आधे–अधूरे / सुकेश साहनी
आप ही हैं विजय बाबू! नमस्कार! आपके बारे में बहुत कुछ सुना है। मुझे पहचाना नहीं आपने? कमाल है! आप तो भू-जल वैज्ञानिक हैं और पत्र-पत्रिकाओं में गांवों के कुओं और नहरों के बारे में बहुत कुछ लिखा करते हैं। आप शायद मेरे शरीर के आधे संगमरमरी भाग और आधे पीले जर्जर भाग को देखकर भ्रमित हो रहे हैं, अब तो पहचान गए होंगे आप...मैं इस देश के गाँव का एक अभागा कुआँ हूँ... न, अब तो पहचान गए होंगे आप, अब यह मत पूछियेगा कि मेरे गाँव, प्रदेश का क्या नाम है? मेरी यह हालत कैसे हुई? सुनना चाहते हैं?... तो सुनिये...
मेरे गाँव में भी भारत के दूसरे गांवों की तरह दो किस्म के लोग रहते हैं... ऊँची जाति के और नीची जाति के। मेरा निर्माण नीची जाति वालों ने मिलकर करवाया था।
इसीलिए ऊँची जातिवाले मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते थे, लेकिन इस भयँकर सूखे से स्थिति बिल्कुल बदल गई है। मेरी भू-गर्भीय स्थिति के कारण मेरा पानी कभी नहीं सूखता, जबकि गाँव के अन्य सभी कुओं का पानी सूख जाता है।
मेरी यह विशेषता मेरी परेशानी का कारण बन गई। इस भँयकर सूखे की शुरूआत में ही ऊँची जाति वालों के सारे कुएँ सूख गए थे और उनको पानी बहुत देर से लाना पड़ता था। तभी न जाने कैसे उन लोगों में जागृति की लहर दौड़ गई। उन्होंने मेरे समीप एक सभा आयोजित की। नारा दिया– ‘हम सब एक हैं... छुआछूत ढकोसला है।' मिठाई भी बँटी। उसी दिन से ऊँची जातिवाले भी मुझसे पानी लेने लगे।
तब मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। मुझे पूरे गाँव की सेवा कर अपार खुशी का अनुभव हो रहा था, पर मेरी यह ख़ुशी भी दो दिन की थी। मैं दो भागों में बँट गया। एक भाग से ऊँची जाति के लोग पानी भरते हैं और दूसरे भाग से नीची जाति के। ऊँची जाति वालों ने मेरे आधे भाग को संगमरमर के पत्थरों से सजा दिया और शेष आधे भाग को ठोकरें मार-मार कर जर्जर बना दिया है। मेरा यह भाग लहूलुहान हो गया है और इसीलिए इससे पीली जर्जर ईंटें बाहर झाँक रही हैं।
विजय बाबू आप सुन रहे हैं ! मेरी व्यथा का अंत यहीं नहीं है। आजकल मेरे चारों ओर अजीब ख़ौफनाक सन्नाटा रहता है। ऊँची जाति वालों के सामने कोई दूसरा मुझे प्रयोग में नहीं ला सकता। कुछ दलित नवयुवकों ने मेरे इस बँटवारे को लेकर आवाज़ें उठानी शुरू कर दी हैं। आप इनकी आवाज़ को ईमानदारी से बुलंद करेंगे?