आधुनिक युग में गांधी दर्शन की प्रासंगिकता / कविता भट्ट
चरम वैज्ञानिक विकास से युक्त वर्तमान काल में जहाँ एक ओर हम आधुनिक हो चुके हैं और सभ्य होने का दंभ रखते हैं; वहीं नैतिक मूल्यों का ह्रास आज समाज की सबसे बड़ी चुनौती है। नैतिक होना अर्थात् शुभ की ओर बढ़ना। जीवन में व्यक्ति जो कुछ भी अच्छा चाहता है; वही शुभ है। जो दीर्घकाल तक सुखकारी हो तथा किसी भी अन्य व्यक्ति को उससे पीड़ा न हो। शुभ वह है; जिसमें मात्र किसी एक व्यक्ति का नहीं अपितु समस्त समाज का हित हो। इस शुभ को विभिन्न मनीषियों द्वारा जिस विषय के अन्तर्गत समझाया गया; उसे नीतिदर्शन कहा जाता है। भारतीय नीतिदर्शन का सार है-'सत्यं-शिवं-सुन्दरम्'। अर्थात् जो सत्य है; वही शिव अर्थात कल्याणकारी है; और जो कल्याणकारी है; वही सुन्दर है। जैसा कि हम जानते हैं कि व्यक्ति समाज की इकाई है; इसकी सुदृढ़ता एवं संस्कार-सम्पन्नता ही समाज को 'सत्यं-शिवं-सुन्दरम्' के आदर्शों पर चलने योग्य बनाती है। विसंगति यह है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज को सुन्दर देखना चाहता है; किन्तु स्वयं नैतिक मूल्यों का पालन करना उसको टेढ़ी खीर लगता है। जबकि यदि व्यक्ति स्वयं ही नैतिकता का पालन नहीं करेगा तो समाज नैतिक कैसे बन सकता है।
भारतीय वांग्मय में नैतिक मूल्यों के पालन की आवश्यकता सम्बन्धी निर्देश भरे पड़े हैं; किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम उस कसौटी पर स्वयं को रखना चाहते हैं। समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने इस अवधारणा को तरो-ताजा भी किया और स्वयं भी आदर्शों का अनुपालन किया। ऐसे ही महापुरुष थे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी; प्यार से समस्त राष्ट्र उन्हें बापू कहकर पुकारता है। वस्तुतः व्यक्ति के कर्म ही उसे महान बनाते हैं तथा ऐसे महापुरुष कभी मरते ही नहीं; बल्कि अमर हो जाते हैं। महात्मा गांधी एक नाम नहीं; अपितु एक ऐसी विचारधारा हैं; जिसका सम्पूर्ण विश्व ने अनुपालन तथा यशोगान किया। भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के अग्रदूत होने के साथ ही महात्मा गांधी एक महान चिंतक एवं दार्शनिक भी थे। मानव समाज हेतु प्रस्तुत उनका नीतिदर्शन उनके दर्शन की आत्मा है। आधुनिक भारत के साथ ही समस्त विश्व हेतु अनुकरणीय एवं अनुपालनीय है। उनका नीतिदर्शन आधुनिक भारत के लिए ही नहीं अपितु समस्त विश्व के लिए अत्यंत उपयोगी एवं प्रासंगिक है। उनके द्वारा जो चिंतन किया गया उसमें नीतिदर्शन की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति के लिए एकादश व्रत को आवश्यक माना गया। ये एकादश व्रत हैं-सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शारीरिक श्रम, सर्वधर्म समभाव तथा स्वदेशी। नैतिक उत्थान तथा समाज को सही दिशा में ले जाने हेतु इन ग्यारह व्रतों का यथोचित ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति को होना चाहिए जिससे वह इनका अनुपालन कर सके। ध्यान देने योग्य बात यह है कि समाज से नैतिक मूल्य तेजी से समाप्त हो रहे हैं। अनैतिकता के फैलने से समाज में चोरी, हत्या, भय, हिंसा, बलात्कार, आतंकवाद, रिश्वतखोरी, जमाखोरी, बेरोजगारी, वर्ग-संघर्ष, गरीबी, शोषण कामचोरी, पद-लोलुपता, धार्मिक एवं जातिगत विद्वेष आदि समाज में अपनी जडे़ जमा चुके हैं। गांधी जी ने इन समस्त समस्याओं के समाधान हेतु एकादश व्रत के अनुपालन को आवश्यक बताया। उनका मानना था कि इन व्रतों के पालन से भारतवर्ष ही नहीं अपितु समस्त मानव समाज कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होगा।
पहला व्रत सत्य है। सत्य शब्द सत् से व्युत्पन्न है; जिसका अर्थ है-अस्ति सत्य अर्थात् अस्तित्व। सत्य वह है; जिसके बिना किसी भी व्यक्ति, वस्तु एवं स्थान आदि का अस्तित्व नहीं होता। गांधी जी का कहना था कि ईश्वर सत्य है कहने के स्थान पर यह कहना चाहिए कि सत्य ही ईश्वर है। सत्य-पालन से ईश्वर स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार ईश्वर को प्राप्त करने हेतु किसी भी प्रकार के आडम्बर की आवश्यकता नहीं। मन, वचन एवं कर्म से सत्य का पालन करना ही उसको प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग है। मात्र सच बोलना ही सत्य नहीं है; अपितु विचार तथा आचरण द्वारा भी सत्य का अनुपालन आवश्यक है। सत्य की आराधना ही भक्ति है; यह कठिन किन्तु शुभ फलदायी है। इससे समाज में व्याप्त बुराइयाँ दूर होनी निश्चित हैं।
दूसरा व्रत अहिंसा है। मन, वचन एवं कर्म आदि से किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुँचाना ही अहिंसा है। यह कठिन अवश्य है; किन्तु अत्यंत फलदायी है। सत्य यदि परमेश्वर है; तो अहिंसा उसको प्राप्त करने का मार्ग है। अर्थात् सत्य साध्य है एवं अहिंसा साधन है। अहिंसा के बिना सत्य की खोज भी असम्भव है। हिंसा, वर्गसंघर्ष एवं आतंकवाद आदि के समाधान में अहिंसा की महती भूमिका है।
तीसरा व्रत ब्रह्मचर्य है अर्थात् ब्रह्म के समान आचरण करना। अपने जीवन साथी के अतिरिक्त किसी के भी साथ किसी भी प्रकार से सम्भोग न करना। जीवन साथी से भी मात्र सन्तानोत्पत्ति के निमित्त ही सम्भोग करना ब्रह्मचर्य है। यह वीर्य-बल तथा मनोशारीरिक स्वस्थता में वृद्धि करता है। अनावश्यक सम्भोग व्यक्ति को व्यभिचार की ओर धकेलता है। यदि सम्भोग में अनुशासन न रखा जाए तो एड्स आदि जैसे प्राणघाती रोग हो जाते हैं; जो एक बड़ी चुनौती है। बलात्कार, वेश्यावृत्ति एवं अवैध सम्बन्धों के कारण होने वाली हत्याओं आदि पर केवल ब्रह्मचर्य के पालन से ही नियन्त्रण होगा।
चौथा व्रत अस्वाद है। रोटी, कपड़ा और मकान ये व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इन आवश्यकताओं को पूर्ण करना ही होता है; किन्तु आधुनिक युग में अधिकांशतः व्यक्ति आवश्यकता न होने पर भी मात्र इन्द्रियों को संतुष्ट करने के लिए अधिक एवं स्वादिष्ट अनेक प्रकार का भोजन, अनेक प्रकार के कपड़े तथा अनेक मकानों का निर्माण करवाता है। यह समाज की एक बड़ी समस्या है। अस्वाद का पालन करते हुए अपने भोजन में से प्रतिदिन किसी भी ज़रूरतमंद को भोजन करवाना चाहिए। अभी भी भारत में करोडो़ की आबादी रात को भूखी सोती है। यदि अमीर वर्ग स्वाद का त्याग करते हुए थोड़ा-सा ही सही उन गरीबों को अपने भोजन में से दान कर दे तो सभी को भोजन प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार अस्वाद व्रत अत्यंत उपयोगी है।
पाँचवाँ व्रत अस्तेय है। अस्तेय का सामान्य अर्थ है किसी से बिना पूछे उसकी कोई भी वस्तु न लेना; किन्तु गांधी जी के अनुसार अस्तेय का व्यापक अर्थ है; जिस वस्तु की आवश्यकता न हो; उसे पूछकर भी नहीं लेना है। सीधी-सी बात है; अस्तेय अर्थात् कोई भी अनावश्यक वस्तु को न लेना। सार्वजनिक कोश अथवा भंडार में से कोई छोटी से छोटी चीज को चाहे किसी के सामने हो या पीठ पीछे; इस प्रकार से लेना भी चोरी ही है। मिली हुए किसी लावारिस वस्तु को अपने पास रख लेना भी चोरी ही है। यदि कोई ऐसी वस्तु मिल जाय तो उसकी रिपोर्ट नजदीक के थाने में लिखवानी चाहिए। वस्तु की ही भांति चोरी विचारों की भी होती है। जैसे किसी की पांडुलिपि आदि में से कोई विचार को अपना बनाकर प्रस्तुत करना भी चोरी ही है। किसी के आविष्कार को अपना बनाकर प्रस्तुत करना भी चोरी ही है। इस प्रकार की किसी भी चोरी से व्यक्ति को दूर रहना चाहिए। प्राचीन काल की ही भांति आधुनिक काल में भी इस व्रत का पालन अनिवार्य है।
छठा व्रत अपरिग्रह है। अपने पास उतना हीं धन-वस्तु-सामान आदि रखना चाहिए; जितने की आवश्यकता हो। आवश्यकता से अधिक रखना संग्रह कहलाता है; यह संग्रह मनुष्य को लोभ आदि की ओर प्रवृत्त करता है। ऐसा होने पर मनुष्य के मन में अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए लखपति व्यक्ति करोड़पति एवं करोड़पति अरबपति बनने के लिए छटपटाता है। यह छटपटाहट ही अनियमितताओं का कारण है। व्यक्ति लोभी होकर हिंसा, झूठ, चोरी आदि का सहारा लेता है। ऐसा करने पर वह अनैतिक एवं व्यभिचारी हो जाता है। इन बुरी आदतों से बचने के लिए अपरिग्रह का पालन अत्यंत उपयोगी है।
सातवाँ व्रत है-अभय अर्थात् बाहरी डर से मुक्त होना। मौत, धन-दौलत लुटने, कुटुम्ब-परिवार सम्बन्धी, रोग तथा शस्त्र प्रहार आदि किसी भी प्रकार का डर नहीं होना चाहिए। बाहरी घटनाक्रम का डर मन में होना ही नहीं चाहिए। इसके विपरीत मन के भाव यथा काम-क्रोध आदि से तो डर कर ही रहना चाहिए। बाहरी घटनाक्रम का डर व्यक्ति में मोह आदि बढ़ाता है; जिससे अनेक विकार उत्पन्न होते हैं। अतः अभय का पालन अति उपयोगी है।
आठवाँ व्रत है-अस्पृश्यता निवारण अर्थात् छुआछूत का निवारण। व्यक्ति चाहे किसी भी जाति, धर्म, देश, क्षेत्र तथा कुल का हो; उसे मनुष्य मात्र समझकर प्रेम करना चाहिए। छुआछूत की भावना किसी भी देश का पतन की ओर ले जाती है। भेदभाव उत्पन्न होने से मन में विद्वेष उत्पन्न होता है। ऐसा होने पर समाज में हिंसा आदि फैलती है। इन सभी समस्याओं से बचने का एक मात्र साधन है-अस्पृश्यता का निवारण। आजकल लोग धर्म-जाति एवं सम्प्रदाय के नाम पर लड़ते रहते हैं। यह अत्यंत विध्वंसकारी है। इस विध्वंस से बचने के लिए छुआछूत एवं भेदभाव को मन में आने ही नहीं देना चाहिए।
नवाँ व्रत है-शारीरिक श्रम अर्थात् अपने शरीर से कार्य लेकर ही अपनी रोटी कमाना। गांधी जी के अनुसार कितना भी अमीर व्यक्ति क्यों न हो; अपने से सम्बन्धित कार्य करना घर की सफाई, बागवानी, खेती आदि के कार्य भी स्वयं ही करना चाहिए। व्यक्ति को अपना-अपना स्वीपर भी स्वयं ही होना चाहिए। मात्र किसान ही खेती करता है तथा सभी खाते हैं; जबकि सभी अन्न पर ही निर्भर हैं। इस दृष्टि से खेती का व्यवसाय न करने वालों को भी किसी न किसी प्रकार से खेती में योगदान देना चाहिए। धनी वर्ग को स्वयं को धनी न मानकर उसका ट्रस्टी मानना चाहिए। जो भी सम्पत्ति हो; वह समाज की है; व्यक्तिगत नहीं ऐसा मानना चाहिए। इससे भेदभाव भी समाप्त होगा तथा शारीरिक मेहनत करने से व्यक्ति के शरीर का व्यायाम भी होता है; उसे भूख अच्छी लगती है; जिससे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
दसवाँ व्रत है-सर्वधर्म समभाव । गांधी जी ने भारतीय वांग्मय में वर्णित सहिष्णुता शब्द को सर्वधर्म समभाव की संज्ञा दी। दूसरे के धर्म को भी अपने ही धर्म के समान आदर देना आदर्श है। कोई भी धर्म हो वह ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग ही दिखाता है; चाहे प्रार्थना पद्धतियाँ अलग हों; सभी कल्याण का ही मार्ग दिखाते हैं। यदि सभी धर्मांे को समान भाव से आदर दिया जाय तो सब भेदभाव दूर होंगे; आपस में भाईचारे की भावना पनपेगी। भारतवर्ष में अनेक धर्मों के लोग रहते हैं; धर्म के नाम पर आपस में लड़ने से देश कमजोर होता है। इसलिए देश के विकास के लिए आपस में मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए।
ग्यारहवाँ एवं अन्तिम व्रत है-स्वदेशी अर्थात् अपने ही देश में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करना। ऐसा करने से देश का धन देश में ही रहेगा। गरीबी एवं बेरोजगारी दूर होगी। यदि अपने देश में किसी वस्तु का निर्माण नहीं हो रहा है; तो उसके निर्माण हेतु यथोचित प्रयास करने चाहिए। खादी को गांधी जी ने स्वदेशी वस्त्रों के निर्माण हेतु प्रोत्साहन दिया था। वे स्वयं भी चरखे से सूत कातते थे। इस प्रकार उनके इस प्रयास से उस समय में भी स्वदेशी वस्त्रों का उत्पादन किया गया था। वस्त्रों के ही समान अपने देश में निर्मित अन्य वस्तुओं को भी उपयोग में लाना चाहिए। जिससे अपने ही देश के विभिन्न वर्गों में सम्पन्नता एवं सुख-समृद्धि आए।