आना तो शायद तय है, लेकिन जाना? / मनोहर चमोली 'मनु'
सूचना अचानक मिली और हैरानी वाली थी। बीते दिवस (24 अप्रैल 2014 की सांय...) मेरे मित्र और शिक्षक श्री गिरीश सिंह नेगी जी के पिता का देहावसान हो गया।
गाहे-बगाहे ही नहीं, कमोबेश उनसे मेरी रोज़ ही मुलाकात होती थी। आना-जाना जो उनके घर के सामने से होता था। मैं पता नहीं क्यों, उन्हें मामाजी कहता था। खूब मज़ाक होती थी। कई बार बहस नाराज़गी के स्तर तक जा पहुँचती थी। उनका शरीर हट्टा-कट्टा था। गौरा रंग। विस्तारित माथा। वे सेना से रिटायर सदा क्लीन शेव रहते थे। सुबह-शाम घूमते थे। बागवानी करते थे। छिटपुट खेती-बाड़ी में हिस्सेदारी उनका रोज़ का नियम था। प्रत्येक आने-जाने वाले पर उनकी नज़र होती थी। खूब मिलनसार थे। भारत की सेना और भारतीय क्रिकेट टीम के बेहद प्रशंसक थे। मैं जानबूझकर सेना पर तंज कसता तो वे तिलमिला जाते और आज के लौण्डों और शिक्षा विभाग पर ताने कसने लगते। बार्डर पर एक दिन ड्यूटी देने की चुनौती तक दे डालते। मुझसे अपने घर-परिवार की निजी बातें साझा करते थे।
पिछले कई समय से घुटने के दर्द से परेशान थे। लेकिन नियमित जांच करवाते थे। यहीं नहीं अपने रोजमर्रा के सारे काम करते। कण्टरों को लम्बवत् उनका एक हिस्सा काटकर उन पर इन दिनों लहसुन उगाए हुए थे, और उन्होंने उन्हें छत पर रखा हुआ था। घर-परिवार के लिए छत पर उन्हें मैं हमेशा चूल्हे में पानी गरम करते हुए देखता था। पिछले सात सालों से हमने कई बार हँसी-ठट्ठा किया। वे बाहर से कड़क थे, लेकिन अंदर से संवेदनशील इनसान थे। सामाजिक रिश्ते और मान-मर्यादा की उन्हें बहुत चिन्ता रहा करती थी। दूर-दूर तक उनकी बहुत हाम थी। यह स्पष्ट हुआ उनकी शव यात्रा के उठाने से लेकर जलने तक की समूची प्रक्रिया में। जिसने सुना, वह दौड़कर आया।
याद करता हूँ तो पाता हूँ कि मैं पहली बार किसी शव यात्रा में शामिल हुआ। बाकायदा गंगा में डुबकी भी लगाई। ऐसा नहीं है कि अब तक परिचित, परिजनों में किसी का देहावसान नहीं हुआ होगा। लेकिन न जाने क्यों इस तरह की पहले कई बार मिली दुखद सूचनाओं में इस कर्मकाण्ड में जाना अब तक क्यों रोके हुआ था? पिछले सात सालों से इस शहर में क्या आस-पास कई परिचितों की मौत की ख़बर ससमय भी मिली, लेकिन इससे पहले कभी न ही घाट गया और न ही रोते-बिलखते परिजनों के सम्मुख। अलबत्ता दूसरे रोज़ या उसके बाद निरन्तर जाना अलग बात है। रोना-बिलखना चल रहा था।
शव यात्रा घर से प्रारम्भ होने ही वाली थी कि श्री भगवान वर्मा धीरे से मेरे पास आए। रुपए देते हुए कहने लगे-‘‘ये लकड़ी के हैं। जो जमा कर रहा होगा। हमारी ओर से दे देना। मैं नहीं जा पाऊँगा।’’मैं हैरान हुआ तो वे समझ गए। धीरे से बोले-‘‘ये रिवाज है। देना होता है।’’ मुझे कहाँ से पता होता? खैर.... जब बसें घाट की ओर रवाना हुई तो उनके एक परिजन को सभी लोग लकड़ी के लिए रुपए दे रहे थे। बाकायदा वह पूछ रहे थे कि किसके हैं? कौन दे रहा है? बहरहाल। बाद में पता चला कि लकड़ी,खाना-पीना और आवागमन के लिए यही रुपए तुरत-फुरत में बेहद काम आते हैं। घर से रवानगी से पूर्व अंतिम दर्शन वाला समय बेहद भावुक हो गया था। शव की परिक्रमा में घर के छोटे बच्चे भी शामिल थे।
लगभग 69 वर्षीय मामाजी की इस यात्रा में मुस्लिम समुदाय के लोग, राजकीय सेवा में शामिल, रिटायर, नौजवान, नगर में छिटपुट रोजगार करने वाले भी थे। यह देखकर अच्छा लगा। वे लम्बे समय से यहाँ रह रहे हैं। कई जगह उठते-बैठते नज़र भी आते थे।अभी दस कि.मी. चले थे। सब रुक गए। शव की दिशा बदली गई। मेरे मित्र श्री मनोज नेगी ने बताया-‘‘यह इसलिए किया जाता है कि सब अब चले जाने वाले व्यक्ति से निवेदन कर रहे हैं कि अब इस ओर कभी पलट कर भी मत देखना। हमारे घर-परिवार की सुध मत लेना। किसी को परेशान न करना।’’ सात कुन्टल लकडि़याँ रखी गईं थीं।
श्रीनगर की गंगा जो मूलतः अलकनन्दा है के घाट पर पहुँचे। जल में पत्थरों का समतलीकरण कर लकडि़याँ रखी गईं। बाकायदा बीचोंबीच इस तरह व्यवस्था बनाई गई कि शव समूचा चिता से ढक जाए। शव के सभी कपड़े उतार कर चिता में औंधा लिटाया गया। श्री मनोज नेगी जी ने बताया कि पुरुष को औंधा यानि पेट के बल और महिला को पीठ के बल लिटाया जाता है। यह सब देखना अजी़ब सा लगता है। शव तो ऐसा लगता है कि अभी जी उठेगा। मानो सो रहा हो। इंसान क्यों कर देह को जलाता है? राख होने तक इंतजार करता है।
वहाँ दो ओगड़ बाबा भी घूमते पाए गए। पता चला है कि यह भोजन में सड़ी-गली,जली और बहती हुई आदम लाश ही खाते हैं। चिता वाले इन्हें अपने पास से जाने के लिए दक्षिणा देते हैं, जिससे वे चले जाएँ। इधर चिता जल रही थी, वहीं चिता के साथ आने वाले गंगा में डुबकी लगाने लगे। किसी ने कहा भी-‘‘ये लो। इन्हें कहाँ की जल्दी हो रही है ?चिता तो ठण्डी होने देते।’’ तब तक मैं भी दोस्तों के साथ डुबकी लगा चुका था। तभी बसों का नेतृत्व करने वाले पुकारने लगे-‘‘जो नहा चुके वो खाना खाने चलो।’’
हमारा तो पहले तय हुआ था कि स्नान कर लौट आएंगे। लेकिन फिर हम भी खाना खाने टीम मंे शामिल हो गए। श्री मनोज नेगी शहर के प्रतिष्ठित ज्वैलर हैं। चिता की ओर इशारा करते हुए बोले-‘‘इंसान का आना झूठ है। समाज में इतराना झूठ है। सब कुछ झूठ है। यदि कोई सच है तो सिर्फ यही। इंसान खाली हाथ आया था और देखो खाली हाथ ही जाएगा। जैसा आया था, वैसा ही भेजा जा रहा है।’’
चिता पर लिटाते समय देह पर घी मला जा रहा था। कितने कर्मकाण्ड होते हैं, इस प्रक्रिया में आज पता चला। मेरा हर गतिविधि को ध्यान से देखना स्वाभाविक था। साथी मित्र बोले-‘‘क्या यार। इस पर भी शोध करोगे क्या?’’
मैं चुप रहा। लेकिन मन में आ रहे विचारों को लिखना तो था ही। तभी मित्र मनोज नेगी जी ने एक बात और कही-‘‘मित्र। दुनिया में यह सबसे बड़ा सामाजिक काम माना जाता है। लोग दूर-दूर से दौड़भाग कर क्यों आते हैं? जान लो। इससे बड़ा सहयोग कुछ नहीं।’’आज मुझे लगा भी कि शोकाकुल परिवार थोड़े न इतनी व्यवस्था कर पाएगा। यह सब परिजन ही तो करते हैं। पड़ोसी-रिश्तेदार ही तो करते हैं। अंतिम सांस छोड़ने के बाद और राख हो जाने से पहले तक बहुत सारी व्यवस्थाएँ करनी होती हैं। आम आदमी की क्या बिसात? ऐसे कौन से कारण रहे होंगे कि शव यात्रा में महिलाओं को घरों तक ही सीमित रखा गया है?
संभवतः यह हर समुदाय और धर्म में एक जैसा है। जीवन भर इंसान और इंसान के परिजन कैसे भी रहते हों। क्या करते हों? लेकिन चिता के बाद ये सारे कर्मकाण्ड, तेरहवीं और श्राद्ध, फिर हर साल श्राद्ध दिवसों पर उनका तर्पण-अर्पण और भी न जाने क्या-क्या? इन सबका क्या मतलब है? क्या इनकी प्रासंगिकता अनवरत् चलती रहनी चाहिए। फिर शुद्ध-अशुद्ध, साल भर तक परहेज, भूत-प्रेत-आत्माओं-ख़बीसों आदि जैसी कपोल कल्पनाओं का प्रचार-प्रसार-डर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे हस्तांतरण करना ठीक है?
यह कुछ सवाल हैं, जो मन में बार-बार उठ रहे हैं। बहुत सारी बातें इस दौरान सीखने-समझने को मिली। यह भी कि मिथक और लोक मान्यता चाहें अप्रासंगिक भले ही हों, जब अपने पर आती है, तो उन्हें आँख मूँदकर मानना होता है।
दस-बीस साल पहले और ठेठ गाँव में तो और भी टोने-टोटकों में वक़्त जाया होता है। तेरहवीं तक न जाने क्या-क्या रस्में हैं। रीतियाँ हैं। मैं शोकाकुल परिवार के दुःख में शामिल हूँ। मामाजी का जाना अभी जाना था ही नहीं। वे स्वस्थ थे। पूरा खानदान उनके आस-पास था। आना तो शायद तय है, लेकिन जाना? जाना तो....