आधा है चन्द्रमा / एक्वेरियम / ममता व्यास
आज सच बोलने को जी चाहता है...
कई सदियों से मैं देखता हूँ ये स्त्रियाँ मुझे साक्षी बनाकर अपने परमेश्वर का चेहरा छलनी से देखती हैं। (मुझे प्रेम का प्रतीक मानती हैं) और वह परमेश्वर भी थोड़ी देर के लिए खुद को देवता मान बैठते हैं। छलनी के दोनों तरफ दो चेहरे...जो एक-दूजे को देख ऐसे मुस्काते हैं जैसे संसार के सबसे सुखी प्राणी हैं। ये लोग ऐसा क्यों करते हैं?
मुझे आज तक समझ नहीं आया। चेहरे के बजाय ये लोग एक-दूजे के दिल में क्यों नहीं झांकते?
अगर एक-दूजे के मन में झांक कर देखें तो उस मुई छलनी से ज़्यादा छेद और घाव दिलों पर दिखेंगे।
महंगी साडिय़ों, कीमती गहनों और प्लास्टिक की मुस्कान से सजी ये स्त्रियाँ मुझे भीतर से उदास क्यों दिखती हैं?
परमेश्वर बना वह पति बेबस-सा क्यों नजर आता है? उसे समझ नहीं आता कि उसका चैन-वैन, सब छीन कर उसकी लम्बी उम्र की दुआएँ क्यों मांगी जाती हैं? जबकि उसका जीना मुहाल कर दिया गया है।
मैं आसमान से इन्हें देख-देख मुस्काता हूँ। सुनो अगर मुझसे कुछ मांगना ही है तो अपने साथी की लम्बी उम्र मत मांगो।
प्रेम की लम्बी उम्र हो ऐसा निवेदन करो। बिन प्रेम के तो जीवन जीने योग्य नहीं बचता...है न?
बरसों से मन ही मन कह रहे हो-'चांद सिफारिश जो करता हमारी...' लो आज सिफारिश कर दी...चलो आज दिल में झांक लेना एक-दूजे के...ओह हो! खुली आंखों से नहीं। बंद आंखों से झांका जाता है दिलों में।
तुम लोग भी न...आधा मन लेकर जीते हो और पूजते हो पूरे चांद को। बातें अधूरी हैं तुम्हारी। सांसें भी...उन्हें पूर्ण करो।
और फिर मुझे निहारो...समझे न?