आधे-अधूरों की पूरी प्रेम कहानी / जयप्रकाश चौकसे
आधे-अधूरों की पूरी प्रेम कहानी
प्रकाशन तिथि : 13 सितम्बर 2012
अनुराग बसु की 'बर्फी' चार्ली चैपलिन और उनके लोप होते घराने के फिल्मकारों को आदरांजलि की तरह गढ़ी गई है और मनुष्य को सादगी, नि:स्वार्थ प्रेम का संदेश देती है। इसमें प्रस्तुत संसार शायद हम खो चुके हैं। आज मनुष्य इतना आत्म-केंद्रित हो चुका है कि उसे दूसरों की भावनाओं को समझने के लिए समय नहीं है और इच्छा भी नहीं है। ईश्वर की कमतरी के दो युवा अपनी विकलांगता से ऊपर उठकर सच्चे प्रेम की खातिर क्या कुछ नहीं कर गुजरते। साधारण लोगों की इस असाधारण कथा में निर्मल आनंद रचा गया है। जन्म से गूंगा-बहरा नायक अपनी कमतरी से जन्मी कुंठा में नहीं जीता, वरन खूब हंसता-हंसाता है। पूरी फिल्म इस कदर आनंदमय है कि इसके थोड़े-से उदास क्षणों में भी गजब की उजास है, भावनाओं से रोशन इस फिल्म में जिंदगी धूप से नहाई निर्मल और पवित्र लगती है।
इस फिल्म में एक समृद्ध व्यक्ति से विवाहित स्त्री अपनी बेटी को बताती है कि नीली कमीज पहने, लकड़ी काटते व्यक्ति को वह अपनी कमसिन उम्र में प्यार करती थी, परंतु दुनियादारी के तकाजे के तहत वह सुरक्षा को चुनती है और कभी-कभी उस भूतपूर्व प्रेमी मजदूर को दूर से देखती है। वह अपनी बेटी को सलाह देती है कि गूंगे-बहरे से प्रेम विवाह करोगी तो वह तुम्हें सुन नहीं पाएगा, तुम उसे समझ नहीं पाओगी और शादी खामोशी में बदल जाएगी। बहरहाल, पुत्री मां की सलाह पर शादी करती है, परंतु यहां दो वाचाल लोगों के बीच भी उसे खामोशी ही मिलती है। स्वार्थ-प्रेरित रिश्ते टूट जाते हैं।
इस फिल्म में रिश्तों की महीन बुनावट के अनेक दृश्य हैं। एक ओर बेटा अपने पिता के इलाज के लिए अपराध तक करने से नहीं झिझकता, तो दूसरी ओर एक पिता जायदाद के लालच में अपनी दिमागी कमतरी से ग्रस्त बेटी को मारना चाहता है। आज दुनिया में संवाद के साधन विकसित हो चुके हैं, फिर भी भावनात्मक तादात्म्य स्थापित नहीं हो पाता, परंतु इस फिल्म का गूंगा-बहरा दिल की बात अपने कामों द्वारा अभिव्यक्त कर देता है। दरअसल इस फिल्म को देखकर हम अपने चारों ओर शारीरिक रूप से स्वस्थ परंतु भावना-शून्य विकलांगों को देखते हैं। विकलांगता तन की नहीं, मन की भी हो सकती है।
'रॉकस्टार' में जबरदस्त अभिनय के बाद रणबीर कपूर इस फिल्म में अपनी असाधारण अभिनय प्रतिभा प्रस्तुत करते हैं। वह भूमिका को आत्मसात करके अपने रोम-रोम का इस्तेमाल करते हैं। उनके शरीर की अपनी भाषा है और आत्मा पात्र में रमी होती है। प्रतिभा के साथ ही उनमें नई भूमिकाओं को करने का साहस है। वह स्वयं को फिल्म-दर-फिल्म मांझ रहे हैं और अपने काम की आग में तप रहे हैं। इस प्रक्रिया में कलाकार जलकर राख नहीं होता, वरन अनल पक्षी की तरह डैने पसारते हुए आकाश की सीमाओं को नापता है। दरअसल आज रणबीर कपूर की प्रतिभा और नया करने की ललक फिल्मकारों के सामने एक चुनौती है।
दो नायिकाओं की इस फिल्म में दक्षिण भारत की इलेना डी'क्रूज का चेहरा एक कैनवास है, जिस पर पात्र के भाव स्पष्ट उभरते हैं। फिल्म में वह स्वयं की तलाश में कटु अनुभवों से गुजरती है और अंत में अपना प्रेमी भले ही नहीं पाती, परंतु स्वयं की इच्छा-अनिच्छा को जान लेती है। अंतिम दृश्य में वह दूसरी नायिका झिलमिल की आवाज सुन लेती है और अपने बहरे प्रेमी को मार्ग नहीं दिखाकर उससे शादी कर सकती है, परंतु वह अब जान चुकी है कि स्वार्थ की भावना जीवन को शून्य कर देती है। वह जान गई है कि 'किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, जीना इसी का नाम है।' पंद्रह से पचहत्तर वर्ष की आयु तक के विविध अनुभवों को इलेना ने एक अनुभवी कलाकार की तरह प्रस्तुत किया है।
इस फिल्म के शुरुआती कुछ क्षणों में आप प्रियंका चोपड़ा को पहचान ही नहीं पाएंगे। दिमागी कमतरी की शिकार इस लड़की का विकास अवरुद्ध हुआ है और वह बचपन की आयु में थमी हुई है। प्रियंका ने इस ठहराव या ठिठके होने को इस मजबूती से पकड़ा है कि अपने शरीर की मादकता को भी छुपा लिया है। आज के दौर में सेक्स अपील दिखाने के लिए नायिकाएं लाख जतन करती हैं, परंतु प्रियंका को सलाम जिन्होंने पात्र के अनुरूप अपने को ढाला है। यह अद्भुत है। शरीर ठिठक गया है, परंतु उनकी आंखों में पूरा संसार अपने विराट स्वरूप में प्रस्तुत है। इस फिल्म में चरित्र भूमिकाओं में सबने कमाल किया है, परंतु इंस्पेक्टर की भूमिका में सौरभ शुक्ला हर पुरस्कार के हकदार हैं। उनकी खाकी वर्दी के भीतर एक संवेदनशील हृदय धड़कता है। आज की बेजान कड़क वर्दियों के पीछे छुपे मशीनी गुलामों के दौर में यह पात्र हमें दिलासा देता है।
अनुराग बसु ने हॉलीवुड के प्रारंभिक दौर मे चार्ली चैपलिन और बस्टर कीटन के मासूम सिनेमा का पुनरावलोकन प्रस्तुत करके भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष को रोशन कर दिया है। अनुराग बसु का प्रस्तुतीकरण जामेजम अर्थात क्रिस्टल बॉल की तरह है, जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य की झलकियां एक साथ झिलमिलाती हैं। इस अद्भुत तकनीक के कारण रस भंग होने की संभावना भी निहित है, परंतु यही उनकी शैली है, जो हम 'लाइफ इन ए...मेट्रो' में देख चुके हैं। 'बर्फी' एक ऐसी फिल्म है, जिसका स्वाद वर्षों आपके जेहन में रह सकता है और मधुमेह का खतरा भी नहीं है।