आधुनिक महिला लेखन: सार्थकता के आधार / प्रताप सहगल

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हस्तक्षेप। इस सदी का आखि़री मुहाना। हस्तक्षेप। 'युद्धरत आज आदमी' का महिला केंद्रित कविता विशेषांक। इसी के साथ ही महिला केंद्रित कहानी विशेषांक भी प्रकाशित हुआ है। संपादन भी रमणिका गुप्ता का। तो सीधा-सीधा हस्तक्षेप हुआ न! कभी हिन्दी साहित्य का 'सहृदय पाठक' मीरा का नाम लेकर ही गौरव का अनुभव करता था कि देखो-देखो हमारे यहाँ महिला भी कवि हो सकती है। युग बदला। छलाँग लगाकर सीधे महादेवी पर। हाँ सुभद्राकुमारी चौहान को मत भूलना। तो यह युग था जब कवि-सम्मेलनों में काव्य-पाठ के लिए महिला-कवियों की खोज की जाती थी। पर अब तो परिदृश्य ही बदल गया। बेचारा हिन्दी का 'सहृदय पाठक' अब क्या करे। यहाँ तो एक जमात ही खड़ी हो गई है महिला-रचनाकारों की। पर मात्र रचनाकार कहना काफ़ी नहीं क्या? यह महिला और पुरुष जैसे विशेषण लगाना ज़रूरी है क्या? विद्वत्जन जानें।

पर रमणिका गुप्ता कि नज़र में महिला स्वयं ही अपने अनुभवों को पूरी प्रामाणिकता के साथ साहित्य के माध्यम से रख सकती है। पुरुष महिलाओं के अनुभवों को सिर्फ़ हमदर्दी की निगाह से ही देख सकता है। मालूम नहीं कि हमदर्दी शब्द का इस्तेमाल रमणिका जी ने सिम्पैथी के लिए किया है या एम्पैथी के लिए। जो भी हो, महिलाओं का लेखन अगर मात्र इसलिए ज़रूरी है कि अपने अनुभवों को वही प्रामाणिक तरीक़े से अभिव्यक्त कर सकती है तो फिर उन्हें इससे इतर तो कहीं झाँकना ही नहीं चाहिए। इसी तर्क को ज़रा बढ़ाया जाए तो पुरुषों को भी सिर्फ़ अपने अनुभवों तक ही सीमित रहना चाहिए। कलाएँ तो हमेशा कांटेंट की खोज में रहती हैं और रचनाकार भी। तो रचनाकार को यूँ ही ऐसी-वैसी सीमाओं में क़ैद करने की कोशिशें न कभी कामयाब हुई हैं, न होंगी। उसे जो रुचेगा, वह लिखेगा। जो परेशान करेगा, वह बाहर आएगा ही और संपादक के वक्तव्य को छोड़ दें तो इन तमाम कविताओं को पढ़ते हुए लगातार यह लगता भी रहा है। हाँ यह ज़रूर है कि महिला होने के नाते और महिलाओं की जो हालत हमारे समाज में आज है, उन संदर्भों से उसे जोड़ते हुए जो अनुभव इन्हें प्राप्त हुए हैं, उन्हें इन्होंने अपने-अपने तरीक़े से अभिव्यक्ति दी है। पर ऐसा नहीं कि केवल स्व-अनुभव ही केंद्र में है। संवेदना के स्तर पर अर्जित अनुभवों को भी इन्होंने अपनी कविताओं की 'वस्तु' बनाया है।

पहले एक बात यह कहना चाहता हूँ कि हिन्दी फ़िल्मों की कुछ-कुछ प्रवृत्ति इधर साहित्य खासकर कविता में देखने में आई है। जैसे एक फ़िल्म हिट होते ही लगातार वैसी ही फ़िल्में धड़ाधड़ बनने लगती हैं, ठीक वैसे ही अगर किसी ख़ास विषय या बिंदु को लेकर लिखी गई एकाध कविता चर्चित हुई तो बस धड़ाधड़ वैसी ही कविताएँ बाज़ार में हाज़िर। ऐसे ही कुछ विषय हैं लड़की, औरत, माँ। लड़की पर कोई कविता चर्चित हुई तो बस वह कवि ही क्या जो लड़की पर कविता न लिखे। एक समय की कविताओं की अंतर्धारा एक-सी हो तो यह एक बात है। ऐसा अक्सर होता है। सारा भक्ति साहित्य इसकी मिसाल है और भी मिसालें हैं। यह अंतर्धारा उस समय की कविता को एक शक्ति भी देती है और पहचान भी। ऐसे में कई बार कुछ प्रतीक भी समान रूप से सामने आते हैं, पर सभी कवि एक से ही प्रतीक चुनने लगें और उन प्रतीकों के इस्तेमाल के संदर्भों में भी कोई ख़ास फ़र्क नज़र न आए तो गड़बड़ लगती है। इस दुर्घटना से बचाव की ज़रूरत आज है। क्योंकि इस संग्रह में भी कई कविताएँ ऐसे ही प्रतीकों को लेकर बुनी गई हैं। बहुत-सी अपना निर्दिष्ट भी नहीं जानतीं।

ऐसी कविताओं की बात न करके चलिए ऐसी कविताओं की बात करें जो अपने व्यक्तित्व के साथ उपस्थित हैं। मसलन सुमति अय्यर के प्रेम-1, प्रेम-2, प्रेम-3 में जहाँ वह प्रेम सर्वनाम बनकर नहीं एक संज्ञा बनकर करना चाहती है। तमाम व्यस्तता के आतंक के बीच प्रेम करने वाली एक संज्ञा-स्वरूप औरत का चेहरा झाँकता नज़र आता है-अपनी इयत्ता के साथ। यही इयत्ता इंदु जैन की कविताओं में अपनी पूरी ठसक के साथ मौजूद हैं। इंदु जैन की लड़की संघर्ष का मात्र निवाला बनने से इंकार करती है और कवयित्री का यह विश्वास है कि उसकी लड़की 'हालात को हादसे नहीं बनने देगी' सामाजिक विद्रूपता के रू-ब-रू प्रतिरोधक शक्ति के रूप में सामने आता है। जबकि शशि सहगल के अंदर बैठी माँ बेटे को बड़ा होते देख जब सवाल करती है कि 'बेटा बड़ा होकर / आदमी क्यों बन जाता है?' तो जैसे हम एक माँ का एक औरत के रूप में मेटामारफिस होते देखते हैं। साथ ही यह सवाल हमारे समाज में पल रहे पुरुष के मनोविज्ञान के साथ भी छेड़छाड़ करता है और माँ बनाम औरत को एक तकलीफदेह स्थिति में डाल देता है।

मणिका मोहिनी जब 'पुत्र के प्रति' लिखती हैं तो एक माँ बनकर डर, ममत्व, आशंका के बीच पुत्र की कामना के लिए ईश्वर से दुआ माँगती हैं तो यहाँ कविता इकहरे स्तर पर ही चलती नज़र आती है जबकि राजी सेठ के अंदर बैठी माँ 'प्रवासी बेटे की वर्षगाँठ पर' कविता लिखने के बहाने स्वयं-से ही वार्तालाप करती है। राजी की यह कविता दोहरे स्तर पर चलती हुई मात्र वर्षगाँठ की चर्चा नहीं करती, बल्कि बेटे के प्रवासी देश और अपने देश का गुत्थमगुत्था आकलन भी करती चलती है। संभवतः साहित्य का यही वह बिंदु है, जहाँ आत्मानुभव और सामाजिक अनुभव एकमएक हो जाते हैं। दूसरी कविताओं में भी वह देश की बदहाली को बाँधती ज़रूर है, पर एक सामाजिक के रूप में ही।

अपने आत्मकथ्य में भी राजी सेठ ने साहित्य की तेजस्विता में विश्वास व्यक्त किया है और साहित्य के पिछलग्गू होने का विरोध भी। वे साहित्य की समग्रता कि हामी है, यही समग्रता आंशिक रूप से उनकी 'प्रवासी बेटे की वर्षगाँठ पर' कविता में मिलती भी है। पर एक रचनाकार का इस रूप में ही एसर्शन अच्छा है न कि अशोक वाजपेयी के इस रूप में कि हिन्दी में तो चिंतन बंद ही हो चुका है। यह अलग बहस की बात है।

प्रवासी मन की झलक हमें सुषम बेदी की कविताओं में भी मिलती है। अपने देश और प्रवासी देश के सांस्कृतिक प्रतीकों के बीच झूलती ज़िंदगी की तकलीफ सुषम बेदी की कविताओं में है और जब वह प्रवासी देश में किसी भी टुच्चे-पुच्चे को भारतीयता का प्रतिनिधित्व करते देखती है तो जैसे उसे एक सन्नाटा ही घेर लेता है।

संकलन में कविताओं के साथ आत्मकथ्य भी हैं। कुछ हैं कुछ नहीं है और कुछ न होने के बराबर। बहरहाल कात्यायनी ने पहले तो लिखा है कि आत्मकथ्य लिखना बहुत उपयोगी नहीं और फिर लिख भी दिया। लिखा तो ऐसा कि संकलन में सबसे बड़ा। अब उपयोगी नहीं तो लिखते क्यों हो और लिखना है तो छद्म की ज़रूरत क्या है?

आत्मकथ्य वाकई उपयोगी नहीं है, क्योंकि कात्यायनी की कविताएँ कहीं ज़्यादा उपयोगी हैं। 'न कोई संस्मरण' में ठंडी तेज़ धार वाला मारक व्यंग और फिर 'यूँ अचानक एक दिन हमारा' प्रेम में प्रवेश करते हुए जोड़े की सहज प्रक्रिया पर अच्छी कविताएँ हैं तो 'बनी नहीं कविता' कविता के चालू ढाँचे को तोड़ने के साथ ही यह सवाल उठाती है कि आखि़र कविता के लिए कच्चा माल कहाँ से जुटाएँ? क्या समाज और राजनीति के विद्रूप कविता में सीधे प्रवेश कर सकते हैं कि नहीं? हमारे समय को आतंकित करने वाले प्रतीक सीधे-सीधे कविता के प्रतीक भी हो सकते हैं कि नहीं? ज़ाहिर है कि इन सवालों से हर रचनाकार जूझ रहा है, जूझना ही उसकी नियति है।

लड़की, माँ, औरत, नदी और स्त्री तथा पुरुष की औपनिवेशिक प्रवृत्ति आदि पर अनेक कविताएँ इस संकलन में हैं, पर साथ ही ऐसी भी अनेक कविताएँ हैं जो अपने से बाहर की हैं। रमणिका गुप्ता कि कविताओं में वैचारिकता अपनी प्रबलता के साथ विभिन्न संदर्भों में मौजूद है। पुरुष की सत्ता के खिलाफ़ वह भी संघर्ष करती हुई ख़ुद के कवि से पहचान करना चाहती है और इसी प्रक्रिया में वह कभी आदिवासियों तो कभी कोयला खदानों के मज़दूरों के साथ जुड़ती है। यह जुड़ना खाली संवेदना के स्तर पर नहीं सीधा-साधा है। सीधा-सीधा इसलिए कि बकौल रमणिका गुप्ता के 'कविताएँ मेरे पास आती हैं, मैं इन्हें लाती नहीं' पर यह भी सच है कि कविताओं के आने के साथ ही वैचारिक संगुंफन भी शुरू हो जाता है।

कविता सिंह के नवगीत सामाजिक संदर्भों को उजागर करने वाले प्रतीकों से अटे हुए गीत हैं-मैले कपड़े-सा खूँटी पर / टँगा रहा दिन। कविता सिंह प्रतीकों की राह से ही बिंब निर्मित कर लेती हैं, जो उनके गीतों की शक्ति है।

इसी तरह की शक्ति अनुभूति चतुर्वेदी की 'दो श्रावणी कविताएँ' में भी मौजूद है-

यह भीगी हुई चादर हटा कर

अपनी प्रचंड ऊष्मा के साथ सामने आओ

हे सूर्य

और मुझे आलिंगनबद्ध कर लो!

कहना होगा कि अनुभूति की यहाँ संकलित कविताएँ उसकी पूर्व-कविताओं से बहुत आगे हैं। किसी भी कवि में विकास होते देखकर ख़ुशी ही होती है।

इनके अतिरिक्त चंपा वैद, मंजु गुप्ता, माया प्रसाद, रेखा व्यास, वंदना सालोड़े आदि की कविताओं को भी रेखांकित किया जा सकता है।

संपादन के स्तर पर अतिरिक्त सतर्कता कि ज़रूरत महसूस होती है। मसलन कवयित्रियों को न तो अकारादि क्रम से रखा गया है और न ही किसी तरह के और क्रम का ध्यान रखा गया है। जब जिसकी कविताएँ मिल गईं, लगा दीं। फिर मलयालम या जापानी कविताएँ भी सुविधा से बटोरी गई कविताएँ हैं। उनके पीछे कोई योजनाबद्ध नज़रिया नहीं है। नागेश्वर लाल का लेख यहाँ संकलित कविताओं से इतर कवयित्रियों के प्रकाशित कविता-संग्रहों पर उपयोगी टिप्पणी करता है और इसी तरह से रमणिका गुप्ता का संपादकीय भी। काम बड़ा हो, व्यक्ति लगभग अकेला तो कुछ कमियाँ रह भी जाती हैं। पर उनकी पूर्ति कविताओं से ध्वनित आशयों एवं ऊर्जा से होती है। यही बात आधुनिक महिला लेखन (कविता खंड) को सार्थक किताब बनाती है।