आनंदमठ - भाग 2 / बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
जंगल के भीतर घनघोर अंधकार है। कल्याणी को उधर राह मिलना मुश्किल हो गया। वृक्ष-लताओं के झुरमुट के कारण एक तो राह कठिन, दूसरे रात का घना अंधेरा। कांटों से विंधती हुई कल्याणी उन आदमखोरों से बचने के लिए भागी जा रही थी। बेचारी कोमल लड़की को भी कांटे लग रहे थे। अबोध बालिका गोद में चीखकर रोने लगी; उसका रोना सुनकर दस्युदल और चीत्कार करने लगा। फिर भी, कल्याणी पागलों की तरह जंगल में तीर की तरह घुसती भागी जा रही थी। थोड़ी ही देर में चंद्रोदय हुआ। अब तक कल्याणी के मन में भरोसा था कि अंधेरे में नर-पिशाच उसे देख न सकेंगे, कुछ देर परेशान होकर पीछा छोड़कर लौट जाएंगे, लेकिन अब चांद का प्रकाश फैलने से वह अधीर हो उठी। चन्द्रमा ने आकाश में ऊंचे उठकर वन पर अपना रुपहला आवरण पैला दिया, जंगल का भीतरी हिस्सा अंधेरे में चांदनी से चमक उठा- अंधकार में भी एक तरह की उ”वलता फैल गई- चांदनी वन के भीतर छिद्रों से घुसकर आंखमिचौनी करने लगी। चंद्रमा जैसे-जैसे ऊपर उठने लगा, वैसे-वैसे प्रकाश फैलने लगा जंग को अंधकार अपने में समेटने लगा। कल्याणी पुत्री को गोद में लिए हुए और गहन वन में जाकर छिपने लगी। उजाला पाकर दस्युदल और अधिक शोर मचाते हुए दौड़-धूप कर खोज करने लगे। कन्या भी शोर सुनकर और जोर से चिल्लाने लगी। अब कल्याणी भी थककर चूर हो गई थी; वह भागना छोड़कर वटवृक्ष के नीचे साफ जगह देखकर कोमल पत्तियों पर बैठ गई और भगवान को बुलाने लगी-कहां हो तुम? जिनकी मैं नित्य पूजा करती थी, नित्य नमस्कार करती थी, जिनके एकमात्र भरोसे पर इस जंगल में घुसने का साहस कर सकी.... ..कहां हो, हे मधुसूदन! इस समय भय और भक्ति की प्रगाढ़ता से, भूख-प्यास से थकावट से कल्याणी धीरे अचेत होने लगी; लेकिन आंतरिक चैतन्य से उसने सुना, अंतरिक्ष में स्वर्गीय गीत हो रहा है-
हरे मुरारे! मधुकैटभारे! गोपाल, गोविंद मुकुंद प्यारे! हरे मुरारे मधुकैटभारे!....
कल्याणी बचपन से पुराणों का वर्णन सुनती आती थी कि देवर्षि नारद हाथों में वीणा लिए हुए आकाश पथ से भुवन-भ्रमण किया करते हैं- उसके हृदय में वही कल्पना जागरित होने लगी। मन-ही-मन वह देखने लगी- शुभ्र शरीर, शुभ्रवेश, शुभ्रकेश, शुभ्रवसन महामति महामुनि वीणा लिए हुए, चांदनी से चमकते आकाश की राह पर गाते आ रहे हैं।
हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....
क्रमश: गीत निकट आता हुआ, और भी स्पष्ट सुनाई पड़ने लगा-
हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....
क्रमश: और भी निकट, और भी स्पष्ट-
हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....
अंत में कल्याणी के मस्तक पर, वनस्थली में प्रतिध्वनित होता हुआ गीत होने लगा-
हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....
कल्याणी ने अपनी आंखें खोलीं। धुंधले अंधेरे की चांदी में उसने देखा- सामने वही शुभ्र शरीर, शुभ्रवेश, शुभ्रकेश, शुभ्रवसन ऋषिमूर्ति खड़ी है। विकृत मस्तिष्क और अर्धचेतन अवस्था में कल्याणी ने मन में सोचा-- प्रणाम करूं, लेकिन सिर झुकाने से पहले ही वह फिर अचेत हो गयी और गिर पड़ी।
रात काफी बीत चुकी है। चंद्रमा माथे के ऊपर है। पूर्ण चंद्र नहीं है, इसलिए चांदनी भी चटकीली नहीं- फीकी है। जंगल के बहुत बड़े हिस्से पर अंधकार में धुंधली रोशनी पड़ रही है। इस प्रकाश में मठ के इस पार से दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता। मठ मानो एकदम जनशून्य है- देखने से यही मालूम होता है। इस मठ के समीप से मुर्शिदाबाद और कलकत्ते को राह जाती है। राह के किनारे ही एक छोटी पहाड़ी है, जिस पर आम के अनेक पेड़ है। वृक्षों की चोटी चांदनी से चमकती हुई कांप रही है, वृक्षों के नीचे पत्थर पर पड़नेवाली छाया भी कांप रही है। ब्रह्मचारी उसी पहाड़ी के शिखर पर चढ़कर न जाने क्या सुनने लगे। नहीं कहा जा सकता कि वे क्या सुन रहे थे। इस अनंत जंगल में पूर्ण शांति थी- कहीं ऐसे ही पत्तों की मर्मर-ध्वनि सुनाई पड़ जाती थी। पहाड़ की तराई में एक जगह भयानक जंगल है। ऊपर पहाड़ नीचे जंगल बीच में वह राह है। नहीं कह सकते कि उधर कैसी आवाज हुई जिसे सुनकर ब्रह्मचारी उसी ओर चल पड़े। उन्होंने भयानक जंगल में प्रवेश कर देखा कि वहां एक घने स्थान में वृक्षों की छाया में बहुतेरे आदमी बैठे हैं। वे सब मनुष्य लंबे, काले, और सशस्त्र थे पेड़ों की छाया को भेदकर आनेवाली चांदनी उनके शस्त्रों को चमका रही थी। ऐसे ही दो सौ आदमी बैठे हैं और सब शांत, चुप हैं। ब्रह्मचारी उनके बीच में जाकर खड़े हो गए और उन्होंने कुछ इशारा कर दिया, जिससे कोई भी उठकर खड़ा न हुआ। इसके बाद वह तपस्वी महात्मा एक तरफ से लोगों को चेहरा गौर से देखते हुए आगे बढ़ने लगे, जैसे किसी को खोजते हों। खोजते-खोजते अन्त में वह पुरुष मिला और ब्रह्मचारी के उसका अंग स्पर्श कर इशारा करते ही वह उठ खड़ा हुआ। ब्रह्मचारी उसे साथ लेकर दूर आड़ में चले गए। वह पुरुष युवक और बलिष्ठ था- लंबे घुंघराले बाल कंधे पर लहरा रहे थे। पुरुष अतीव सुंदर था। गैरिक वस्त्रधारी तथा चंदनचर्चित अंगवाले ब्रह्मचारी ने उस पुरुष से कहा- भवानंद! महेंद्र सिंह की कुछ खबर मिली है?
इस पर भवानंद ने कहा\स्-आज सबेरे महेंद्रसिंह अपनी पत्नी और कन्या के साथ गृह त्यागकर बाहर निकलें हैं-बस्ती में.....
इतना सुनते ही ब्रह्मचारी ने बात काटकर कहा-बस्ती में जो घटना हुई है, मैं जानता हूं। किसने ऐसा किया?
भवानंद-गांव के ही किसान लोग थे। इस समय तो गांवों के किसान भी पेट की ज्वाला से डाकू हो गए हैं। आजकल कौन डाकू नहीं है? हम लोगों ने भी आज लूट की है- दारोगा साहब के लिए दो मन चावल जा रहा था, छीनकर वैष्णवों को भोग लगा दिया है।
ब्रह्मचारी ने कहा-चोरों के हाथ से तो हमने स्त्री-कन्या का उद्धार कर लिया है। इस समय उन्हें मठ में बैठा आया हूं। अब यह भार तुम्हारे ऊपर है कि महेंद्र को खोजकर उनकी स्त्री-कन्या उनके हवाले कर दो। यहां जीवानंद के रहने से काम हो जाएगा।
भवानंद ने स्वीकार कर लिया। तब ब्रह्मचारी दूसरी जगह चले गए।
इसी वन में एक बहुत विस्तृत भूमि पर ठोस पत्थरों से मिर्मित एक बहुत बड़ा मठ है। पुरातत्त्ववेत्ता उसे देखकर कह सकते हैं कि पूर्वकाल में यह बौद्धों का विहार था- इसके बाद हिंदुओं का मठ हो गया है। दो खंडों में अट्टालिकाएं बनी है, उसमें अनेक देव-मंदिर और सामने नाटयमंदिर है। वह समूचा मठ चहारदीवारी से घिरा हुआ है और बाहरी हिस्सा ऊंचे-ऊंचे सघन वृक्षों से इस तरह आच्छादित है कि दिन में समीप जाकर भी कोई यह नहीं जान सकता कि यहां इतना बड़ा मठ है। यों तो प्राचीन होने के कारण मठ की दीवारें अनेक स्थानों से टूट-फूट गई हैं, लेकिन दिन में देखने ने से साफ पता लगेगा कि अभी हाल ही में उसे बनाया गया है। देखने से तो यही जान पड़ेगा कि इस दुर्भेद्य वन के अंदर कोई मनुष्य रहता न होगा। उस अट्टालिका की एक कोठरी में लकड़ी का बहुत बड़ा कुन्दा जल रहा था। आंख खुलने पर कल्याणी ने देखा कि सामने ही वह ऋषि महात्मा बैठे हैं। कल्याणी बड़े आश्चर्य से चारों तरफ देखने लगी। अभी उसकी स्मृति पूरी तरह जागी न थी। यह देखकर महापुरुष ने कहा- बेटी! यह देवताओं का मंदिर है, डरना नहीं। थोड़ा दूध है, उसे पियो; फिर तुमसे बातें होंगी।
पहले तो कल्याणी कुछ समझ न सकी, लेकिन धीरे-धीरे उसके हृदय में जब धीरज हुआ तो उसने उठकर अपने गले में आंचल डालकर, जमीन से मस्तक लगाकर प्रणाम किया। महात्माजी ने सुमंगल आशीर्वाद देकर दूसरे कमरे से एक सुगंधित मिट्टी का बरतन लाकर उसमें दूध गरम किया। दूध के गरम हो जने पर उसे कल्याणी को देकर बोले- बेटी! दूध कन्या को भी पिलाओ, स्वयं भी पियो, उसके बाद बातें करना। कल्याणी संतुष्ट हृदय से कन्या को दूध पिलाने लगी। इसके बाद उस महात्मा ने कहा- मैं जब तक न आऊं, कोई चिंता न करना। यह कहकर कमरे के बाहर चले गए। कुछ देर बाद उन्होंने लौटकर देखा कि कल्याणी ने कन्या को तो दूध पिला दिया है, लेकिन स्वयं कुछ नहीं पिया। जो दूध रखा हुआ था, उसमें से बहुत थोड़ा खर्च हुआ था। इस पर महात्मा ने कहा- बेटी! तुमने दूध नहीं पिया? मैं फिर बाहर जाता हूं; जब तक तुम दूध न पियोगी, मैं वापस न आऊंगा।
वह ऋषितुल्य महात्मा यह कहकर बाहर जा रहे थे; इसी समय कल्याणी फिर प्रणाम कर हाथ जोड़ खड़ी हो गई।
महात्मा ने पूछा-क्या कहना चाहती हो?
कल्याणी ने हाथ जोड़े हुए कहा- मुझे दूध पीने की आज्ञा न दें। उसमें एक बाधा है, मैं पी न सकूंगी।.......
इस पर महात्मा ने दु:खी हृदय से कहा- क्या बाधा है? मैं ब्रह्मचारी हूं, तुम मेरी कन्या के समान हो; ऐसी कौन बात हो सकती है जो मुझसे कह न सको? मैं जब तुम्हें वन से उठाकर यहां ले आया, तो तुम अत्यंत भूख प्यास से अवसन्न थी, तुम यदि दूध न पियोगी तो कैसे बचोगी?
इस पर कल्याणी ने भरी आंखें और भरे गले से कहा- आप देवता है, आपसे अवश्य निवेदन करूंगी - अभी तक मेरे स्वामी ने कुछ नहीं खाया है, उनसे मुलाकात हुए बिना या संवाद मिले बिना मैं भोजन न कर सकूंगी। मैं कैसे खाऊंगी..
ब्रह्मचारी ने पूछा- तुम्हारे पतिदेव कहां हैं?
कल्याणी बोली- यह मुझे मालूम नहीं- दूध की खोज में उनके बाहर निकलने पर ही डाकू मुझे उठा ले गए इस पर ब्रह्मचारी ने एक-एक बात पूछकर कल्याणी से उसके पति का सारा हाल मालूम कर लिया। कल्याणी ने पति का नाम नहीं बताया, बता भी नहीं सकती थी, किंतु अन्याय परिचयों से ब्रह्मचारी समझ गए। उन्होंने पूछा- तुम्हीं महेंद्र की पत्नी हो? इसका कोई उत्तर न देकर कल्याणी सिर झुका कर, जलती हुई आग में लकड़ी लगाने लगी। ब्रह्मचारी ने समझकर कहा- तुम मेरी बात मानो, मैं तुम्हारे पति की खोज करता हूं। लेकिन जब तक दूध न पिओगी, मैं न जाऊंगा?
कल्याणी पूछा- यहां थोड़ा जल मिलेगा?
ब्रह्मचारी ने जल का कलश दिखा दिया। कल्याणी ने अंजलि रोपी, ब्रह्मचारी ने जल डाल दिया। कल्याणी ने उस जल की अंजलि को महात्मा के चरणों के पास ले जाकर कहा- इसमें कृपा कर पदरेणु दे दें। महात्मा के अंगूठे द्वारा छू देने पर कल्याणी ने उसे पीकर कहा- मैंने अमृतपान कर लिया है। अब और कुछ खाने-पीने को न कहिए। जब तक पतिदेव का पता न लगेगा मैं कुछ न खाऊंगी।
इस पर ब्रह्मचारी ने संतुष्ट होकर कहा- तुम इसी देवस्थान में रहो। मैं तुम्हारे पति की खोज में जाता हूं।
बस्ती में बैठे रहने और सोचते रहने का कोई प्रतिफल न होगा- यह सोचकर महेंद्र वहां से उठे। नगर में जाकर राजपुरुषों की सहायता से स्त्री-कन्या का पता लगवाएं- यह सोचकर महेंद्र उसी तरफ चले। कुछ दूर जाकर राह में उन्होंने देखा कि कितनी ही बैलगाडि़यों को घेरकर बहुतेरे सिपाही चले आ रहे हैं।
बंगला सन् 1173 में बंगाल प्रदेश अंगरेजों के शासनाधीन नहीं हुआ था। अंगरेज उस समय बंगाल के दीवान ही थे। वे खजाने का रुपया वसूलते थे, लेकिन तब तक बंगालियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने ऊपर लिया न था। उस समय लगान की वसूली का भार अंगरेजों पर था, और कुल सम्पत्ति की रक्षा का भार पापिष्ट, नराधम, विश्वासघातक, मनुष्य-कुलकलंक मीरजाफर पर था। मीरजाफर आत्मरक्षा में ही अक्षम था, तो बंगाल प्रदेश की रक्षा कैसे कर सकता था? मीरजाफर सिर्फ अफीम पीता था और सोता था, अंगरेज ही अपने जिम्मे का सारा कार्य करते थे। बंगाली रोते थे और कंगाल हुए जाते थे।
अत: बंगाल का कर अंगरेजों को प्राप्य था, लेकिन शासन का भार नवाब पर था। जहां-जहां अंगरेज अपने प्राप्य कर की स्वयं अदायगी कराते थे, वहां-वहां उन्होंने अपनी तरफ से कलेक्टर नियुक्त कर दिए थे। लेकिन मालगुजारी प्राप्त होने पर कलकत्ते जाती थी। जनता भूख से चाहे मर जाए, लेकिन मालगुजारी देनी ही पड़ती थी। फिर भी मालगुजारी पूरी तरह वसूल नहीं हुई थी- कारण, माता-वसुमती के बिना धन-प्रसव किए, जनता अपने पास के कैसे गढ़कर दे सकती थी? जो हो, जो कुछ प्राप्त हुआ था, उसे गाडि़यों पर लादकर सिपाहियों के पहरे में कलकत्ते भेजा जा रहा था- धन कंपनी के खजाने में जमा होता। आजकल डाकुओं का उत्पात बहुत बढ़ गया है, इसीलिए पचास सशस्त्र सिपाही गाड़ी के आगे-पीछे संगीन खड़ी किए, कतार में चल रहे थे : उनका अध्यक्ष एक गोरा था जो सबसे पीछे घोड़े पर था। गरमी की भयानकता के कारण सिपाही दिन में न चलकर रात को सफर करते थे। चलते-चलते उन गाडि़यों और सिपाहियों के कारण महेंद्र की राह रुक गई। इस तरह राह रुकी होने के कारण थोड़ी देर के लिए महेंद्र सड़क के किनारे खड़े हो गए। फिर भी सिपाहियों के शरीर से धक्का लग सकता था, और झगड़ा बचाने के ख्याल से वे कुछ हटकर जंगल के किनारे खड़े हो गए।
इसी समय एक सिपाही बोला--यह देखो, एक डाकू भागता है। महेंद्र के हाथ में बंदूक देखकर उसका विश्वास दृढ़ हो गया। वह दौड़कर पहुंचा और एकाएक महेंद्र का गला पकड़कर साले चोर! कहकर उन्हें एक घूंसा जमाया और बंदूक छीन ली। खाली हाथ महेंद्र ने केवल घूंसे का जवाब घूंसे से दिया। महेंद्र को अचानक इस बर्ताव पर क्रोध आ गया था, यह कहना ही व्यर्थ है! घूंसा खाकर सिपाही चक्कर खाकर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। इस पर अन्य चार सिपाहियों ने आकर महेंद्र को पकड़ लिया और उन्हें उस गोरे सेनापति के पास ले गए। अभियोग लगाया कि इसने एक सिपाही का खून किया है। गोरा साहब पाइप से तमाखू पी रहा था, नशे के झोंके में बोला--साले को पकड़कर शादी कर लो। सिपाही हक्का-बक्का हो रहे थे कि बंदूकधारी डाकू से सिपाही कैसे शादी कर लें? लेकिन नशा उतरने पर साहब का मत बदल सकता है कि शादी कैसे होगी- यही विचार कर सिपाहियों ने एक रस्सी लेकर महेंद्र के हाथ-पैर बांध दिए और गाड़ी पर डाल दिया। महेंद्र ने सोचा कि इतने सिपाहियों के रहते जो लगाना व्यर्थ है, इसका कोई फल न होगा; दूसरे स्त्री-कन्या के गायब होने के कारण महेंद्र बहुत दु:खी और निराश थे; सोचा-- अच्छा है, मर जाना ही अच्छा है! सिपाहियों ने उन्हें गाड़ी के बल्ले से अच्छी तरह बांध दिया और इसके बाद धीर-गंभीर चाल से वे लोग फिर पहले की तरह चलने लगे।