आधी हकीकत आधा फ़साना - भाग 4 / राकेश मित्तल

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आधी हकीकत आधा फ़साना - भाग 4
प्रकाशन तिथि : अक्टूबर 2014


भारतीय सिनेमा के मूक युग (१९१३-१९३०) में लगभग एक हज़ार दो सौ फ़िल्में बनी। यह सूची भारत के राष्ट्रीय फिल्मागार में उपलब्ध है। लेकिन समय के थपेड़ों और हमारी लापरवाही की बदौलत इनमें से मात्र सोलह फिल्मों के कुछ अंश ही हम बचा पाये हैं। जो फ़िल्में अंशतः बचीं हैं, वे हैं दादा साहेब फालके द्वारा निर्मित और निर्देशित `राजा हरीशचंद्र (१९१८), `लंका दहन’ (१९१७), `श्रीकृष्ण जन्म’ (१९१८), `कालिया मर्दन’ (१९१९), `तुकाराम’ (१९२१) और `भक्त प्रह्लाद’ (१९२६) . कांजी भाई राठौर द्वारा निर्देशित `सुकन्या सावित्री’ (१९२२), विट्ठलदास पंचोटिया द्वारा निर्देशित `काया पलट’ (१९२५), हरी लाल भट्ट की `पितृ प्रेम’ (१९२५) . इसके अलावा फ्रेंड आस्टिन द्वारा निर्देशित तीन फ़िल्में, जो अब जर्मनी की संपत्ति हैं तथा जी. पी. पंवार द्वारा १९३१ में बनाई चार फ़िल्में भी गई हैं।

जिस तरह दादा साहब फालके भारतीय सिनेमा के जनक माने जाते हैं उसी तरह बोलती फिल्मों के जनक होने का सेहरा इम्पीरियल फिल्म कंपनी के मालिक आर्देशिर ईरानी के सिर बंधा, जिन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म `आलम आरा’ बनाई और उसका प्रदर्शन १४ मार्च १९३१ को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में किया। वैसे दुनिया की पहली सवाक फिल्म `द जाज सिंगर’ न्यूयॉर्क में ६ अक्टूबर १९२७ को दिखाई जा चुकी थी और दुनिया के अन्य देश भी मूक सिनेमा से छुटकारा पा चुके थे किन्तु भारत में १९३१ के बाद ही सवाक फिल्मों का जमाना शुरू हो सका। मैजेस्टिक सिनेमाघर में `आलम आरा’ को देखने के लिए ऐसी भीड़ उमड़ी की कड़े पुलिस बंदोबस्त के बावजूद चार आने के टिकिट चार-पांच रूपए में ब्लेक में बिके। `आलम आरा’ के नायक मास्टर विट्ठल थे और नायिका थीं जुबैदा। इसमें पृथ्वीराज कपूर, जिल्लो और एलिजार की भी भूमिकाएं थीं। एक अंधे फ़कीर की भूमिका में डब्ल्यु. एम. खान ने इसमें `दे दे खुदा के नाम पे प्यारे ताकत है गर देने की।’ हांक लगाई थी, जिसे बोलते सिनेमा गाना कहा जाता है। इस फिल्म के संगीत में हारमोनियम, तबले और वायलिन का प्रयोग हुआ था। दुर्भाग्यवश `आलम आरा’ का भी प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है।

ईरानी की इम्पीरियल फिल्म कंपनी भारतीय फिल्म उद्योग को अनेक सितारे दिए। पृथ्वीराज कपूर, बिलिमोरिया ब्रदर्स, मेहबूब खान, याकूब, मुबारक आदि इसी की देन है। चालीस की उम्र में ईरानी निर्माता, निर्देशक, वितरक और प्रदर्शक के रूप में भारतीय फिल्म उद्योग की बहुत बड़ी हस्ती बन चुके थे। सन १९३७ में उन्होंने भारत की पहली रंगीन फिल्म `किसान कन्या’ का निर्माण कर एक और कीर्तिमान स्थापित किया।

सुलोचना (रूबी मेयर्स) भारीतय सिनेमा की पहली सितारा नायिका थीं। १९२५ में प्रदर्शित `वीरबाला’ उनकी पहली फिल्म थी। अपने २१ साल के फ़िल्मी करियर में उन्होंने पचास से अधिक मूक एवं सवाक फिल्मों में काम किया। उन दिनों उनका मासिक वेतन पांच हज़ार रूपए था, जो मुंबई के अंग्रेज़ गवर्नर से ज्यादा था। जबकि उस समय के सुपर स्टार मास्टर विट्ठल को ढाई हज़ार रूपए महीना मिलते थे। फिल्म `अनारकली’ और `हीर राँझा’ में लम्बे चुम्बन दृश्य देकर उन्होंने तहलका मचा दिया था। उन दिनों सेंसर बोर्ड भी उदार हुआ करता था, सिवाय राजनैतिक रूप से संवेदनशील मामलों के।

कोहिनूर फिल्म कंपनी के मालिक द्वारकादास संपत इन दिनों `शो मैन’ के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने अपने घर कुत्ते कस बजाय बाघ का बच्चा पल रखा था। फिल्म का व्यवसाय `शो बिज़नेस’ है, इस बात को वे बखूबी समझते थे। उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से कई धमाके किये। मसलन १९२१ में कोहिनूर की फिल्म `सती अनुसुइया’ में सकीना बाई का नग्न नृत्य था। सेंसर ने इस नृत्य पर कोई आपत्ति नहीं की और फिल्म देखने लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी।