आनंद / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
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सुबह, दोपहर, शाम एक ही चिंता सताए रहती है नाश्ते में क्या बनाऊँ। खाने में क्या बनाऊँ। सोचती हूँ कुछ ऐसा बनाऊँ कि खाकर सब तृप्त हो जाएँ और कहें-'आज तो खाने में आनंद आ गया।'

बहुत कोशिश करती हूँ इस सबके लिए. पर रोज ही सुनने को मिलता है-'क्या वाहियात पकाया है।'

सब्जी में कभी मिर्च कम बताते हैं तो कभी तेल अधिक। कभी कहते हैं 'रेशे वाली क्यों बनाई है?' और रेशे वाली बना दो तो कहते हैं 'यह सब्जी रेशे की कबसे बनने लगी?' गोभी बनाओ तो भिंडी का मन हो जाता है। टिंडे बनाओ तो उनको बैंगन भाता है।

ये सब सुन-सुनकर, सह-सहकर मैं पक गयी हूँ, इतना कि अब पकाने में आनंद ही नहीं आता। जब खाना पकाने वाले को खाना पकाने में आनंद नहीं आता है तो खाना खाने वाले को खाने में कहाँ से मिलेगा, आनंद?