आनंद राय का सानंद सिनेमा! / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :10 सितम्बर 2016
आनंद राय ने टेलीविजन के लिए कार्यक्रम बनाने के अच्छे-खासे अनुभव के बाद फिल्म निर्माण में कदम रखा। उनकी 'तनु वेड्स मनु' और 'रांझना' में गजब की ताज़गी थी। उनके गीतकार राजशेखर फिल्मों की भावना को अपने गीतों से प्रखर बनाते रहे हैं जैसे 'खाकर अफीम रंगरेज पूछे रंग का कारोबार क्या है।' इस पंक्ति को इस तरह भी लिया जा सकता है कि मंत्री अफीम खाकर पूछे सरकार क्या बला है। कंगना रनौत के 'क्वीन' बनने में आनंद राय का बड़ा योगदान रहा है। अपने शिखर पर कंगना रनौत अमेरिका से पटकथा लेखन का कोर्स करके आई हैं। इसी के बाद अानंद राय ने उन्हें अपनी फिल्म में नहीं लिया परंतु अब कंगना अपने अहंकार को पीकर आनंद राय से मिन्नत कर रही हैं कि उनकी शाहरुख अभिनीत फिल्म में उन्हें शामिल करें। प्राय: बैल गाड़ी को खींचते हैं परंतु बीमार बैल गाड़ी पर लादकर ही अस्पताल ले जाया जाता है या कहें कि नाव को नदी किनारे गाड़ी पर ले जाते हैं परंतु नदी में बाढ़ आने पर बैलगाड़ी को नाव पर लादकर उस पार ले जाते हैं।
जब इस तरह की खबर आई थी कि आनंद राय की फिल्म में शाहरुख बौने का किरदार निभा रहे हैं तब कमल हासन द्वारा अभिनीत बौने की याद आई और शंका हुई कि एक सुपर सितारे को बौने की भूमिका कैसे दी जा सकती है, जबकि बॉक्स ऑफिस सफलता कलाकार का कद बढ़ा देती है परंतु 'हैप्पी भाग जाएगी' देखकर विश्वास हो गया कि आनंद राय शाहरुख खान के साथ अभिनव फिल्म रचेंगे और पचास पार शाहरुख खान के कॅरिअर में ढलान कुछ और वक्त के लिए टल जाएगी। हमने सुपर सितारे राजेश खन्ना को ढलान पर अत्यंत दयनीय दशा में देखा है। आसमान से टूटते सितारे को देखने आने वाले अच्छे वक्त का शगुन मानते हैं परंतु फिल्म का टूटता सितारा बहुत निरीह और कृपा के लिए गिड़गिड़ता नज़र आता है जैसे जंगल का शेर सरकस में अदने रिंग मास्टर के कोड़े पर तरह-तरह नाचकर दिखाता है। सितारा पद एक नशा है और इसे गंभीरता से लेने पर सिरोसिस ऑफ लिवर जैसा रोग हो सकता है।
बंगाली भाषा में लिखने वाले शंकर के उपन्यास 'चौरंगी' में एक बौने का पत्र है, जो होटल में प्रस्तुत आइटम में एक लंबी डांसर की जंघा पर चढ़ जाता है, पीठ पर बैठ जाता है और डांसर के कठिन स्टेप लेने पर नीचे गिर जाता है। शंकर ने बौने और डांसर को सगे भाई-बहन बताया है परंतु उनके द्वारा प्रस्तुत आइटम में वे प्रेमी हैं। शो बिज़नेस बहुत निर्मम होता है और दर्शक से तालियां बजवाने के लिए भांति-भांति के प्रहसन रचे जाते हैं। दर्शक या अवाम की तालियां कलाकारों और नेताओं की गिजा अर्थात खुराक होती है। वे इन्हीं तालियों पर पलते हैं। नेता तो अपने साथ अपने सवैतनिक तालियां बजाने वाले दर्शक हर देश में साथ ले जाता है परंतु कलाकार के लिए यह मुमकिन नहीं है। आजकल धर्म और जाति के आधार पर तालियां बजाने वाले स्वयं अपनी सेवाएं नेता को देते हैं। जब तक अवाम अपनी तालियों की असली ताकत और मूल्य नहीं समझेगा तब तक हुकूमत के प्रहसन जारी रहेंगे।
आनंद राय की फिल्म में बौने नायक की प्रेम कहानी सामान्य कद की स्त्री से हो सकती है- एेसा हम अनुमान लगा सकते हैं। अमृता प्रीतम की एक कहानी में कन्या का कद औसत कद से अधिक होने के कारण उसका विवाह नहीं होता। सच्चा प्रेम कद-काठी पर नहीं जाता परंतु यह आशीर्वाद सबको प्राप्त नहीं है। अाप अखबारों में विवाह विज्ञापन पढ़िए- सब में गेंहुआ रंग या कद की मांग होती है। नीरद चौधरी ने 'कांटीनेंट ऑफ सिरसे' में लिखा है कि गौर वर्ण, नदियां और मेले-तमाशों के प्रति भारतीय लोगों का गहरा रुझान होता है। हमारे सांवले देश में गौर वर्ण के प्रति रुझान संभवत: आर्यों के साथ आया है, जो इस धरती पर आक्रमण करके यहां बसने वाला पहला समूह है। आज 'बाहर वाले' और 'भीतर वाले' की परिभाषा बदल दी गई है।
कमल हासन ने जब बौने की भूमिका अभिनीत की तब फिल्म तकनीक आज की तरह विकसित नहीं थी। क्या अपनी अभिनीत भूमिकाओं का कोई स्थायी प्रभाव कलाकार पर पड़ता है? एक जमाने में निरंतर त्रासदी करने के कारण दिलीप कुमार को अकारण घिर आई उदासी ने बीमार कर दिया था और लंदन के मनोचिकित्सक की सलाह पर उन्होंने कॉमेडी फिल्में करना प्रारंभ की। परिणामसवरूप 'कोहिनूर' और ' राम और श्याम' बनी। क्या बौने की भूमिका आत्मसात करके अभिनीत करने के कारण शाहरुख खान पर कोई असर पड़ेगा? संभवत: वे 'माय नेम इज खान' नुमा हादसों से बचेंगे। उनके निवास 'मन्नत' से सलमान खान का 'गैलेक्सी' बमुश्किल एक किलोमीटर है, अत: पैदल चलकर भी वहां जा सकते हैं और मीडिया द्वारा तूल दिए 'खान बनाम खान' विवाद को समाप्त कर सकते हैं। कई बार चंद कदम का रास्ता पार करने में एक उम्र लग जाती है।