

मुझे नहीं समझ पाया कि क्या कहूँ। न जाने कैसे मैंने एक हाथ में यवा को पकड़े ही पकड़े दूसरा हाथ बढ़ाकर वह फल तोड़ लिया - शायद यवा के भीतर की वह धक्-धक् मुझे धकेल गयी।

एकाएक साँप हिला। यवा ने लपककर फल में एक चाक दे मारा और शेष मेरे मुँह में ठूँस दिया - साँप ने ज़रा इधर-उधर सरककर सिर बाहर को निकाला - और साँप कुंठित कर देनेवाला उन्मत्त अट्टहास सारे उद्यान में गूँज गया...

“जो मैं स्वयं तुम्हें दे रहा था, वह तुमने मुझसे छिपाकर तोड़ खाया। छिपाकर, छिपकर, अलग होकर, तुम जो सब-कुछ एक बताते हो, तुम मेरी झूठ-झूठ की नींद से धोखा खा गये! अब तुम्हारी देह के भीतर मेरा लाल फल है, और तुम्हारी देह को मेरी यह गुंजलक बाँधेगी -तुम्हारी नंगी देह को जो - तुम नंगे हो, नंगे! नंगे!”

क्या जिस समर्थ भाव से भरकर मैं वहाँ गया था, वह भुलावा था? साँप ने हमें धोखा भी दिया तो भी मैं समर्थ हूँ। मैं अपनी यवा को लेकर उसे उद्यान से बाहर चला आया हूँ। यहाँ केवल वीरान है, पेड़-फूल नहीं है; लेकिन यहाँ साँप भी नहीं है। यहाँ केवल मैं हूँ और मेरी यवा है।

वहाँ की खुली हवा में बैठकर यवा ने पूछा, “कैसा था फल?”

मैंने कहा, “यवा, सारी बात ऐसे हो गयी कि समझ में नहीं आया। तुम्हारी छाती के भीतर की धक्-धक् ने न जाने मुझे कैसे कर दिया था।”

एकाएक मैंने देखा कि यद्यपि यवा ने मेरी बात से सहसा संकुचित होकर दोनों हाथों से अपनी छाती ढाँप ली है, तथापि वह मेरी बात नहीं सुन रही है। उसकी आँखें मुझ पर नहीं जमी हैं, आकाश की तरफ देख रही हैं जिसका रंग कुछ गहरा हो गया है, नीचे की ओर जाते हुए लाल होते हुए आकाश के मुँह को शायद पहचानने की कोशिश कर रही है...

मैंने फिर कहा, “यवा, उस समय तुमने मुझे क्या कर दिया था? कैसे कँपा दिया-”

यवा ने जैसे नहीं सुना। उसकी आँखें खुली थी; पर वैसी ही देर की कुछ बातें देख रही थीं, पर वैसी ही दूर की कुछ बात देख रही थी, जैसी कभी-कभी काली रात के अँधेरे में सोते-सोते देखा करती है... मैंने फिर पूछा, “युवा, क्या देख रही हो? वह धीरे-धीरे बोली, मैं सोच रही थी, “ साँप की गुंजलक में बँधे हुए पेड़ को कैसा लगता होगा... अगर वैसी गुंजलक मुझ पर लिपट जाये, मैं सारी जकड़ी जाऊँ, तो कैसा लगे? वह तनिक-सा काँप गयी, फिर बोली, “अच्छा बताओ तो, अगर तुम उसी तरह बाँहों से मुझे बाँधकर छा लो और मेरे बाल पकड़कर उनमें मुँह छिपा लो, तो कैसा लगे, बताओ तो!” और वह काँपती-सी झूठ-झूठ-की हँसी हँस दी, मैंने सहमकर कहा, “दूर!”

और वह हाथ और बाँहों से मुँह और छाती ढँककर, सिमटकर मेरी ही आड़ में हो ली और मेरी जाँघ पर अपने लम्बे बाल फैलाकर सो गयी।

और वह सोयी है। दिन लाल हो रहा है। शीघ्र ही वह काला पड़ जायगा, रात आ जाएगी, सब कुछ छिप जाएगा, हम भी छिप जाएँगे। दो नहीं रहेंगे, अलग नहीं रहेंगे, बिना आड़ के भी अलग नहीं रहेंगे - मैं यवा के पास आऊँगा, बहुत पास, बहुत पास, बहुत पास, उससे एक... और वहाँ कुछ नहीं होगा, साँप भी नहीं होगा, बनानेवाला भी नहीं होगा, हम भी इस मरुभूमि में होंगे और हम एक होंगे...

2

यह क्या गया है?

उस समय साँप नहीं देख रहा था, वह साँप जो सब-कुछ जानता था, तब तो साँप का और हमारा बनानेवाला है वह भी नहीं देख रहा होगा; और अँधेरे में हम भी एक-दूसरे को नहीं देख सकते थे, यवा और मेरे बीच के भेद को नहीं देख सकते थे; तब छिपना हम किससे चाहते थे?

यवा मेरी जाँघ पर सिर रखे लेटी थी, मैं कोहनी टेके अध-लेटी मुद्रा में था। हम दोनों सोना चाहते थे, पर शरीर नहीं मानता था। न जाने हम दोनों के भीतर क्या खूब जागरूक होकर धक्-धक् कर रहा था। और उसके दबाव से शरीर भी जैसे टूटते-से थे, थकित-चकित-क्लान्तर-से होते थे, पर फिर भी ढीलना नहीं चाहते थे, तने-ही-तने रहना चाहते थे, अशान्त, अश्लथ, खंडित, असंकुचित, अपरावृत... और इसे न समझे हुए, न चाहे हुए दबाव के नीचे मैं बहुत अकेला, बहुत ही छोटा और दयनीय-सा अपने को जान रहा था...

बहुत ही दयनीय छोटा, बहुत ही अकेला... यवा मेरी जाँघ पर चुपचाप पड़ी थी, पर न जाने कैसे मैं अनुभव कर रहा था, उस रात की निविड़, निरालोक स्तब्धता में मेरे साथ घनिष्ठ होकर भी वह जैसे अकेली अनुभव कर रही है, हम दोनों बिना बताए अलग-अलग अपने को तुच्छ और अकेले समझते हुए कहीं छिप जाना चाहते हैं, समा जाना चाहते हैं - एक-दूसरे की आँखों से नहीं, एक-दूसरे से तो सटकर किन्तु अन्य न जाने किसकी आँखों से...

जैसे किसी अनदीखते साँप की अनदीखती, अस्पृश्य गुंजलक में हम दोनों बद्ध हों, और-

और मेरे मन में रह-रहकर यवा की काँपती हुई हँसी से कही हुई बात गूँज जाती थी, “अगर वैसी गुंजलक मुझ पर लिपट जाये, मैं सारी जकड़ी जाऊँ, तो कैसा लगे? अच्छा बताओ तो, अगर तुम उसी तरह बाँहों से मुझे बाँधकर छा लो और मेरे बाल पकड़कर उनमें मुँह छिपा लो, तो कैसा लगे बताओ तो!...”

कैसा लगे, बताओ तो... न जाने, कैसा लगे, यवा, न जाने कैसा लगे... पर मैं तो बड़ा दयनीय, बहुत अकेला हूँ और मैं छिप जाना चाहता हूँ न जाने किसकी आँखों से - मुझे अच्छा नहीं लगता...

मेरा शरीर सिहर कर तनिक-सा काँप गया। यवा ने चौंककर आधी उठकर भर्राये-से स्वर में कहा, “कैसा लगता है आदम, बताओ तो?”

मेने मन में हुआ, यवा, इस मरुभूमि में न वनस्पति है, न साँप है, न फल, शायद इन सबका बनानेवाला इस मरुभूमि में नहीं है; यहाँ हैं केवल तुम और मैं और हमारा अकेलापन -और मैंने विवश-भाव से यवा को पास खींचकर घेरते हुए कहा, “तुम्हीं जानो, यवा, कैसा लगेगा, मैं तुम्हें बाँध लेता हूँ इस गुंजलक में-” और यवा ने जैसे बिजली की तरह काँपकर सिमटते-सिमटते हुए कहा, “हाँ, बाँध लो मुझे, छा लो, पेड़ की एक फुनगी तक न दीखे, केवल फल, केवल फल...”

और तब मेरे भीतर धक्-धक् करनेवाला वह ‘कुछ’ चीत्कार कर उठा, क्यों मैं दयनीय हूँ, क्यों मैं छोटा हूँ, क्यों मैं अकेला हूँ... इस मरुभूमि में और कोई नहीं है, मैं ही गुंजलक हूँ, मैं ही साँप हूँ, मैं ही फल हूँ... और क्यों नहीं हूँ, मैं ही वह फल हूँ... और क्यों नहीं हूँ, मैं ही वह बनानेवाला हूँ, जिसका नाम हम नहीं जानते हैं!

और यवा के भीतर का धक्-धक् ताल देता हुआ बोला, “और मैं!” और एक लहर-सी मेरे ऊपर आयी, डुबा देनेवाली, घोंट देनेवाली, तहस-नहस करनेवाली, यह आकाश का जलता हुआ लाल फल और अनगिनत फल-जो कुछ मैं देखता और जानता हूँ, सब-कुछ मुझे रौंदता हुआ और खींचता हुआ चला गया और यवा को बाँधे-छिपाये हुए मुझे लगा कि मैं ही बनानेवाला हूँ-

और तब-

नहीं, यवा नहीं! हम नंगे हैं! नंगे हैं! और मैंने सहसा परे हटकर अपना मुँह ज़मीन में छिपा लिया, जो होने लगा कि समूची देह उसी में धँस जाये। और यवा भी मुँह फेरकर धीरे-धीरे रोने लगी...

3

यह जो मेरे भीतर और यवा के भीतर निरन्तर धक्-धक् किया करता है, क्या यही उस बनानेवाले के पैर की प्रतिकृति वह खोखला नहीं है जिसे कुन्दरा का बनानेवाला पहचान जाता है? साँप के आगे मेरी हार हुई है, लेकिन मैं जानता हूँ कि साँप ने झूठ कहा था; मैं जानता हूँ कि बनानेवाला एक और निश्चय है... उसकी छाया भी मेरे भीतर है और यवा के भीतर, और निस्सन्देह उस अनिष्ट साँप के भीतर...

लेकिन यह यवा में क्या नयी बात प्रकट हुई है? मेरे और यवा के बनानेवाले के और उसके प्रतिस्पर्धी साँप के बीच यह एक नया डर और नया आग्रह कैसा देखता हूँ, जो यवा की आँखों में काँपा करता है?

यवा, सच बताओ, मेरे और तुम्हारे, साँप के और सबके नियन्ता के बीच यह चीज क्या है, जिसे तुम जानती हो और हम नहीं? बताओ, तुम्हारा यह डर और चिन्तित उत्कंठा कैसी है? किसके लिए तुम कोमलता से भरा करती हो, किसके लिए तुम मुझे भूल-सी जाती हो, पहचानती नहीं हो, किसके लिए तुम्हारी आँखें सर्दी की बरसात के बाद की-सी धुन्ध से भरकर तैरने-सी लगती हैं? बताओ मुझे, तुम्हें क्या हो गया है...

क्या मैंने तुम्हें क्लेश दिया है? पीड़ा पहुँचायी है? लेकिन क्या वैसा मैंने चाहा है? इस अनिष्टकर साँप की देखादेखी मैंने तुम्हें गुंजलक में बाँधना चाहता था अवश्य, और उससे हम दोनों स्तम्भित हुए थे अवश्य, पर वह तो तुम्हीं ने जानना चाहा था; और फिर तब तो तुम ऐसी बदली भी नहीं थी...

यवा, बताओ मुझे, वह अन्य कौन है...

मैं जैसे बदल रहा हूँ। कुछ और ही होता जा रहा हूँ। मैं नहीं जानता कि क्या बदल रहा है; पर कुछ फर्क हो गया है जरूर। पहले की तरह भागना-दौड़ना और यवा के साथ ऊद्यम करना अब उतना ही नहीं सुहाता, और यवा में भी जैसे उसका उतना आग्रह नहीं है। अब मुझे यही अच्छा लगता है कि यवा के आस-पास कहीं निकट ही रहूँ, भूख होने के समय यवा को लेकर घूमने के बजाय वहीं पर खाने को फल-फूल ले जाऊँ, यवा के लिए एक बड़ी-सी कन्दरा बना दूँ और उसके आस-पास फल के पौधे लगा दूँ, जिससे दूर जाना ही न पड़े... और यवा भी मानो यही चाहती है, जैसे कन्दरा के बनने में उसका मुझसे भी अधिक आग्रह है - वह उसके भीतर बैठकर दिन में रात के सपने देखना चाहती है...

वही तो शायद सर्दी की धुन्ध की तरह उसकी आँखों में छाया और जाया करते हैं, जमा और घुला करते हैं... पर क्या चीज़ है वह जिसकी माँग उस धुन्ध के पीछे यवा की आँखों में झलक जाया करती है, कौन है वह मेरे अतिरिक्त, जिसकी चाह यवा करती जान पड़ती है...

अक्सर बादल छाये रहते हैं, कभी-कभी पानी भी बरसा करता है। यवा अनमनी-सी कन्दरा में पड़ी रहती है, और मैं अनमना-सा आकश की ओर देखा करता हूँ। कभी बादल घने होकर काले पड़ जाते हैं, कभी छितराकर उजले हो जाते हैं, ओर थोड़ी-सी धूप भी चमक जाती है। समझ नहीं आता कि मेरे इस अपने दो जनों के उद्यान पर क्या बदली छा गयी है जो हम ऐसे हो गये हैं। यवा मुझे अब भी उतनी ही अच्छी और अपनी लगती है; वह भी शान्त विश्वास से आकर मेरे द्वारा सहलाये जाने के लिए अपनी ग्रीवा झुकाकर बैठ जाया करती है; फिर भी जैसे उसकी आँखों की उस धुन्ध में अस्पष्ट-सा दीख पड़नेवाला आकार हर समय हमारे बीच में बना रहता है...

और कभी यवा एकाएक थकी और खिन्न हो जाती है, कभी उसका जी कैसा होने लगता है, कभी उसके पीड़ा होने लगती है... मुझे समझ नहीं आता कि मैं क्या करूँ कि वह फिर पहले-जैसी हो जाये... मुझे कुछ भी समझ नहीं आता, कुछ भी अच्छा नहीं लगता...

ओ तू-मेरे और यवा के बनानेवाले, मुझे बता कि क्या करूँ, यवा को कैसे सान्त्वना दूँ। कैसे शान्ति पहुँचाऊँ... मुझे बता, कैसे उसका दर्द दूर हो, कैसे वह उठे, कैसे वह मुझे जाने...

यवा भीतर बैठी है और रो रही है। मैं उसे बाहर लाना चाहता हूँ, धूप में बिठाना चाहता हूँ, कोई बूटी खिलाना चाहता हूँ जिससे उसे कुछ चैन हो, पर वह निकलती नहीं, उसे कन्दरा का अँधेरा और एकान्त ही पसन्द है, वहीं की गीली मिट्टी कुरेदकर कभी-कभी वह खा लेती है, यही उसे अच्छा लगता है... मुझसे सहा नहीं जाता यह मेरा जी न जाने कैसा होता है, पर वह मेरा पास रहना भी नहीं सह सक सकती, वह मुझे अपने से दूर रखना चाहती है, वह कन्दरा के अन्धकार में मेरी भी दृष्टि से छिपना चाहती है-बल्कि मेरी ही दृष्टि से... उफ़-कुछ समझ नहीं आता...

ओ तू मेरे और यवा के बनानेवाले, मुझे बता कि मैं क्या करूँ... यहाँ बाहर बेबस और अकेला बैठकर बादल के टुकड़े गिनने से तो कुछ नहीं होगा; बता कि उसके अकेलेपन में और उस वेदना में मैं कैसे काम आऊँ...

अँधेरे में शायद मैं सो गया था।

एकाएक एक बड़ी भेदक चीख़ सुनकर मैं उठकर भीतर कन्दरा में दौड़ने को हुआ; किन्तु क्या यह चीख यवा की थी? वैसी चीख तो मैंने यवा के मुँह से कभी नहीं सुनी थी... क्षण ही भर बाद वह फिर आयी - नहीं, यह यवा की नहीं हो सकती... एक बार और-हाँ, यह यवा की पुकार है शायद-

यवा ने सहसा धीमे, दर्द-भरे स्वर में पुकारा, “आदम!” मैं दौड़कर भीतर गया और स्तम्भित खड़ा रह गया। यवा ने सिमटकर मुँह फेरते हुए सकुचाये-से स्वर में कहा, “आदम, यह क्या हो गया है...”

मैं समझा नहीं, लेकिन एकाएक मैं जान गया, साँप झूठा है, झूठा है, मेरे भीतर धक्-धक् करनेवाली शक्ति ही सच है, बनानेवाली है; और एकाएक मैं इस सब कुछ के बनानेवाले का नाम भी जान गया जो साँप कहता था और कोई जान ही नहीं सकता क्योंकि वह है नहीं - स्रष्टा! मैंने जान लिया है कि स्रष्टा हूँ... ओर मैंने पुकारकर कहा, “यवा, ठहरो, मैं जान गया हूँ कि स्रष्टा को छिपाकर ही जिया जा सकता है, सबसे छिपकर ही उससे मिलना सम्भव है...

मैं एकाएक बाहर दौड़ गया, अँधेरे में ही मैंने सेमल का पेड़ खोजकर उसके ढेर-से फूल तोड़कर एक लता की छाल में गूँथकर बाँध लिये; लौटकर वह आवरण यवा के और उसकी छाती पर चिपटकर पड़े हुए मेरे प्रतिरूप एक अत्यन्त छोटे-से आदम के ऊपर ओढ़ा दिया।

यवा ने सिहरकर कहा, “हाँ, मेरे आदम, इसी तरह गुंजलक से मुझे बाँध दो, छा लो समूचे पेड़ को, कि कुछ भी न दीखे-एक फुनगी तक नहीं। केवल फल-केवल फल...”

और छाती से मेरी सृष्टि को चिपटाये हुए और सब तरफ से आवृत यवा की हँसी से चमक गये दाँत देखकर मैंने सदा के लिए जान लिया कि साँप झूठा है; कि स्रष्टा है, कि एकता है...

(कलकत्ता, फरवरी 1939)