आधा कोस / मुक्ता

Gadya Kosh से
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सफ़ेद पगडंडी रात में नदी जैसी ठंडी, सर्द दिखती। बंसवारी में जुगनूँ चमकते, सायं-सायं कंटीली हवा शोर करती, बाँस के ऊँचे पेड़ टकराते। प्रेतों जैसे ये भयानक झुरमुट, टिमटिमाती रोशनी में भूतों जैसे हिलते-डुलते और रह-रह कर टकराते। पौ फटते ही पगडंडी के दोनों किनारों पर कुचली हुई घास की पतली लकीर चमकने लगती। घास की यह पतली लकीर, इक्के में जुती हुई घोड़ी के पैरों तले बार-बार कुचल जाने के कारण बन गई है। एक चीर फाड़ घर के अलावा इस जगह की कोई विशेष पहचान नहीं है।

मरियल घोड़ी इस रास्ते से भली भाँति परिचित है, फिर भी पगडंडी चिकनी होने के कारण पैर बार-बार फिसल रहा है।

हिर्रss हिटss हिटss

सड़ाक...

चाबुक लगते ही घोड़ी तिलमिलाई और ज़ोर से दुलत्ती झाड़ी।

खड़क... ।

लाश वाला बक्सा एक ओर झूलनें लगा।

“ ससुराss ।“ रामसुमेर नें बीड़ी सुलगा ली।

वह बुदबुदाया, “ अबहीं आधा कोस बाकी हौs।“

पिछले पंद्रह सालों से ठीक इसी जगह पर आकर रामसुमेर बुदबुदाता है, “ अबहीं आधा कोस बाकी हौss ,” कोई भयानक सपना देखकर, कभी-कभी नींद में भी बड़बड़ाता है। जब उसके पीछे लटका काठ का झूलता बक्सा बिलकुल खाली हो जाता। कटी-फटी, सड़ी-गली या साबुत कोई लाश नहीं। दिहाड़ी खाली गई। इक्का हल्का होकर हवा में झूलने लगता, हाँफता हुआ, नींद में रामसुमेर चिल्लाता, “ नाहीं-नाहीं, अबहीं आधा कोस बाकी हौs।“

मालती झकझोर कर उठाती, “ ए जीs, ईs आधा कोस, आधा कोस, आप क्या कहते हैं ?”

रामसुमेर हाँफता हुआ, भौचक्की दृष्टि से मालती की ओर देखता, जैसे एक बहुत लंबे सफर से अभी-अभी लौटा हो। मालती अपने काम में जुट जाती। बड्बड़ाती हुई, चिंताओं को परोसती जाती, “ आज भर का राशन है, राशन क्या थोड़े से चावल भर हैं, मांड भात पका रही हूँ, खाकर जाना।“

“ कोई उधार भी नहीं देता, तुम्हारा धंधा भी तो ऐसा है, कोई मुझे पास भी नहीं फटकने देता। मैं करमजली, भाग फूट गए मेरे।“

रामसुमेर की इज्जत-आबरू, रोजी-रोटी सभी कुछ है उसका धंधा, लाशों का धंधा। लाश कटी-फटी हो, सड़ी-गली या फिर लाश पर कीड़े रेंग रहे हों, रामसुमेर को लाशों से डर नहीं लगता, लेकिन पहली बार रामसुमेर नें जब एक क्षत-विक्षत लाश रेलवे की पटरी से उठाई थी तो लगा था, जैसे भटकटैया के जंगल के बीच खड़ा हो गया हो। हाथ लकवा के मरीज जैसे सुन्न हो गए थे। पूरे पाँच दिन रामसुमेर का शरीर तपा था बुखार में। धीरे-धीरे हाथों में ताकत आती गई। खरोंचों भरे चेहरे आत्मीय बनते गये। उघड़ी आँखों के सफ़ेद कोये रामसुमेर को अजीब-सा सुकून देने लगे।

सफ़ेद फैला हुआ आकाश, जहाँ वह प्रश्नमुक्त है, कहीं कोई अपराध बोध नहीं है।

उसे याद है, पहली बार लावारिस लाश की चिता से उठती लपटें, उसके मन को भी धुआँ कर गई थी, पिघल-पिघल कर आँसू बहे थे, अपने किसी बहुत करीबी के स्पर्श को महसूस कर रहा था वह, कुल दो लाशों के दाह-संस्कार के बाद ही वह इस लिजलिजी भावुकता से मुक्त हो गया था। फिर मुर्दे को पत्थर में बांध कर पानी में डुबो देना ही फायदेमंद लगा। घाटे का सौदा है दाह-संस्कार। कुल सौ रुपये मिलते हैं, लावारिस लाश के क्रिया कर्म के लिए। सौ रुपये। आठ दिन की दारू और रोटी।

पहली लाश डुबोते समय ठिठका था रामसुमेर, यह सब कहीं पाप तो नहीं ? रामसुमेर नें सिर को झटक दिया था। जिंदगी भर रोटी के चक्कर में न जाने कितने पाप किए होंगे इस मुर्दे नें, अब चिता में जलकर इसका कटा-फटा शरीर कौन सा सुख भोग लेगा ? उसके घर दो जून चूल्हा जलेगा तो सारा पुण्य इस मुर्दे के खाते में ही जायेगा। रामसुमेर अपनी गणित से संतुष्ट हो गया था। उस दिन लाश को बहाने के बाद वह तृप्ति का अनुभव कर रहा था।

खड़कss !!!

लाश वाला बक्सा फिर एक ओर झूलने लगा। बंसवारी से छन-छन कर धूप आ रही थी। लाल ईंटों वाले रंग का छोटा-सा सरकारी पोस्टमार्टम घर चमकने लगा था।

“ राम-राम भैया। आज तss कसss कss बोहनी भइल हौs ?

होंठ दबा कर अंगद मुस्कुराया।

“ हाँs दस रोज झूरे बीतलs। बीड़ी हौss ?”

इक्के से उतरते हुए रामसुमेर नें कहा।

“ आजs तs जुड़ीs नs भईया ?”

रामसुमेर के शरीर में झुरझुरी-सी हुई, अंगद के शब्द घंटों से बजने लगे और बयार में महुए की खुशबू घुल गई। “ कुल्हड़ में परोसी हुई महुए की खाँटी शराब। दस दिन से गला सूख रहा है। अद्धे की कौन कहे, एक बीड़ी के भी दस टोंटे बना कर पीने पड़े हैं। आज जाकर ऊपर वाला मेहरबान हुआ है।“

“ डाक्टर बाबू, अभी तक आये नहीं ?”

“ केss जानेs,” एक लंबी साँस खींचकर अंगद धुएँ के छल्ले बनाने लगा।

डाक्टर बाबू।

ऊँची कद काठी, धँसी आँखों और झूलते कंधों वाला डाक्टर बाबू। अँग्रेजी शराब की बोतल लिए बरामदे में बैठा होगा। बोतल खाली हो चुकी होगी। यह भी हो सकता है, अभी थोड़ी बची हो। रामसुमेर का गला फिर सूखने लगा।

अँग्रेजी शराब वाली बोतल और कुल्हड़ वाले देशी ठर्रे की यात्रा के बीच, रामसुमेर अनगिनत बार इंद्रजालिक नायक की भूमिका निबाहेगा। उसके लंबे हाथ बार-बार आकाश तक उठेंगे, लौटते समय खुरदरी उंगली में अंटका होगा, केवल बीड़ी का एक सूखा टोंटा।

“ ससुरे...,” एक भद्दी सी गाली तैर गई रामसुमेर के होंठों पर।

“ क्यों पैदा होते हैं हम ? यही लाश बनने के लिये। साली औरत है या मर्द, कटी-फटी है या साबुत, कौन जाने, बस लाश है।“

“ हम... भीss कौन सेs जिंदाs हैंs ?”

“ बिना चढ़वले बहकत हऊss आss भईया ?”

रामसुमेर नें अंगद को देखा, जैसे नापने की कोशिश कर रहा हो।

“ नाहीं भई, चढ़ाने के बाद तो हम इंसान बनते हैं।“ डाक्टर बाबू, ऊहेss अपने डाक्टर बाबू, इंसान हैं कि नाहीं ?”

लंबे डील-डौल वाले डाक्टर बाबू, अंगद को दूर से ही आते हुए दिखाई दिये। डाक्टर बाबू कि लंबी परछाईं, कभी सीधी-सपाट गली जैसे तनी दिखाई देती है। कभी भीगी गौरैया के नर्म पंखों-सी ढुलकने लगती। डाक्टर बाबू, एक-एक कदम संभाल कर रखते, लेकिन जमीन की माप बार-बार धोखा दे जाती। बरसों की सधी हुई आदत होने के बावजूद डाक्टर बाबू के हिस्से की शराब अपना स्वभाव नहीं छोड़ पाई है। डाक्टर बाबू को अभी भी नशा खूब चढ़ता है, लेकिन कैसी भी कटी-सड़ी लाश हो, डाक्टर बाबू के हाथ मशीन जैसे चलते हैं, चेहरे पर कोई शिकन नहीं। ईमानदार भी हैं। एक-एक रिपोर्ट सही। गोली का घाव, बल्लम का घाव, छूरे या गँड़ासे का घाव, सब सही दर्ज करते हैं। कहीं कोई धांधली नहीं। बोली भी मीठी और चाय-पानी में भी पक्के। वाकई इंसान हैं डाक्टर बाबू।

आते ही डाक्टर बाबू नें काम शुरू कर दिया।

बीड़ी से उठता धुआँ अजीब-सी आकृतियों में बँटता जा रहा था। रामसुमेर और अंगद, दोनों की दृष्टि बंद दरवाजे पर अंटकी थी।

“ आधा घंटा हो गया होगा।“

“ अबहीं नाss हींss ।“

अंगद नें ऊँघते हुए कहा।

“ तनिs, सूरज देख... ।“

दोनों के चेहरे चमकने लगे।

“ चर्र ,” दरवाजा खुला। डाक्टर बाबू नें झाँक कर कहा, “ मुर्दा समेटो।“

रामसुमेर लपक कर अंदर घुसा।

चीख निकलते- निकलते रह गई.... ।

“ कैसा मरद है तू ? हाहाss हाs हाs । हंसी, पूरे मुरदाघर में फैलने लगी। काले सूजे होंठ। गर्दन पर पूरे डेढ़ इंच का गँड़ासे का घाव।

रामसुमेर की नसें तनने लगीं।

अंगद बेरुखी से अंदर आया।

“ अरेs !! ज़नानी ।“

आँखों में जुगुप्सा तैरी।

रामसुमेर अवाक खड़ा था।

अंगद ने काम शुरू किया। सिली हुई लाश को लपेटा, टिकटी से बांधा और इक्के की ओर ले चला। रामसुमेर यंत्रवत पीछे चला।

इक्के में बंधी फूल की लाश झूल रही थी।

“ फू... ल “

गदराए, साँवले शरीर वाली ठिगनी फूल। खुले दिन में तेज धूप-सी चुभने वाली फूल। प्यासी धरती जैसी, झमा-झम बरसते पानी को न्योतनें वाली फूल।

फूल के केवल एक बार आँख तरेर देने से समूचा रामसुमेर निर्वसन हो उठा था। अभी वह पथरीले पहाड़-सा नंगा खड़ा है।

“ नामर्द के साथ रहने वाली कोई और होगी, फूल ना रहेगी।“

“ तूने मुझे नामर्द कहा ?”

आगबबूला हो उठा था रामसुमेर।

“ नामर्द ना है तू ? मैंने तेरे साथ सात भांवरें घूमी हैं, कोई भाग कर ना आई हूँ। परधान के बेटे ने मेरे साथ वह सब कुछ किया, जिस पर केवल तेरा हक था। तुझे तो उसका गला काट लेना था।“

“ ... तू..., मेरे माँ-बाप सब परधान के हाथ बिके हैं…, लेकिन सुन ले..., फूल ना बिकी है, सुना तूने, फू...ल... ना बिकी है... ।

घूँसे-थप्पड़ों के बीच फूल की बात अधूरी रह गई थी।

“ जाने कैसे मरी होगी साली... ?”

अंगद ने धीरे से कहा। रामसुमेर का मन हुआ, आगे बढ़ कर अंगद का मुँह नोंच ले। उसके हाथ हवा में उछले। अंगद ने बीड़ी का आधा टुकड़ा बढ़े हुए हाथ में अंटका दिया। रामसुमेर ने बीड़ी वाले हाथ को तेजी से घूरा।

सर्द और खुरदुरे हाथ, जिन्हें केवल बीड़ी का टोंटा पकड़ने की आदत है।

दिन में रामसुमेर कटिया से लौटा, गाँव में सन्नाटा था। फूलमती लापता थी। बहुत दिनों बाद सुनने में आया कि परधान के उसी बेटे की रखैल बन गई है। तमतमाया था उस दिन रामसुमेर, बहुत चरित्तर दिखा रही थी ससुरी।“

उसके हाथ बढ़े थे आँगन में रखी कुल्हाड़ी की ओर। सामने दीवाल में अचानक फूल के मोटे होंठ उग आये थे। वह ज़ोर से खिलखिलाई थी। रामसुमेर तेजी से झपटा था। रामसुमेर के माथे पर पसीना चुहचुहाने लगा। ससुरी की लाश को दरिया में बहा कर पूरे एक बोतल दारू चढ़ाने के बाद ही मन को चैन मिलेगा।

अंगद नें रामसुमेर को घूरा। रामसुमेर की कछुये जैसी अंदर घुप्प हो जाने वाली आदत, अंगद को अखरती है।

अधिकतर तो लाश घर में भी सन्नाटा ही छाया रहता है। कभी-कभी रौनक छा जाती है। मजमा जुट जाता है। यदि कोई औरत की लाश हुई तो सारा नक्शा ही बदल जाता है। लिजलिजी सड़ी-गली न हुई तो गुप्तांगों पर हाथ फेरने की सीमा तक की भूमिकाएँ संपन्न होती है। लेकिन दो व्यक्ति बिलकुल निस्पृह रहते हैं, एक रामसुमेर और दूसरे डाक्टर बाबू। इन दोनों के लिये चीरफाड़ घर लुहार के लिये लोहे जैसा है।

हर्र..., हिट-हिट...

घोड़ी को एड़ लगा कर अंगद नें चुप्पी तोड़ी।

रामसुमेर नें ध्यान से घोड़ी को देखा।

टप... पटप... टप... आवाज गूंजनें लगी।

मन कुछ स्थिर हुआ।

“ खड़क, टिकटी एक ओर झूलने लगी। झुककर रामसुमेर नें हाथ बढ़ाया। पीठ में जोर की टीस उठी। हाथ फूल के सूजे हुए स्तनों से टकरा गये, सुलगती लकड़ी जैसे हाथ से छू गई हो, सारा बदन जलने लगा। मांसपेशियाँ तन गईं। फूल का वही बदन, जिसकी याद आते ही रामसुमेर के हाथ कुल्हाड़ी की ओर झपट पड़ते, और कभी पूरा शरीर लावे जैसा उफनता। रामसुमेर मालती के सूखे जिस्म को हड्डी की तरह चिंचोंड़ने लगता।

“ मुझे पता है औरत क्या चाहती है।“

“ क्या ?”

“ आकाश, पाताल, नदी, घर।“

“ आकाश, पाताल, पहेलियाँ बुझाती है तू।“

खिलखिलाई थी फूल। मुखड़ा और सलोना हो गया था।

“ अरे नहीं, यह सब कुछ नहीं ?”

“ फिर ?”

“ केवल गंध, टटके महुये की गंध----“ रामसुमेर के होंठों को धीरे से होंठों से छुआ था फूल नें।

“ आ...र्र...रां...ध... ।“

“ अरे। बड़ी सयानी है तू ?”

उस रात फूलमती रामसुमेर की बाहों में कुनमुनाई थी।

रामसुमेर अधीर हो उठा। उसने कनखियों से अंगद को देखा। अंगद धुएँ के छल्ले बना रहा था। नजरें बचाकर रामसुमेर नें फूल के होंठों को छुआ।

घाव की रगड़ हाथों को चुभी।

गँड़ासा गर्दन में धँसते ही फूल ज़ोर से चीखी होगी। यह भी हो सकता है, चीख होंठों में ही दब गई हो। किसके रहे होंगे ये हाथ, परधान के बेटे के ? न...हीं, अपनी जोरू का गला वह अपने हाथों काटेगा।

“ अपनी जोरू,” यह शब्द मन में झुरझुरी पैदा करने लगे।

रामसुमेर नें खुद को कठघरे में खड़ा महसूस किया। यदि फूल के साथ हुए बलात्कार का उसने विरोध किया होता, तो कम से कम फूल के आगे तो उसकी मर्दानगी साबित हो गई होती। हो सकता था, पूरा टोला एक हो जाता और घटना टल जाती।

पाप पुण्य के समीकरण में उलझा हुआ रामसुमेर अपने शापित जीवन के आंकड़े समेटने लगा।

ऐसा कौन-सा पाप किया था रामसुमेर नें ? जो धरती पर ही उसे प्रेतयोनि में भटकना पड़ रहा है। ऐसी कौन-सी सती सावित्री थी फूलमती....। परधान के बेटे की रखैल बनकर अपना चरित्तर तो उसने दिखा ही दिया।

रामसुमेर की नसें तनने लगीं, शरीर फिर झनझनाने लगा। बहुत तड़पाया है फूलमती नें रामसुमेर को। दरिया में नहीं बहायेगा वह फूलमती के शरीर को, चिता में सुलगता शरीर धुआंता रहे। तन की आग बुझने न पाये। रामसुमेर के चेहरे पर वहशी मुस्कान फैल गई।

“ ऐसा बुझाता है भईया, घाट आ गया।“

रामसुमेर की तंद्रा भंग हुई। दोनों बीड़ी फूँकने लगे।

“ क्या करना है, जल्दी बोल ?’ परिचित चेहरे देख कर घाट के डोम ने लापरवाही से पूछा।

“ लकड़ी कीनs… अंगद, अबेर होत हss…

रामसुमेर की दृष्टि सूर्य पर टिकी थी।

“ काss,” अंगद चौंका।

“ कौनों खास बात हौss ?”

“ बहस जिनss करss ।“

“ तनी सोंच लs, घाटे का सौदा हs ।“

“ अबेर होत हौss, सूरज ठंडा हो जाई।“

रामसुमेर ने आँखें तरेरीं। अंगद का साहस चुक गया।

चिता प्रज्वलित हो उठी।

सूर्य आग उगल रहा था।

काम क्रोध त लाभ च

पिंड संदूषणानि खट...

अस्फुट मंत्रध्वनि तैरने लगी।

लपटों के अंदर फूल का मोटे होंठों वाला, गोल चेहरा दमकने लगा। सुहाग सेज, माथे पर अठन्नी बिंदी, मोटे होंठों पर झूलती नथिया और माँग में ठसाठस भरा पीला सिंदूर।

विवाह-मंडप के नीचे बैठी, फूल का चेहरा रामसुमेर के आगे घूमने लगा।

लपटें धीरे-धीरे शांत होने लगीं।

फूल का शरीर फूल की तरह भभक कर राख होने लगा। खोपड़ी चमकने लगी। फूल का यह रूप बिलकुल नया था। रामसुमेर रिक्तता से घिरता जा रहा था। इतने वर्षों से वह इसी फूल को बाहों में जकड़े था। फूल का सूजा हुआ चेहरा, कोटरों में धँसी आँखें, टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियों वाले हाथ, सभी एक-एक कर झड़ रहे थे।

“ हा हाsss… हा हाssss “

ऐसा लगा फूल ज़ोर से खिलखिलाई। रामसुमेर के शरीर का रोआं-रोआं पिघलने लगा। शरीर गुब्बारे जैसा हल्का हो गया। उसके पैर उठने लगे। सामने अंधी खाई थी। सड़क कट कर झूल रही थी। चलते-चलते जैसे एक सफर चुक गया है। घबड़ा कर वह चीखा। चीख गले में अंटक गई। केवल अस्फुर स्वर निकले, “ नाss हीं, अबहीं आधा कोस बाss...की... हौss “

सिर थाम कर रामसुमेर बैठ गया।

सूरज ठंडा हो चुका था।

अंगद नें धीरे से पूछा, “ कौन थी ?”

सिर झुकाये रामसुमेर नें उत्तर दिया, “ हमारे गाँव की थी।“

उसकी आँखें अभी भी नम थीं।