आधार कार्ड आधारित भावना का कोटाराज / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :16 फरवरी 2018
'पद्मावत' की तरह मलयालम भाषा में बनी फिल्म पर भी एक समुदाय की भावनाओं को भड़काने का आरोप लगा है और अब उसका प्रदर्शन एक विवाद बन गया है। उधर साड़ी पहनने को लेकर दिए गए फैशन डिज़ाइनर सब्यसाची के एक बयान पर भी विवाद प्रारंभ हो गया है। सुना है कि उन्होंने क्षमा याचना भी कर ली है। आजकल हर व्यक्ति को पहले लिखी हुई क्षमा याचना अपने साथ लिए चलना चाहिए। साड़ी का कमाल यह है कि उसके पहनने से शरीर की कमियां छुपाई जा सकती हैं। साड़ियां विविध ढंग से बांधी जाती हैं। महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र में साड़ी शहरी क्षेत्रों से अलग ढंग से बांधी जाती है। बंगाल में उल्टे पल्ले को महत्वपूर्ण माना गया है। कांजीवरम को अलग ढंग से पहना जाता है।
गौरतलब यह है कि भावनाओं के आसानी से आहत होने के इस दौर में यथार्थ जीवन में भावना का अभाव हो गया है और अब हृदय में भावना को जगाने के लिए प्रयास भी करना होता है। हमें स्वयं से कहना होता है कि अब हमें दुखी दिखना है, सप्रयास आंसू लाना है या अब हमें मुस्कराना है। कहां कितना मुस्कराना है, यह भी सोचना पड़ता है। कुछ अवसरों पर दो सेंटीमीटर मुस्कान देना मुनासिब समझा जाता है, कहीं दो इंच मुस्कान प्रगट करना जरूरी होता है। हाल ही में संसद में हंसने के कारण एक नेता को विवाद में फंसना पड़ा। उस बेचारी की मुसीबत यह थी कि हुक्मरान लगातार हास्यास्पद बयान दे रहा था। झूठ का राष्ट्रीयकरण हो चुका है। मीर तक़ी मीर की एक रचना इस तरह है, 'अय झूठ आज शहर में तेरा ही दौर है, शेवा (चलन) यही सभी का, यही सब का तौर है, अय झूठ तू शआर (तरीका) हुआ सारे खल्क (दुनिया) का, अय झूठ तेरे शहर में ताबिई (अधीन) सभी मर जाएं, क्यों न कोई वे बोले न सच कभी'। एक बार एक शवयात्रा में भाग लेते समय सबकी आंख बचाकर एक व्यक्ति को अपनी आंख में प्याज का रस डालते देखा गया, क्योंकि उसे आंसू बहाना था। 'पाखी' में प्रकाशित खाकसार की कथा 'एक सेल्समैन की आत्म-कथा' में इसका पूरा विवरण दिया गया है। सेल्समैन को प्रशिक्षण देते समय सिखाया जाता है कि उसे कब कितना मुस्कुराना है। किसी भी डॉक्टर के प्रतीक्षा कक्ष में मरीजों के साथ ही दवा के सेल्समैन भी बैठे होते हैं। उन्हें आसानी से चिह्ना जा सकता है। उन्हें धैर्य रखने का प्रशिक्षण दिया जाता है। उनके जीवन का अधिकांश समय अपनी बारी आने के इन्तजार में गुजर जाता है। उनमें किसी के मन में फिल्म यहूदी के गीत की एक पंक्ति अवश्य गूंजती होगी, 'तू आए न आए, हम करेंगे इंतजार, यह मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर, लोग माने या न माने, हम मानेंगे जरूर'।
यह दौर विवाद एपेडेमिक का दौर है। यह विवाद वायरल युग है। इस दौर में एक सबक सकारात्मक भी है कि बोलने के पहले हजार बार सोचो और हर कदम सोचकर उठाना चाहिए जैसे नवविवाहिता को सीधे पैर से चावल से भरे लोटे को ठोकर मारनी होती है। कुछ समुदायों में दुल्हन से बाएं पैर के प्रयोग का आग्रह किया जाता है। इसी तरह आर्थिक घपलों का भी दौर तीव्र गति से चल रहा है। वह जमाना गया जब घपले के आरोप मात्र से एक सरकार सत्ता से वंचित हो गई। मौजूदा की तो गिज़ा ही घपले हैं। स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्म 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' में एक महिला अपने घर के कामकाज के लिए ऑर्डर देकर बच्चे की कदकाठी वाला रोबो बनवाती है। कुछ समय बाद महिला को कैंसर हो जाता है और उसका इलाज प्रारंभ होता है। रोग इतना अधिक फैल गया है कि निरोग होने की संभावना क्षीण है। एक दिन उस औरत को तीव्र दर्द उठता है। उस समय बालक के आकार में बनाए गए रोबो की आंख में आंसू आ जाते हैं। फिल्मकार का संदेश स्पष्ट है कि मशीनी रोबो का मानवीकरण संभव है और मनुष्यों का रोबोकरण हो रहा है। मनुष्य में भावनाशून्यता बढ़ रही है। 'मेट्रिक्स' नामक शृंखला में कहा गया है कि भविष्य में कम्प्यूटर मनुष्य को अपनी बैटरी बना लेंगे। मनुष्य के ईंधन पर ही कम्प्यूटर राज्य की स्थापना होगी। क्या भावनाएं भी आधार कार्ड देखकर दी जाएंगी और भावनाओं के लेन-देन का व्यापार भी खूब पनपेगा?