आपातकाल और शोले का संबंध / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :25 जून 2015
साप्ताहिक आउट लुक के ताजे अंक में लंदन में रहने वाले स्काॅॅलर संदीप्तो दासगुप्ता ने 'शोले' और आपातकाल पर विलक्षण लेख लिखा है, जिसे आप फिल्म के साथ जुड़ी सामाजिक प्रतिबद्धता का अभिनव लेख मान सकते हैं। यह लेख न केवल 'शोले' की समीक्षा है वरन् भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था पर भी प्रकाश डालता है। सिनेमा और राजनीति दोनों ही का आधार सामूहिक अवचेतन है। जो युवा फिल्म या राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में जाना चाहते हैं, उनके लिए पथ प्रदर्शक लेख है। आपातकाल शोले के प्रदर्शन के छह सप्ताह पूर्व घोषित हुआ था परंतु 40 वर्ष पूर्व दोनों घटनाओं में केवल समय की समानता नहीं, कुछ और भी है। 'शोले' में द्वंद्व पूर्व पुलिस अफसर और डाकू गब्बर सिंह का है। चम्बल में डाकू समस्या की जड़ में आर्थिक असमानता व घोर जातिवाद तथा मंत्री-पुलिस की भ्रष्ट जुगलबंदी है। परंतु गब्बर के साथ यह सामाजिक पुलिस-मंत्री सहयोग नहीं हैं और वह धोती की जगह जीन्स पहनता है परंतु गांव वालों की तरह तंबाकू खाता है। वह उस अराजकता का प्रतीक है जो व्यवस्था को तोड़ना चाहती है, सामाजिक संरचना को भंग करना चाहती है। पुलिस अफसर ठाकुर उसे पकड़ता है परंतु वह जेल से भागकर ठाकुर के परिवार का कत्ल कर देता है। वह ठाकुर के हाथ भी काट देता है। गोयाकि कानून के हाथ काट देता है। निहत्थे ठाकुर को इस नकारात्मक शक्ति से लड़ने के लिए दो बहादुर मुजरिमों की मदद लेना पड़ती है गोयाकि व्यवस्था का नुमाइंदा, व्यवस्था को बचाने के लिए बहादुर अपराधियों की मदद लेता है।
नेहरू ने भारत में विज्ञान व आधुनिकता का प्रवेश कराया, आणविक शोध संस्थान, तकनीकी शिक्षा का विस्तार किया, साथ ही साहित्य व कला अकादमी की स्थापना भी की। उनकी आर्थिक व्यवस्था में उद्योगों को लाइसेंस व उद्योगपतियों के आयकर से गरीबों की शिक्षा का प्रयास भ्रष्टाचार ने लील लिया और कई दशकों के बाद उद्योगपतियों व्यवस्था की मदद के साथ ही गरीबों को सीधे धन देने की मनरेगा योजना पर पहुंची परंतु वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। बहरहाल, जयप्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आंदोलन किया, जिसमें यह आह्वान भी किया गया कि फौज और पुलिस के खिलाफ बगावत करें। उसी समय भ्रष्ट व जातिवाद से ग्रसित न्याय व्यवस्था ने इंदिरा गांधी का चुनाव तकनीकी आधार पर निरस्त किया, जिसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील का मिश्रित फैसला आया कि वे प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं परंतु संसद में वोट नहीं दे सकतीं। बहरहाल, दासगुप्ता ने नेहरूवाद की असफलता को व्यवस्था के टूटने से जोड़ा है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया और रेडियो पर कहा कि देश के विघटन की शक्तियां व व्यापक अराजकता के कारण यह कदम उठाया गया है। इंदिरा गांधी न 'लेफ्ट थी, न राइट' व अराजकता बनाम व्यवस्था के मोड़ पर थीं और आपातकाल अनुशासन लागू करने के लिए लगाया गया था ऐसा उनका दावा था। आपातकाल का बचाव गैर-लोकप्रिय बात है परंतु इस अर्ध-सत्य से इनकार नहीं कर सकते कि गाड़ियां समय पर चलीं, औद्यौगिक परिणाम बेहतर आए और जेआरडी टाटा ने भी समर्थन किया परंतु यह गौण हो गया, क्योंकि उनके वंशज ने विकास के नाम पर कहीं और समर्थन किया।
बहरहाल, सलीम-जावेद ने 'शोले' के पहले 'दीवार' के नायक विजय जो किसी किस्म के आक्रोश का प्रतिनिधि था, को भी पुलिस के हाथों मरवा दिया, अत: वह फिल्म भ्रष्टाचार के विरोध के साथ उस व्यवस्था का भी समर्थन करती है जो भ्रष्ट थी। आपातकाल के दरमियान बहुत ज्यादतियां हुईं फिर भी टाइम पत्रिका ने संदेश दिया कि भारत गणतंत्र से अधिक विकास व अनुशासन पसंद करता है। फिल्म के एक दृश्य में ठाकुर गांव वालों को कहता है कि कभी-कभी हालात हिंसा इस्तेमाल करने को मजबूर करते हैं। मात्र यह दृश्य उसे बदले की फिल्म से ऊपर उठाता है। क्या शोले का कानून का रखवाला रहा, हाथ कटा ठाकुर इंदिरा गांधी है और उस समय पुलिस व फौज से विद्रोह की अपील और अराजकता का वातावरण गब्बर है? हाल में आडवाणी ने आशंका व्यक्त की कि आपातकाल फिर लगाया जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि बदनाम शब्द 'आपातकाल' का इस्तेमाल किए बिना भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनी जा सकती है