आनन्दी कौआ / गिजुभाई बधेका / काशीनाथ त्रिवेदी
एक कौआ था। एक बार राजा ने उसे अपराधी ठहराया और अपने आदमियों से कहा, "जाओ, इस कौए को गांव के कुएं के किनारे के दलदल में रौंदकर मार डालो।" कौए को दलदल में डाल दिया। वह खुशी-खुशी गाने लगा:
दलदल में फिसलना सीखते हैं, भाई!
दलदल में फिसलना सीखते हैं।
राजा को और उसके आदमियों को यह देखकर अचम्भा हुआ कि दलदल में डाल देने के बाद दुखी होने के बदले कौआ आनन्द से गा रहा है। राजा को गुस्सा आया। उसने हुक्म दिया, "इसे कुएं में डाल दो, जिससे यह डूबकर मर जाय।"
कौए को कुएं में डाल दिया गया। कौआ कुएं में पड़े-पड़े बोला:
कुएं में तैरना सीखते है, भाई!
कुएं में तैरना सीखते हैं।
राजा ने कहा, "अब इसको इससे भी कड़ी सजा देनी चाहिए।"
बाद में कौए को कांटों की एक बड़ी झाड़ी में डाल दिया गया। लेकिन कौआ तो वहां भी वैसे ही रहा। बड़ आनन्दी स्वर में गाते-गाते बोला:
कोमल कान छिदवा रहे है भाई!
कोमल कान छिदवा रहे हैं।
राजा ने कहा, "कौआ तो बड़ा जबरदस्त है! दु:ख कैसा भी क्यों ने हो, यह तो दुखी होता ही नहीं। अब यह देखें कि सुख वाली जगह में रखने से दु:ख होता है या नही?" उन्होंने उसे तेल की एक कोठी में डलवा दिया।
कौए भाई के लिए तो यह भी मौज की जगह रही वह खुश होकर बोला:
कान में तेल डलवा रहे हैं, भाई!
कान में तेल डलवा रहे हैं।
इसके बाद राजा ने कौए को घी की नांद में डलवा दिया। नांद में पड़ा-पड़ा कौआ बोला:
घी के लोंदे खाता हूं, भाई!
घी के लोंदे खाता हूं।
राजा बहुत ही गुस्सा हुआ और उसने कौए को गुड़ की कोठी में डलवा दिया। कौए भाई मौज में आकर बोले:
गुड़ के चक्के खाते हैं, भाई!
गुड़ के चक्क खाते है।
राजा क्या करे! उसने अब कौए को झोपड़े पर फिकवा दिया। पर वहा बैठे-बैठे भी कौआ बोला:
खपरैल डालना सीखते है, भाई!
खपरैल डालना सीखते हैं।
आखिर राजा ने थकर कहा, "इस कौए को हम कोई सजा नहीं दे सकेंगे। यह तो किसी दु:ख को दु:ख मानता ही नहीं है। इसलिए अब इसे खुला छोड़ दो, उड़ा दो।" कौए को उड़ा दिया गया।