आनंद मरा नही, आनंद कभी मरते नही / नवल किशोर व्यास
देवदास जहां जीवन के प्रति शोक और विलाप का अनुपम उदाहरण है तो इसके ठीक उलट ऋषिकेष मुखर्जी के राजेश खन्ना के निभायें किरदार आनंद को जीवन की तमाम मुश्किलों के बीच भी उसके प्रति असीम प्रेम के लिये याद किया जा सकता है। देवदास बेचैनियों से भरा किरदार है तो आनंद भरपूर जिंदादिली का। देवदास को अपनी जिन्दगी लुटानी थी तो आनंद को अपनी बची-खुची जिंदगी के हर पल को जीना था। देवदास और आनंद के दो किरदारो को हम जीवन के प्रति अनुराग और विरक्ति के रूप में भी देख सकते है। ‘आनंद मरा नही, आनंद मरते नही‘ इस एक अहम वाक्य को लेकर ऋषिकेष मुखजी की ये फिल्म और ये अनोखा किरदार चलता है और मौत के इंतजार के पहले जीवन को भरपूर जीने की कवायद दिखाई देती है। आनंद अपनी तयशुदा मौत से मिलने से पहले अपने बचे हुए सारे लम्हे समेट लेना चाहता है। आनंद हंसोड है। जहां जाता है, खुशियां बिखेरता है। उसे घूलने मिलने में ज्यादा समय नही लगता है और अपनी हाजिरजवाबी से सबको दंग कर देता है। जीवन में प्रायः जो ज्यादा हंसते है वो ही भीतर से उतने ही ज्यादा गहरे और गमगीन होते है। बाबू मोशाय हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां है जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कहां उठेगा कोई नहीं जानता, इस तरह की जिंदादिली को गढने वाला हिन्दी सिनेमा आनंद था। राजेश खन्ना का जब भी जिक्र होगा, आनंद के बिना अधूरा रहेगा। ऋषिकेश मुखर्जी की इस क्लासिक फिल्म में कैंसर (लिम्फोसर्कोमा ऑफ इंटेस्टाइनस) से पीडीत किरदार को जिस तरह से सोचा और लिखा गया वो हम सब के लिये अब तक नजीर है। आनंद सब की जिंदगी में अचानक से छूकर गुजरता है और सभी को चौकाते हुए जिंदगी के नये मायने समझाता जाता है। ये आनंद की जिंदादिली ही होती है कि वो हर नये आदमी के कंधे पर हाथ मारकर कहता है, कैसे हो मुरारी लाल, पहचाना कि नहीं और स्क्रिप्ट की खूबसूरती देखियें कि एक दिन सच में कोई उसको उसके जैसा मिलता तो पलटकर उसे ही चकित कर देता है। आनंद को देखना और उसमें भावनात्मक रूप से तर-बतर हो जाना भी जीवन आनंद है। आनंद ने सिखाया कि मौत तो आनी है, लेकिन हम जीना नहीं छोड़ सकते। जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। जिंदगी जितनी जियो, दिल खोलकर जियो। फिल्म में एक जगह आनंद डा0 भास्कर बने अमिताभ को कहता भी है कि कोई भी आदमी अपनी मौत को देखना नही चाहता पर मैं वो अभागा हूं जो हर पल आपकी आंखो में अपनी आती हुई मौत को देख रहा हूं। आनंद की आने वाले मौत को लेकर आंनद के अलावा बाकी सभी के मन में डर है और आनंद उस आने वाले डर को अपने भीतर रखें जीवन का उल्लास मनाने में मगन। फिल्म की पटकथा और संवाद लिखे थे गुलजार ने और जिस जिस को गुलजार के पटकथा लेखक के तौर पर बेहतरीन काम को देखना समझना हो उसके लिये आनंद से बेहतर कुछ नही। जब गुलजार लिखते है कि मौत तो बस एक पल है, जब तक जिंदा हूं, तब तक मरा नही जब मर गया साला मैं ही नही तो ये उस ठीक समय उस एक फिल्म का डायलॉग नही होकर हम सब के लिये जीवनआदर्श के रूप में लिखी हुई बात बन जाती है। सिनेमा और साहित्य की यही खासियत होनी चाहिए। उसे देश, काल और स्थितियों से आगे हर उस मानव मन की आवाज बननी चाहिए जहां वो किसी भी आदमी की संवेदना से एकाकार हो सके। आनंद की जिंदगी में आने वाले किरदारो पर गौर करें। डा0 प्रकाश
बने रमेश देव, रेणु के रोल में सुमिता सान्याल, सुमन के रोल में सीमा, सख्त मैट्रेन के रोल में ललिता पंवार, ईसा भाई के रोल में जॉनी वॉकर, मरीज के रूप में असित सेन और पहलवान दारा सिंह हमारे में से ही निकले हुए किरदार है। हम सब ने इन सब को कही न कही हमारी आम सी जिंदगी में देखा है, पाया है। मौत जब करीब हो तो कहते है आदमी नशें में बोलने लग जाता है। उसका जिया हुआ पूरा जीवन फिल्म की तरह उसके सामने दिखाई देता है। उस फिल्म को देखते हुए आदमी रोता है, हंसता है, अफसोस करता है और इस तरह से मौत आखिरी सफर पर ले जाने हमसे मिलने आती है। पर जब यही मौत गुलजार अपने जादुई शब्दों में लाते है तो वो इस तरह होती है-
मौत तू एक कविता है/ मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको