आनन्द और पीड़ा / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
मई माह में एक दिन आनन्द और पीड़ा एक झील के किनारे मिले। उन्होंने एक-दूसरे का अभिवादन किया और ठहरे हुए जल के किनारे बैठकर बातें करने लगे।
आनन्द ने धरती पर स्थित सुन्दरता के बारे में बात शुरू की। उसने वनों और पहाड़ों में रोजमर्रा होने वाली अद्भुत घटनाओं की चर्चा की। ज्वार-भाटे से उत्पन्न होते गीत-संगीत की बात की।
पीड़ा भी बोली। उसने आनन्द की सभी बातों से सहमति जताई। काल के जादू और उसकी सुन्दरता की बात की। खेतों और पहाड़ों की मई के दौरान हालत पर बात करते हुए उसने हताशा महसूस की।
दोनों देर तक बातें करते रहे। दोनों जो कुछ भी जानते थे, उससे सहमत थे।
तभी, झील के उस पार दो शिकारी वहाँ से गुजरे। जैसे ही उन्होंने इस पार निगाह दौड़ाई, उनमें से एक बोला, "बड़े ताज्जुब की बात है, उस पार कौन दो लोग बैठे है?"
"तुम दो कह रहे हो? मुझे तो केवल एक ही नजर आ रहा है!"
"लेकिन वहाँ दो ही हैं।" पहले शिकारी ने कहा।
"मैं साफ देख रहा हूँ। वहाँ एक ही है।" दूसरे ने कहा, "झील में परछाई भी एक ही है।"
"नहीं। दो हैं।" पहला बोला, "और ठहरे हुए पानी में परछाइयाँ भी दो लोगों की ही हैं।"
लेकिन दूसरे ने पुन: कहा, "मुझे तो एक ही दीख रहा है।"
"मैं तो साफ-साफ दो देख रहा हूँ।" पहले ने पुन: कहा।
और आज तक भी, एक शिकारी कहता है कि उसको दो दिखाई देते हैं। जबकि दूसरा कहता है, "मेरा दोस्त थोड़ा अन्धा हो चला है।"