आनंद हृदय में है! / ओशो

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रवचनमाला

जीवन का आनंद, जीने वाले की दृष्टिं में होता है। वह आप में है। वह आपके अनुरूप होता है। क्या आपको मिलता है- उसमें नहीं, कैसे आप उसे लेते हैं- उसमें ही वह छिपा है।

मैंने सुना है- कहीं मंदिर बन रहा था। तीन श्रमिक धूप में बैठे पत्थर तोड़ रहे थे। एक राहगीर ने पूछा, क्या कर रहे हैं?

एक से पूछा। वह बोला, पत्थर तोड़ रहा हूं। उसने गलत नहीं कहा था। लेकिन, उसके कहने में दुख था और बोझ था। निश्चय ही पत्थर तोड़ना आनंद की बात कैसे हो सकती है? वह उत्तर देकर फिर उदास मन से पत्थर तोड़ने लगा था।

दूसरे से पूछा। वह बोला, आजीविका कमा रहा हूं। उसने जो कहा वह भी ठीक था। वह दुखी नहीं दिख रहा था, लेकिन आनंद का कोई भाव उसकी आंखों में नहीं था। निश्चय ही आजीविका कामना भी काम ही है, आनंद वह कैसे हो सकता है?

तीसरे से पूछा। वह गीत गा रहा था। उसने गीत को बीच में रोक कर कहा, मैं मंदिर बना रहा हूं। उसकी आंखों में चमक थी और हृदय में गीत था। निश्चय ही मंदिर बनाना कितना सौभाग्यपूर्ण है! और, सृजन से बड़ा आनंद और क्या है?

मैं सोचता हूं कि जीवन के प्रति भी ये तीन उत्तर हो सकते हैं। आप कौन-सा उत्तर चुनते हैं, वह आप पर निर्भर है। और, जो आप चुनेंगे, उस पर ही आपके जीवन का अर्थ और अभिप्राय निर्भर होगा। जीवन तो वही है, पर दृष्टिं भिन्न होने से सब-कुछ बदल जाता है। दृष्टिं भिन्न होने से फूल कांटे हो जाते हैं और कांटे फूल बन जाते हैं । आनंद तो हर जगह है, पर उसे अनुभव कर सकें, ऐसा हृदय सबके पास नहीं है। और, कभी किसी को आनंद नहीं मिला है, जब तक कि उसने उसे अनुभव करने के लिए आने हृदय को तैयार न कर लिया हो। विशेष स्थिति और स्थान नहीं- वरन जो आनंद अनुभव करने की भावदशा को पा लेता है, उसे हर स्थिति और स्थान में ही आनंद मिल जाता है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)