आदिवासी साहित्य के बारे में / प्रताप सहगल
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों से लेकर अभी तक दलित साहित्य की चर्चा मुखर रही है। भले ही यह चर्चा मराठी से चल कर हिंदी, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, गुजराती और अन्य भाषाओं तक पहुँची हो, लेकिन चर्चा है। इसी के साथ जुड़ा नारी-साहित्य का प्रश्न और अब चर्चा के केंद्र में है आदिवासी साहित्य। पिछले पच्चीस वर्षों में जिस तेज़ी से इन तीनों धाराओं का साहित्य सामने आया है और आ रहा है, उसने कई तरह की बहसों को जन्म दिया है।
इन तीनों ही धाराओं की एक ख़ास बात यह कि वह जन्मना-वंचितों का साहित्य है। वंचितों के बरक़्स वे लोग हैं, जिनके पास सब कुछ है, संविधान के स्तर पर भले ही शाब्दिक समानता क़ायम हो गई हो, लेकिन सामाजिक-व्यवहार के स्तर पर असमानता बनी हुई है। अलग-अलग प्रदेशों, वर्गों या समुदायों में असमानता के स्तर भिन्न हो सकते हैं, लेकिन असमानता है। असुरक्षा का भाव भी इन तीनों धाराओं के लोगों में है। यह सत्य है कि इनके साहित्य को कुछ बौद्धिक लोगों ने अपने सामाजिक-विमर्श का आधार बनाया है। राजनीतिक स्तर पर भी यह विमर्श गठजोड़ तथा उठा-पटक के रूप में जारी है। सत्ता का खेल है वह। सत्ता के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ने के औज़ार अलग हैं। यहीं प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या वही औज़ार साहित्य की लड़ाई में काम आ सकते हैं या कि साहित्य की लड़ाई के लिए किन्हीं अलग औज़ारों की ज़रूरत होती है और अगर होती है तो वे औज़ार क्या और कैसे हैं या कैसे हो सकते हैं? क्या ऐसे औज़ारों की तलाश की गई है, जिनसे मूल्यांकन की कोई अलग प्रक्रिया बने!
इसी के साथ एक अन्य बात की ओर संकेत भी ज़रूरी है कि दलित, नारीवादी एवं आदिवासी तीनों ही अपने-अपने जिस संसार की रचना करते हैं, वह परंपरावादी या कहें पुरुषवादी एवं सवर्णवादी संसार के प्रतिसंसार के रूप में ही उभरकर सामने आता है। नारीवादी चिंतन के रूप में सिमन दि बऊआ ने कभी नारीवादी विमर्श खड़ा किया था, जो पुरुषवादी विमर्श के बरक़्स खड़ा होता हुआ ऐतिहासिक एवं जीवविज्ञान के सिद्धांतों की चर्चा करता हुआ अपना एक 'थीसिस' देता था। भारतीय संदर्भों में इन धाराओं ने स्थापित थीसिस के बरक़्स एंटी थीसिस पेश किया है, जो अंततः सिंथेसिस की स्थिति तक पहुँचने की संभावना रखता है। यह भी अलग प्रश्न है।
यहाँ कुछ बातें आदिवासी लेखन के संदर्भ में की जा सकती हैं। हाल ही में साहित्य अकादेमी ने आदिवासी साहित्य को केंद्र में रखते हुए एक दिवसीय सम्मेलन का आयोजन किया। इस आयोजन के साथ युद्धरत आम आदमी की संपादक रमणिका गुप्ता भी जुड़ी हुई थीं। आयोजन की विशिष्टता यह थी कि आदिवासी साहित्य एवं आदिवासी लोगों की स्थिति एवं सामाजिक समस्याओं पर चर्चा करने के लिए आदिवासी लेखकों एवं कुछ बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया गया। अध्यक्षता महाश्वेता देवी कर रही थीं, जिन्हें आदिवासी लोगों का सालिसिटर जनरल कहा गया। वक्ताओं में अधिकांश आदिवासी वे थे, जो कहीं न कहीं 'तथाकथित' अच्छे पदों' पर काम कर रहे हैं। इन सभी वक्ताओं में दो तरह के आब्सेशन ख़ास तरह पर उभरकर सामने आए। पहला यह कि आदिवासी साहित्य एवं संस्कृति ही प्राचीनतम साहित्य एवं संस्कृति है और यही सबसे श्रेष्ठ भी है। यह आब्सेशन कोई नई बात नहीं है। हर वर्ग, समुदाय, समाज और देश आब्सेशन से किसी न किसी रूप से ग्रस्त है। भारतीय थोड़े ज़्यादा हैं। जितने पुरातनपंथी, उतने ज़्यादा। इसकी पड़ताल बाद में करेंगे। पहले दूसरे आब्सेशन की बात करें। दूसरा आब्सेशन साहित्य अकादेमी एवं रमणिका गुप्ता कि अतिशय प्रशंसा का था। अकादेमी की प्रशंसा कुछ ज़्यादा, रमणिका गुप्ता कि थोड़ी कम। रमणिका गुप्ता व्यक्ति हैं, संस्था नहीं। यह बात दीगर है कि वे व्यक्ति होकर भी संस्था जितना काम कर रही हैं, इसलिए उनके बारे में कहे गए प्रशंसात्मक वाक्य नहीं अखरे, लेकिन साहित्य अकादेमी की जो धुआँधार प्रशंसा कि गई, वह यह प्रश्न उठाती है कि क्या आदिवासी लेखकों की दौड़ साहित्य अकादमी तक ही है। या कि वे साहित्य एवं सांस्कृतिक चिंतन के माध्यम से सामाजिक-परिवर्तन में कोई महत्तवपूर्ण भूमिका अदा करना चाहते हैं? साहित्य अकादेमी को जो काम वर्षों पहले करना चाहिए था, वह अब कर दिया, बल्कि कहा जाए कि अकादेमी से करवा लिया गया, तो कौन-सी ऐसी उथल-पुथल हो गई कि आदिवासी लेखकों ने पंक्तिबद्ध होकर अकादेमी एवं उसके सचिव को इतना यशोगान किया। इसे आदिवासी लेखकों का भोलापन माना जाए या कुछ और! क्योंकि इसी प्रश्न की पड़ताल के बहाने बहुत सारी और बातें भी खुल सकती हैं।
आदिवासी साहित्य एवं संस्कृति जैसे प्रश्न पर क्या एक दिवसीय सेमिनार आयोजित करना मात्र रस्म-अदायगी नहीं बन गया! आदिवासी लेखकों को सभी सुनना चाहते थे, उनके कहे पर कई लेखक अपनी बात भी रखना चाहते थे। वैसे भी दिल्ली में लेखकों, संस्कृति-कर्मियों एवं बुद्धिजीवियों का बड़ा जमावड़ा है। पूरी चर्चा में उनकी शिरकत मात्र एक श्रोता के रूप में ही बनी रही, तब चर्चा के बिंदु रेखांकित नहीं हो सके, न कोई दिशा बन सकी, तो इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं। बहरहाल।
आदिवासी लेखकों ने कुछ बातें सामने रखीं। कुछ समान, कुछ सामान्य। एक लेखक का मानना था कि आदिवासी लेखक ही असली भारतीय हैं और उन्हें 'जनजाति' के रूप में रेखांकित करना ग़लत है। संयोगवश अकादेमी ने बैनर 'जनजाति सम्मेलन' का ही लगा रखा था, जबकि चर्चा आदिवासी साहित्य एवं संस्कृति पर हो रही थी। आदिवासी लेखक का मानना था कि वस्तुतः 'जाति' शब्द भारतीय मानस और ख़ास तौर पर सवर्ण भारतीय मानस के साथ इतना जुड़ गया है कि वह 'जाति' से अलग हटकर सोच ही नहीं पाता। यह भी सत्य है कि आदिवासियों को जिस तरह जातिसूचक शब्द दिए गए हैं, वे बेहद अपमानजनक, विरोध के लायक और छोड़ने के काबिल हैं। अनेक जातिसूचक शब्द भले ही अपनी मूल अर्थवत्ता खो चुके हैं या जिस व्यवस्था के अंतर्गत उन्होंने पहचान पाई, वे स्थितियाँ बदल चुकी हैं और अनेक प्रगतिगामी चिंतनशील लोग उनका प्रयोग मात्र ऐतिहासिक महत्तव के लिए ही करते होंगे नाकि अपना वर्चस्व स्थापित करने या दूसरों को हीन-भाव का बोध देने के लिए। शहरों एवं महानगरों में स्थितियाँ बदली हैं। भले ही आर्थिक, स्थानीय या अन्य कोई दबाव हो, सोच बदली है। संकट सोच के बदलाव का नहीं, पूरी मानसिकता के बदलाव का है। आदिवासी लोगों को सम्बोधित किए जाने वाले जातिसूचक शब्दों के पीछे छिपी मानसिकता भी कहीं इसी मानसिकता का हिस्सा है। यहाँ एक मिसाल देना ज़रूरी है। एक लेखक ने यह भी बताया कि आदिवासियों में पारदी, साँसी या उठाईगिरी जैसी जातियाँ हैं, जिन्हें माँ के पेट से पैदा होते ही चोर बना दिया जाता है और वे जीवन भर चौर्य-कर्म करने के लिए अभिशप्त हैं। उनके बदलाव के सभी द्वार जन्म से ही बंद कर दिए जाते हैं, लेकिन वे लोग इतने मानवीय हैं कि वे चोरी किया हुआ सामान भी मिल-बाँट कर खाते हैं। यहाँ सीधा-सीधा प्रश्न अपराध और मानवीय संवेदना से जुड़ जाता है। मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह तथ्य पचा पाना संभव नहीं है कि चोरी करके मिट-बांट कर खाने से चोरी करना, चोरी करना नहीं रह जाता याकि वह एक अपराध नहीं रहता। किसी भी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय को इस सीमा तक धकेल देना कि 'चोर का बेटा चोर' ही कहलाए एक बहुत बड़ा सामाजिक अपराध है। एक सामूहिक अपराध। एक अभिशाप भी। लेकिन इस अपराध का सहारा लेकर दूसरे अपराध को तार्किक दृष्टि से मानवीय आधार प्रदान करना भी कोई हल नहीं है। इस तरह की सोच से दिशा कहाँ मिलती है। ज़रूरत इस स्थिति एवं व्यवस्था से संघर्ष की है नाकि प्रचलित अपराध को दूसरे अपराध के सहारे न्यायसंगत ठहराने की।
एक दूसरे वक्ता ने कहा कि आदिवासियों से उनके जंगल छीने जा रहे हैं। उन्हें पेड़ काटने से रोका जाता है, जबकि उन्होंने ही पेड़ लगाए हैं, जंगल उगाए हैं। तब अगर जमींदार भी यही तर्क देकर मज़दूरों, किसानों का शोषण करता है कि यह ज़मीन उसकी है और वह जैसा चाहे, उसका उपयोग करेगा और उस काम करने वाले लोगों पर भी उसी का अधिकार है, तब वह भी ग़लत कहाँ है। इस तर्क के चलते क्या आदिवासियों को जंगलों को अंधाधुंध काटने का अधिकार दे देना चाहिए! पेड़ उगाना हमारा कर्तव्य ज़रूर है, काटना नहीं। पर्यावरण में जिस तरह से असंतुलन पैदा हो रहा है, उसके चलते यह तर्क सही नहीं लगता। उनकी संस्कृति की भी चर्चा हुई। उनके लोक-गीत, नृत्य, संगीत एवं फल तोड़ने से पूर्व तथा अन्य कई क्रियाओं से पूर्व अपने आराध्य देव से क्षमा-याचना करता है आदि-आदि। आदिवासी संस्कृति के घटकों पर अलग से चर्चा कि जा सकती है, लेकिन संस्कृति भी कोई स्थिर मूल्य नहीं है। संस्कृति की सत्ता में भी बदलाव आते हैं। शहरों में भी, गाँवों में भी, देशों में भी तो इस तरह का आब्सेशन पालना भी सही नहीं लगता। आदिवासी संस्कृति के जिस रूप की स्थापना फ़िल्मों ने की है, उससे आदिवासियों को बड़ी चोट पहुँची है। उनकी संस्कृति की पहचान हुई ही नहीं है। यह प्रक्रिया आदिवासियों के शहरों में बसने तथा शहरी लोगों के आदिवासी क्षेत्रों में जाने से ही तेज़ हो सकती है। अच्छा हो कि अगला कोई सम्मेलन आदिवासी क्षेत्र में किया जाए और शहरों के लेखक, चिंतक वहाँ जुटें।
आदिवासियों की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही झारखंड बना, छत्तीसगढ़ बना। झारखण्ड के मुख्यमंत्री मरांडी स्वयं आदिवासी हैं और वे बिरसा मुंडा कि छवि सामने लाने की कोशिश में लगे हैं। आदिवासियों के संघर्षों की दास्तानें सामने नहीं आई हैं, इसमें दोष सभी का है। आदिवासी स्वयं इस दोष से मुक्त नहीं हो सकते। असल में जब भी कभी दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य या अन्य कोई ऐसी ही चर्चा शुरू होती है तो साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि इन्हें 'मुख्य-धारा' में लाना होगा। भई यह मुख्य-धारा है क्या बला! कम से कम अपनी समझ में यह बात आज तक आई नहीं। यह अकादमियाँ, यह संस्थान मुख्य-धारा हैं? या बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ? दिल्ली ही मुख्य-धारा है? या फिर मुख्य-धारा ब्राह्मण-ठाकुर-कायस्थ की कोई धुरी है? मुख्य-धारा हिन्दी में हिन्दी मातृभाषी लोगों की है या कि हिन्दी में हिंदीतर मातृभाषी लोगों की? याकि इन दोनों कि कोई मिला-जुला रूप है? वस्तुतः 'मुख्य-धारा' एक मिथ है। सभी धाराएँ अपनी-अपनी तरह से काम कर रही हैं। साहित्यकार कितना ही धाराबद्ध क्यों न हो, रचना के क्षण में वह नितांत अकेला ही होता है। उस पर उस समय कितने ही दबाव क्यों न हों, अंततः निर्णय उसे ही लेना होता है। यहीं विषय एवं विषयी में तालमेल होता है। ऐसे मुख्य-धारा कि बात करना या ऐसे प्रश्न उठाकर दलित लेखकों की तरह से आदिवासी लेखकों को भी कहीं इस अपराध-बोध से ग्रस्त कर देना ठीक नहीं है कि हाँ लिखो-लिखो, यह भी एक धारा है, लेकिन इसे मुख्य-धारा में अभी आना है। इसके लिए कोशिश करते रहो। मुख्य-धारा किसकी है? कौन है इसका अलंबरदार! इस चक्कर में पड़ने से बेहतर है अपने सच को खोचना, अपनी अस्मिता कि रक्षा करना, अपनी अर्थवत्ता के प्रति सजग रहना। उसे बार-बार टटोलते रहना, माँजते रहना।
आदिवासी भाषाओं का प्रश्न भी सामने आया। भाषा व्यवहार से ही विकसित होती है, इसमें दो राय नहीं है। हिन्दी के विकास के संदर्भ में आयोगों और समितियों का हश्र हम देख चुके हैं। कौन कहेगा कि आदिवासी भाषाओं का विकास न हो। बाज़ार-तंत्र, सांस्कृतिक पहचान, अभिव्यक्ति का प्रश्न, आदि से टकराते हुए ही इन भाषाओं का विकास संभव हो सकता है। उसके पढ़ने वालों की संख्या, उसका जीवन, जगत एवं व्यापार में उपयोग आदि ऐसी बातें हैं जिन पर खुले मन से विचार किए बिना कुछ हो ही नहीं सकता। हिन्दी का उदाहरण देकर कहूँ तो नौकरशाहों पर अंग्रेज़ीदाँ राजनेताओं की चली होती तो आज शायद हिन्दी का नामलेवा भी कोई न होता, लेकिन जन-दबाव के चलते आज बोलचाल की बहुसंख्यक भाषा हिन्दी ही है। इस संदर्भ में आदिवासी लेखक, विचारक स्वयं सोचें और योजनाबद्ध तरीक़े से कार्यवाही करें।
आदिवासी साहित्य के बारे में एक महत्तवपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि यह मामूली लोगों का साहित्य है। दलित साहित्य भी इसी दायरे में रखा जा सकता है। 'मामूलियत' को बचाए रखना आज पहले से कहीं ज़्यादा मुश्किल है। मामूलियत कोई अजायबघर की वस्तु नहीं, बल्कि एक जनोन्मुखी मूल्य है। दिक्कत यह है कि आज मामूली लोग और मामूली शब्द हाशिए पर हैं। धर्म, संस्कृति के बडे़-बड़े शब्दों, धर्माचार्यों के बड़े शब्दों तथा नैतिकता के बड़े शब्दों के सामने मामूली शब्द खो गए हैं। आदिवासी साहित्य मामूली लोगों का साहित्य है, मामूली शब्दों में ही यह मुखरित हुआ है, लेकिन प्रश्न बड़े उठाता है। साथ ही चेतावनी के रूप में यह भी जोड़ देना आवश्यक न होगा कि मामूलीपन के फेर में हम शब्द के तीसरे आयाम को भी भूलें नहीं। तीसरा आयाम बड़ा मारक होता है। इस सम्बंध में विस्तार से फिर कभी।