आधी हकीकत आधा फ़साना - भाग 8 / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : फरवरी 2015
पचास औऱ साठ के दशक में अनेक उद्देश्यपूर्ण फ़िल्में निर्मित हुईं, जिसके परिणामस्वरूप फिल्म निर्देशकों की एक नई पौध सामने आई, जो पूरी तरह सामाजिक सरोकारों से रची-बसी फ़िल्में बनाने लगीं। इस सिनेमा को `न्यू वेव सिनेमा’ या `समानान्तर सिनेमा’ का नाम दिया गया। यह सिनेमा देश के ग्रामीण और निम्न मध्यमवर्गीय शहरी समाज की चुनौतियों और दैनंदिन जद्दोजहद को उकेरता था। इसका उद्देश्य मनोरंजन के बजाए समाज की कटु सच्चाइयों से रूबरू करना था। इस दौरान देश के श्रेष्ठतम फिल्मकारों ने अत्यंत सीमित बज़ट में बेहद उद्देश्यपूर्ण फिल्मों का निर्माण किया।
वी. शांताराम, मेहबूब खान, विमल रॉय, राजकपूर, गुरुदत्त और उसके बाद मृणाल सेन, सत्यजीत रॉय, ऋत्विक घटक से शुरू हुआ यह सिलसिला अपने चरम पर पहुँचा जब श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, अडूर गोपाल कृष्णन, जी. अरविन्दन, गिरीश कसरवल्ली, बुद्धदेव दासगुप्ता, ऋतुपर्णो घोष, तपन सिन्हा, चेतन आनंद, गिरीश कर्नाड, जब्बार पटेल, मणि कॉल, कुमार शाहनी, सईद मिर्ज़ा, केतन मेहता, एम. एस. सथ्यू, बासु भट्टाचार्य, जैसे समर्पित और जागरूक फ़िल्मकार इससे जुड़ते गए। नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, पंकज कपूर, एम. के. रैना, के. के. रैना, रजित कपूर, सौमित्र चटर्जी, कुलभूषण खरबंदा, उत्पल दत्त जैसे निष्णात कलाकार इसी सिनेमा की देन है।
इस नयी तरह के सिनेमा के दौर की शुरुआत 1955 में सत्यजीत रे की `पाथेर पांचाली’ और फिर 1967 में मृणाल की फिल्म `भुवन शोम’ से मानी जाती है। लेकिन इसके चरम की शुरुआत १९७८ में हुई, जब इसे एक ठोस आधार देने और अपना अलग व्यक्तित्व देने के लिए भारत के वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में `भारतीय पैनोरमा’ खंड को जोड़ा गया और यह निर्णय लिया गया कि देश भर की सभी भाषाओँ से चुनी गयी बाईस श्रेष्ठ फ़िल्में इस खंड में प्रतिवर्ष दिखाई जाएँगी। इसके बाद से इस सिनेमा की एक ठोस पहचान बनी। हालाँकि दुर्भाग्यवश इन फिल्मों के व्यापक प्रदर्शन का रास्ता कभी नहीं खुल पाया।
अपनी तमाम गुणवत्ताओं और सार्थक प्रयासों के बावजूद तीक्ष्ण कथ्य, बेलाग प्रस्तुति और मनोरंजक तत्वों की कमी के चलते आम दर्शक इन फिल्मों से दूर रहे और व्यावसायिक असफल रहीं। इस हकीकत को भांप कर बाद में हृषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, गुलज़ार, सई परांजपे जैसे निर्देशकों ने सामाजिक सरोकारों के मिश्रण अनेकों सार्थक फ़िल्में बनाईं, जो व्यावसायिक रूप से भी सफल रहीं।
नब्बे के दशक तक आते-आते समानांतर सिनेमा का यह आंदोलन दम तोड़ने लगा। इसके मुख्य कारण थे - फिल्म निर्माण की बढ़ती , विज्ञापन, वितरण एवं प्रदर्शन हेतु अवसरों तथा संसाधनों का अभाव, सरकारी प्रोत्साहन की कमी और आम दर्शकों की अरुचि।
विडम्बना यह है कि जिसकी हम `आर्ट सिनेमा’ या प्रादेशिक अथवा भाषाई सिनेमा कहकर अनदेखी करते रहे हैं, उसी में जीवन के यथार्थ स्वरूप का चित्रण हो रहा है और जिसे हम `मुख्यधारा’ का सिनेमा कहते हैं, वह हमें यथार्थ से दूर ले जा रहा है। अच्छी फ़िल्में केवल अपनी जमीन से जुड़कर अपने परिवेश को भली-भाँति पहचानकर ही बनाई जा सकती है। देश की छः सौ से अधिक़ फिल्म पत्र-पत्रिकाएं मुख्यधारा की फिल्मों के बारे में ही कुछ न कुछ छापती रहतीं हैं। यथार्थवादी सिनेमा को इनमें कभी उचित स्थान नहीं मिल पाया। यह एक कटु सत्य है की भारतीय सिनेमा के पास अच्छी फ़िल्में हैं, उन्हें भी बाजार से बाहर कर देने की लगातार कोशिश होती रहती है।