आधी हकीकत आधा फ़साना - भाग 2 / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : अगस्त 2014
दुनिया में सिनेमा का अविष्कारक फ्रांस के लुमिअर ब्रदर्स को माना जाता है। उन्होंने पहली बार अपने कैमरे से छोटी-छोटी लगभग पचास फिल्मों का निर्माण किया, जो कुछ सेकण्ड्स से लगाकर कुछ मिनिटों तक की थीं। उनका लक्ष्य किसी तरह स्थिर चित्रों को गतिशील चित्रों में बदलना था, जिसमें वे सफल रहे। इन पचास में से सबसे अच्छी सात फिल्मों का प्रदर्शन उन्होंने २८ दिसंबर १८९५ को पेरिस के इंडी कैफे में कुछ चुनिंदा दर्शकों के सम्मुख किया और इस तरह दुनिया में सिनेमा का अवतरण हो गया। लुमिअर ब्रदर्स के पैकेज की ये फ़िल्में थीं - १. अराइवल ऑफ़ द ट्रेन, २. फीडिंग द बेबी, ३. डिमालिशन ऑफ़ अ वाल, ४. प्लेइंग द कार्ड्स, ५. वाटरिंग द गार्डन, ६. लिविंग द पोर्ट, ७. वेलकम ऑफ़ फोटोग्राफर्स। इन छोटी-छोटी फिल्मों के जरिये दर्शकों ने अपने सामने परदे पर उन घटनाओं और व्यक्तियों को चलते-फिरते देखा, जहाँ वे मौजूद नहीं थे। यह देखकर दर्शक अवाक् रह गए। उनके लिए यह किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं था। कुछ सेकण्ड्स या मिनिटों में परदे पर प्रकट होकर ख़त्म हो जाने वाली इन फिल्मों को लोगों ने दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा माना। जहाँ-जहाँ इन फिल्मों के प्रदर्शन हुए, वहाँ दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी।
लुमिअर ब्रदर्स अपने इस अविष्कार को जल्दी से जल्दी पूरी दुनिया में पहुँचाना चाहते थे। उन्होंने अपने एक एजेंट मारिस सेस्टियर के जरिये इन फिल्मों का एक पैकेज ऑस्ट्रेलिया के लिए रवाना किया। मारिस को बम्बई पहुँचने पर पता चला की उसे जिस जहाज से आगे ऑस्ट्रेलिया जाना है, उसमें कुछ खराबी आ गयी है। अतः अगले तीन-चार दिन तक उसे बम्बई में ही रुकना होगा। वह कोलाबा स्थित वाटसन होटल (जो कि अब नेवी ऑफिस है) में जाकर ठहर गया। मारिस के दिमाग में विचार आया कि जो काम ऑस्ट्रेलिया जाकर करना है, उसे बम्बई मेँ ही क्यों न कर दिया जाए ! लिहाजा वह ६ जुलाई १८९६ को टाइम्स ऑफ़ इंडिया के दफ्तर पहुँचा और अगले दिन के लिए एक विज्ञापन बुक कराया। `दुनिया का अजूबा’ नाम से प्रकाशित इस विज्ञापन को पढ़कर बम्बई कोने-कोने से दर्शकों का हुजूम वाटसन होटल की तरफ उमड़ पड़ा। एक रूपये की प्रवेश दर से लगभग २०० दर्शकों ने ७ जुलाई १८९६ की शाम बीसवीं सदी के इस चमत्कार से साक्षात्कार किया। इसके साथ ही भारत में सिनेमा का शुभारम्भ हो गया। वाटसन होटल में ७ जुलाई से १३ जुलाई तक प्रदर्शन होते रहे। बाद में इस प्रदर्शन को १४ जुलाई से बम्बई थिएटर में शिफ्ट कर दिया गया, जहां ये १५ अगस्त तक चलते रहे।
पहले दिन के पहले प्रदर्शन में जो दर्शक उपस्थित थे, उनमें से एक थे बम्बई के प्रसिद्ध छायाकार हरीशचंद्र सखाराम भाटवडेकर, जिन्हें सावे दादा के नाम से भी जाना जाता है। लुमिअर ब्रदर्स की फिल्मों को देखकर उनके दिमाग में विचार उत्पन्न हुआ कि क्यों न इस प्रकार की स्वदेशी फिल्मों का निर्माण कर उनका प्रदर्शन जाये। वे बम्बई में १८८० से अपना फोटो स्टूडियो संचालित कर रहे थे। सन १८९८ में उन्होंने इक्कीस गिन्नी भेजकर लुमिअर सिनेमेटोग्राफी यन्त्र मंगाया। फिर सावे दादा ने बम्बई के हैंगिंग गार्डेन में कुश्ती का एक आयोजन कर उस पर एक लघु फिल्म का निर्माण किया। उनकी दूसरी फिल्म सर्कस के बंदरों की ट्रेनिंग पर आधारित थी। इन दोनों फिल्मों को उन्होंने डेवलपिंग के लिए लन्दन भेजा। सन १८९९ में विदेशी फिल्मों के साथ उन्होंने इन फिल्मों का प्रदर्शन किया। इस प्रकार सावे दादा पहले भारतीय हैं, जिन्होंने अपने बुद्धि कौशल से स्वदेशी लघु फिल्मोँ का निर्माण कर प्रथम निर्माता-निर्देशक और प्रदर्शक होने का श्रेय प्राप्त किया। सावे दादा करिश्मा यहीं नहीं रुका। सन १९०१ में र. पु. परांजपे नामक छात्र कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गणित में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर भारत लौटा। उसका स्वागत करने बंदरगाह पर सैकड़ों लोग पहुँचे थे। सावे दादा ने इस बिरले अवसर को अपने कैमरे में कैद कर लिया। यह फिल्म भारत की पहली न्यूज़ रील मानी जाती है।