आप कहाँ हैं जित्ते सर / प्रकाश मनु
एक काली अफाट रात के बाद की सुबह। शोकमग्न। भीतर बहुत कुछ झिंझोड़ती, तोड़ती हुई सी। बार-बार रोती हुई सी आवाज में एक कातर पुकार, ‘जित्ते सर... जित्ते सर... जित्ते सर...!’ किसी भूडोल की तरह बार-बार चक्कर काटती हुई। और कितना ही चाहूँ, मैं खुद को रोक नहीं पाता। मानो खुद ही किसी अजानी भूल के लिए माफी माँग रहा होऊँ। कल रात ही दिल्ली से नीलू का फोन आया था। नीलू खट्टर। रात के कोई साढ़े बारह बजे होंगे शायद। या शायद कुछ ज्यादा। और रात की निस्तब्धता को चीरते हुए उसने वह खबर दी थी, जिसकी आशंका तो हर घड़ी थी, पर उसे हकीकत मानते हुए दिल थरथराता है। “आशुतोष, जित्ते सर नहीं रहे...अपने जित्ते सर...! अभागा कैंसर उन्हें ले गया। जिन्हें हजार परेशानियाँ नहीं मार पाईं, हजार मुश्किलें नहीं झुका पाईं, उन्हें कैंसर...! ओह, तरीके भी विधना के कैसे-कैसे हैं। जिसे ले जाना होता है, उसे वह हर हाल में छीन ही लेता है। यों भी अब उनके शरीर में जान ही कितनी थी, सारा रक्त जैसे सूख गया हो। कल ही अस्पताल से निगम बोध घाट पर हम लोग ले गए, विद्युत शवदाहगृह और...और...!” कहते-कहते नीलू रो पड़ा था। सुनते ही भीतर कोई तेज आग की लपट सी उठी थी जिसने सब उथल-पुथल कर दिया। वे जित्ते बाबू जो हमारे अध्यापक ही नहीं, बहुत कुछ थे...जिन्होंने हमें सही मानी में रचा था, वे अब कभी नहीं मिलेंगे...कभी नहीं! जित्ते बाबू की जो हालत थी, उसमें उन्हें शायद जाना ही था, पर यों अकेले...? नीलू बता रहा था, पिछले दो-ढाई महीने से हालत ज्यादा खराब थी। पर किसी पर निर्भर होना उन्हें पसंद नहीं था। श्यामला भाभी के जाने पर तो और भी सिमट से गए थे अपने में। यों हम लोग जाते तो खूब बातें करते थे। कभी-कभी हँसकर कहते, “मैं मोहताज होकर नहीं जीना चाहता। ऐसे जीवन से तो मौत भली।...ईश्वर से कभी कुछ माँगा नहीं। पर आजकल कभी-कभी प्रार्थना कर लेता हूँ, कि जीवन बस घिसटता रहे, उससे पहले मृत्यु दे देना, प्रभु...!” छुट्टी के दिन अकसर कुछ शिष्य लोग पहुँच जाते तो दो कमरों के उस छोटे से फ्लैट में थोड़ी रौनक हो जाती। “जित्ते सर बताइए, हमारे लिए कोई काम हो तो...!” सभी का आग्रह। इस पर हँसकर कहते, “काम होगा तो जरूर बताऊँगा। पर अभी तो ऐसी कोई बात नहीं। मैं खुद एम्स चला जाता हूँ। वहाँ कीमियोथैरेपी वे लोग कर रहे हैं।...और कुछ दवाइयाँ भी।...पर अब तो आदत पड़ गई है। शरीर है, तो उसके साथ सौ रोग। उन्हें अपना काम करने दो, मैं अपना करता रहूँगा।” “आशुतोष, तुम्हें बहुत याद करते थे।” नीलू बता रहा था, “एक दिन बातें कर रहे थे। पिछली बार मैं और तुम एक साथ मिले थे, उसी को याद करते थे बार-बार। मैंने कहा, बुलाऊँ आशुतोष को, तो बोले, नहीं...उसे बेकार परेशान करने से फायदा? वह जहाँ भी है, मेरे पास ही तो है। वैसे भी जो करना है, डाक्टरों को ही करना है।...और फिर तुम लोग तो हो ही, तुम सब। और मुझे क्या चाहिए?...कहते-कहते कुछ देर के लिए रुके। ऐसा लगा, कहीं गहरे अतल में हैं। फिर एक फीकी मुसकान के साथ बोले—अपनी इस ऊबड़-खाबड़ जिंदगी में बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ पाया। अब कोई इच्छा बाकी नहीं रही।...तुम लोग हो, मेरे सबसे अपने। बेटों से कहीं बढ़कर। तुममें भी मैं ही तो हूँ...!” नीलू कुछ ऐसे बता रहा था, जैसे शब्द उसके काबू में न हों और बस, आप से आप निकलते जा रहे हों! पता नहीं कब-कब की बातें। भूली-बिसरी यादों की पिटारी खुल गई थी और कितने ही भुला दिए गए प्रसंग...भावुक क्षण...! सुनकर आँखें टप...टप...टप...! ओह, जित्ते सर ने कितना दिया हम सबको, पर बदले में हम क्या कर सके? जब उन्हें जरूरत थी हम लोगों की तो वे अकेले, एकदम अकेले होते गए। खासकर श्यामला भाभी के जाने के बाद तो एकदम। यों वे भी बिल्कुल दुबली-पतली ही थीं। क्षीणकाय। पर सँभाल लेती थीं, खुद को भी और जित्ते सर को भी। उनके जाने के बाद तो कोई देखने वाला नहीं रहा। जित्ते सर रात-दिन अपने काम में डूबते चले गए। आधी-आधी रात तक उनका लिखना-पढ़ना चलता रहता। मन में कोई इच्छा थी तो बस एक ही कि जैसे भी हो, उनका यह उपन्यास पूरा हो जाए, जिसमें उनके पूरे जीवन की यातना और बीहड़ अनुभव थे, जो कभी-कभी उनसे सुनते को मिलते। और अब वे लिख डालना चाहते थे एक उपन्यास की शक्ल में। उनकी अपनी जिंदगी का ‘युद्ध और शांति’...!
एक बार हम लोगों के आग्रह पर पूरी कहानी सुनाई थी उन्होंने।... वह एक बड़ा, बहुत बड़ा सामंती घर था, जिससे वे विद्रोह करके निकले थे। उसका बीस फीट ऊँचा हाथी गेट पूरे शहर में मशहूर था। किसी दहाड़ की तरह खुलते और बंद होते दरवाजे। नौकरों-चाकरों की पूरी फौज। संतरी और दरबान भी। अंदर ही मंदिर भी था, जिसमें सुबह-शाम घंटे-घड़ियाल बजते। तो औरतों को इस किले से बाहर जाने की कोई जरूरत ही न थी। हाँ, आदमी कभी-कभार निकलते, बहुत जरूरी हो तब। वहाँ थानेदार और कलक्टर भी हर रोज सलाम करने जाते थे और खानदानी होने के नाम पर पता नहीं क्या-क्या चलता था। कितना काला और सफेद। जरूरत पड़ने पर काला सफेद हो जाता और सफेद काला। अफसर जो सलामी देने आते, वही सब गुर बता जाते थे। तो व्यापार ऐसा चोखा कि बारिश की तरह आसमान से धन बरसता था। पर जित्ते...? वे बचपन से ही कुछ अलग थे। एक सपना झिलमल करता था उनकी आँखों में कि कुछ अलग करना है। औरों जैसी नपी-तुली जिंदगी नहीं। और सफलता तो हरगिज नहीं। कुछ और जो ठीक से सफलता के दायरे में नहीं आता। बल्कि उससे उलट।...तरुणाई में तो उनके दोस्तों की संगति और रात-रात भर जाग-जागकर बहसें और अड्डेबाजी वाली संस्कृति से हर किसी को परेशानी। सात भाई-बहनें, पर उनका अलग वर्ग, अलग संस्कृति। न सहोदर भाई-बहनों को उनका जीवन समझ में आता था, न स्वाभिमान। जब तक माता-पिता थे, तब तक कहीं एक कोमल सा तंतु था...कि एक घर है, जहाँ वे लौट सकते हैं। माँ-बाऊजी जानते थे, उनका यह बेटा कुछ अधपगला, कुछ दीवाना सा है, किसी की न सुनने और अपने मन की करने वाला। जो सोच लिया, सो सोच लिया। कोई उसे तिल भर हिला नहीं सकता। पर सोचते थे कि वह बुरा नहीं है।...जब तक जिए, उन्होंने इंतजार भी किया। पर उनकी आँखें मुँद जाने के बाद तो दीवारें मोटी होती गईं और ऊँची भी। और फिर, दीवारों के आगे दीवारें...! जितनी अदृश्य, उतनी कठिन भी।
माँ-बाऊजी के गुजरने के बाद भाई-बहनों ने थोड़ी देर के लिए तो ऊपर-ऊपर से निभाया। एकाध चिट्ठी-विट्ठी, फोन। कभी-कभार जन्मदिन पर याद कर लेना...या किसी तिथि-त्योहार पर। फिर यह भी छूटता गया। छूटना ही था। उन्होंने खुद को समझा लिया कि उनका एक भाई कुछ गड़बड़ किस्म का निकल गया...आवारा। निरर्थक। जिंदा होकर भी वह जिंदा नहीं है, इसलिए उसे भुला देना ही ठीक है। तो घर में सबने जित्ते के नाम पर स्याही पोत दी कि नहीं, अब यह नहीं है, होकर भी नहीं! यों सात भाई-बहनों के बड़े परिवार के होकर भी जित्ते बाबू अकेले, एकदम अकेले पड़ते गए।...और तब उन्होंने अपना अलग परिवार बना लिया। उनके शिष्य जो जगह-जगह थे और उन पर जान देते थे, वे ही उनका परिवार बन गए। वही उनके भाई-बहन, बेटे-बेटियाँ और मित्र। वे बड़े फख्र से कहा करते थे, “इत्ता प्यारा और निराला परिवार तो खुदा किसी-किसी को देता है। मेरे पास क्या नहीं है। सब कुछ तो है, सब कुछ...! मेरे जैसा भाग्यशाली भला कौन होगा?” पर यह भी शायद उनका मुगालता ही साबित हुआ। इसलिए कि हम लोग...हम सारे लोग भी उनके लिए क्या कर सके?...बस कभी-कभार फोन, जिसमें जित्ते बाबू के बारे में ताजा समाचार इधर से उधर हो जाते। पर उनके सुख-दुख को बाँटने और उनके अकेलेपन को बाँटने की कोशिश किसने की? मैं पुणे के जिस कॉलेज में था, वहाँ मैनेजिंग कमेटी की राजनीति के कुछ अलग दाँव-पेच और परेशानियाँ। साल में एकाध बार ही निकल पाता था। आदित्य कनाडा में था और दो-तीन बरस में एक चक्कर लगा पाता था। दिल्ली आते ही हम लोग दौड़-दौड़कर जित्ते सर के पास जाते और वे हमें अपने प्यार की छाँव में ले लेते थे। पर उनके लिए कर तो कुछ भी नहीं पाए हम। हाँ, नीलू खट्टर दिल्ली में ही है, और एक उसी ने शायद पूरी तरह शिष्य का धर्म निभाया। हम सबके लिए कोई संदेश देना होता तो वे नीलू से ही कहते थे और अगले दिन हम सबके फोन खड़कने लगते थे।... शायद नीलू के जरिए ही हम सबका तार उस विस्मयपूर्ण अतीत से जुड़ा हुआ था, जित्ते सर जिसके मूर्त्त रूप थे, और उन्हीं के जरिए ही वह शायद वर्तमान से आकर जुड़ता था। और अब तो वह सब कुछ एक गुजरा हुआ इतिहास ही है, जिसके साथ यादें, यादें और बस यादें जुड़ी हैं। ऐसी अजीब यादें, जो समय के साथ धुँधली नहीं पड़ीं, कुछ और गाढ़ी स्याही में उभर आई हैं!
पंजाब का पुरानी यादों में ऊँघता सा एक पुराना कसबा, रोशनपुरा। उसी के दयावती आदर्श डिग्री कॉलेज में हमारी हिंदी आनर्स की बी.ए. फाइनल की कक्षा। मुझे आज भी याद है, क्लास में वह आखिरी दिन था, जब जित्ते सर ने देर तक पढ़ाने के बाद, चलते-चलते एक आखिरी बात कही थी, “पता नहीं, आगे कभी तुम लोगों से मिलना हो या नहीं। पर पता नहीं क्यों, तुम लोगों से बहुत मोह हो गया। तुम लोग योग्य हो और बेशक तुममें से बहुत से विद्यार्थी जीवन में आगे निकलेंगे। आगे बहुत कुछ पाने के मौके तुम्हारे आगे आएँगे जिन्हें पाने की हसरत हर किसी में होती है। तब पता नहीं, तुम्हें मेरी याद आएगी या नहीं? पर मैं चाहता हूँ, कुछ चीजें तो जरूर याद रखो...!”
कहते-कहते एक पल के लिए चुप। फिर आँखों में एक अजीब चमक सी उभरी। धीरे से बोले, “हालाँकि कभी-कभी यह भी लगता है कि तुम लोग भूल जाओगे। सोचोगे कि एक गड़बड़ सा टीचर था, जाने क्या-क्या बोलता रहता था। उसमें से काहे को कुछ याद करके दिमाग खराब करें?...अभी नौजवान हो, इसलिए शायद तुम्हें मेरी बातें अच्छी लगती होंगी। कल को दुनियादारी सीखोगे तो तुम भी उसी तरह मोटी खाल के हो जाओगे, जैसे सभी होते हैं। बस अपने लिए खाना, खटना...लगेगा, यही जीवन है। पर भई, ऐसे तो चूहे और पिस्सू भी जी लेते हैं। तुम्हारी बी.ए. ऑनर्स की इस आखिरी क्लास में मैं अपनी यह इच्छा तो प्रकट कर ही सकता हूँ कि तुम आदमी बनो, आदमी का जीवन जियो!” हम लोग सारे के सारे विद्यार्थी सन्न। हतप्रभ। लगता था, एक पल में ही हमारे शरीर और मन की सारी बादी उन्होंने झाड़ दी और कुछ ऐसा कर दिया कि अपने आपका सामना करना हमारे लिए मुश्किल हो गया। उनके शब्दों में ऐसी धार और ऐसी लपट होती थी। हम जानते थे, पर आज तो...! जित्ते सर ने रजिस्टर उठा लिया था। चलने लगे, पर चलते हुए फिर रुके। बोले, “हालाँकि कभी-कभी मुझे लगता है, तुम लोग सोचते होगे, जित्ते सर को तो बीमारी है प्रलाप करने की। इसलिए रास्ता चलते अगर कहीं मुझे देख लिया, तो तुममें से जो ज्यादा समझदार विद्यार्थी हैं, वे सोचेंगे कि अरे, सामने से जित्ते सर आ रहे हैं। जल्दी से रास्ता बदल लो कि कहीं यहाँ भी भाषण देना न शुरू कर दें...!” “नहीं नहीं, सर!” सुनकर हमारी पूरी क्लास चीख पड़ी थी, “ऐसा कभी नहीं होगा, सर...कभी नहीं!” “हाँ-हाँ, मुझे यकीन है कि तुम लोग अच्छे विद्यार्थी हो!” कहते-कहते जित्ते सर अचानक हँस पड़े थे, “मैंने तो यों ही मजाक किया था!” पर आज लगता है, उन्होंने मजाक नहीं किया था, एक ऐसी कटुतम सच्चाई बयान की थी, जिसे हम सुनना तो नहीं चाहते थे, पर हकीकत शायद उससे बहुत अलग नहीं है। पंजाब में वह भिंडराँवाले का जमाना था और उसका भय बड़े-बड़े राजनेताओं को भी कँपा देता था। ऐसी खबरें उन दिनों सुनने को मिलतीं कि क्लास में भी हम सब डरे-डरे से रहते थे। बातें करते हुए भी एक भय सवार हो जाता सिर पर। लेकिन जित्ते सर पर कोई असर नहीं। उनका बोलने और पढ़ाने का वही ढंग, जिसमें सच्चाई हर सूरत में सामने आती ही है। वे पाठ पढ़ाते नानक का, सूर, कबीर और तुलसी का तो धर्म की व्याख्या करते। कहते, धर्म तो करुणा की वह नदी है जो इनसान से इनसान को जोड़ती है, जहाँ गरीब-अमीर सभी को आश्रय मिलता है। सभी इनसान जहाँ एक बराबर हैं और भेद-भाव की सारी दीवारें ढह जाती है।...उसका मूल रूप तो बड़ा अद्भुत है! पढ़ाते-पढ़ाते पलटकर फिर वे मौजूदा हालात पर आ जाते और बड़ी तल्खी से कहते, “कल ही मैंने अखबार में पढ़ा है, तुम लोगों ने भी पढ़ा होगा। आतंकी आए, गाँव में एक समुदाय के लोगों को बाहर बुलाकर उन्हें गोली मार दी। और सबसे बड़ा दुख तो इस बात का है कि यह सारा पागलपन धर्म के नाम पर हो रहा है।...पर आप लोग खुद सोचें, यह क्या है? इसे धर्म कहेंगे? यह सीधे-सीधे हिंसा है, हैवानियत है। असल में धर्म जब हिंसा या आतंक से जुड़ता है, तो वह दुनिया की सबसे आततायी और निरंकुश सत्ता बन जाता है।”
उनकी साफ-साफ बातें, उनकी हिम्मत देखकर अच्छा लगता, पर भीतर ही भीतर एक भय की सिहरन सी दौड़ जाती कि अगर जित्ते सर को कुछ हो गया तो? अगर किसी ने चिढ़कर उनका नाम आतंक के सरगना तक पहुँचा दिया तो...? जित्ते बाबू हिंदी के प्राध्यापक थे और भला पंजाब के उस छोटे से कॉलेज में हिंदी को पूछता कौन था? पर जित्ते बाबू हिंदी के थे, लेकिन हिंदी वाले नहीं। हिंदी वालों जैसे नहीं। उन्होंने अपने विद्यार्थियों से दिल का नाता जोड़ा और एक अलग माहौल बनाया। यह शायद हमारे कॉलेज में पहली बार हुआ कि जो साइंस और कॉमर्स के विद्यार्थी थे, वे भी अपने हिंदी के पीरियड के लिए व्याकुल रहते। सबको लगता, जित्ते सर कुछ अलग हैं। उनकी बातें दिल में उतरती हैं। शायद इसीलिए उनके पढ़ाए हुए शिष्य आज चाहे दूर-दूर हों, विदेशों तक में, पर एक जित्ते सर ही हैं जो एक से दूसरे के दिलों को जोड़ते हैं और लगता है, दीए से दीए जलते जा रहे हैं और एक लंबी कतार सी है। और शायद इसीलिए जित्ते सर को याद करते ही खुद-ब-खुद हम सबके दिलों में रोशनी का एक तार सा जुड़ जाता है!
जिस समय जित्ते सर की नियुक्ति हुई, हम लोग बी.ए., पार्ट वन में थे। पूरी क्लास में कोई सात-आठ बच्चे। देखकर बड़ी हैरानी हुई थी उन्हें। फिर जब उन्होंने अपने पूरे जोम में पढ़ाना शुरू किया तो हमें लगा, अरे, ये तो कुछ अलग से सर हैं...कि इनकी बातें तो दिलों तक उतर रही हैं। ऐसी बातें तो कोई नहीं कहता, न घर में न बाहर। लगा कि यह खाली पढ़ाना नहीं है, बल्कि कुछ है जो हमें झिंझोड़कर अंदर से जगा रहा है। हमारी पाठ्य पुस्तकों में जो पुराने जमाने की पाठ थे, उन्हें भी वे आज से और आज के जीवन से जोड़ते तो सब कुछ नया-नया सा लगता। किसी चमत्कार की तरह। यहाँ तक कि क्लास से बाहर सुनने वालों की भीड़ लग जाती। अकसर अगले पीरियड की घंटी बज जाती और जित्ते सर को उसके बाद भी अपना लेक्चर समेटने में पाँच-सात मिनट और लगते। इस बीच वहाँ आसपास टहल रहे छात्र दरवाजे पर आ-आकर इकट्ठे हो जाते और जित्ते सर की बातें इस कदर कानों के कान खोलकर सुनते, जैसे हिंदी का पीरियड नहीं, कोई कवि-सम्मेलन हो रहा हो, या कोई किस्सागो ऐसा दिलचस्प किस्सा सुना रहा हो, जिसका एक-एक शब्द कानों से पीना जरूरी हो। धीरे-धीरे जहाँ हम सात-आठ विद्यार्थी थे, महीने भर बाद पचीस-तीस हो गए। पूरी क्लास भरी-भरी लगने लगी। पढ़ाई का आनंद भी बढ़ गया। और हम इस तरह तैयार होकर कक्षा में आते, जैसे हर दिन कुछ नया घटने वाला है और हम क्लास में नहीं पहुँचे तो वह हमसे छूट जाएगा। जो पढ़ते थे, वह औरों को भी बताते। हर दिन कुछ नया-नया सा था। नया उत्साह, नई बातें। जैसे बिना कुछ बताए ही जित्ते बाबू ने बता दिया था कि पढ़ाई क्या चीज है। वे कई बार हँसकर कहते भी थे, “देखो भाई, मनहूसियत वाली शक्ल बनाकर पढ़ाना मुझे पसंद नहीं है। क्या तुम्हें वैसी पढ़ाई पसंद है...?”
इस पर हम सब चिल्लाते, “नहीं-नहीं सर, नहीं!...आप जैसा पढ़ाते हैं, हमें वही अच्छा लगता है।” हिंदी का विभाग जो हाशिए पर था, अब अच्छा-खासा दिखने लगा। इतने उत्साही विद्यार्थी, इतना जोश, गतिविधियाँ। इस पर जो पहले से जमे हुए थे, उन्हें परेशानी हुई। जिन विषयों को छोड़-छोड़कर विद्यार्थी हिंदी में आते, उन्हें भी दिक्कत होने लगी। उन्होंने बच्चों को समझाना शुरू किया, “क्यों पढ़ रहे हो हिंदी-विंदी...? इसे पढ़कर क्या हासिल होगा...? और फिर कितनी ही मेहनत कर लो, नंबर तो तुम्हारे ज्यादा आ नहीं सकते।” इस पर कुछ विद्यार्थी डगमगाए। सबसे पहले जित्ते सर के पास आने वालों में नीलू खट्टर ही था, जो बाद में हिंदी का प्राध्यापक बना। उसकी प्रतिभा को जित्ते बाबू ने तो देखते ही पहचान लिया था, पर वह खुद अभी डावाँडोल था। “सर, मैं हिंदी छोड़ना चाहता हूँ। मुझे लग रहा है, हिंदी मुश्किल है। मैं इसमें कच्चड़ ही रहूँगा। तो इसलिए...!” एक दिन उसने झिझकते हुए जित्ते सर से कहा। “पर किसने कहा तुमसे कि तुम्हें हिंदी नहीं आती?” जित्ते सर चौंके, “मैंने तो कभी कहा नहीं। अच्छा, जो मैं पढ़ाता हूँ, क्या वह तुम्हें मुश्किल लगता है? समझ में नहीं आता? मेरा तो खयाल है, तुम बहुतों से अच्छे हो।” “पता नहीं सर, पर लग रहा है, मैं कहीं फेल न हो जाऊँ...?” नीलू घबराया हुआ था। किसी ने उसके मन में खासा भय पैदा कर दिया था। “फेल...?” जित्ते सर हैरान हुए, “कैसी बात कह रहे हो नीलू? हिंदी की पूरी की पूरी क्लास पास होगी और सबके बहुत अच्छे अंक आएँगे। और तुम्हें तो फर्स्ट डिवीजन मिलनी चाहिए मेरे खयाल से...!” “सर, आप कहते हैं तो हिम्मत आ जाती है, पर अकेले में सोचता हूँ तो डर लगता है...” नीलू ने अपनी परेशानी बताई। “अच्छा, तो यह बात है!” जित्ते सर मुसकराए। फिर बोले, “तुम ऐसा करो, अपना डर मुझे दे दो और निश्चिंत हो जाओ। बस, एक ही काम करो। जो मैं पढ़ाता हूँ, उसे घर जाकर एक बार पढ़ लो। नहीं तो मेरे कमरे पर किसी भी समय आकर पूछ लो। मेरा पूरा समय तुम बच्चों के लिए ही है। फिर मुश्किल आएगी कहाँ से...?” यों नीलू खट्टर जाते-जाते रह गया। फिर जग्गी के साथ तो और भी मुसीबत आई। उसके पिता नहीं रहे। दुकान पर बैठना उसकी मजबूरी थी। वह पढ़ाई छोड़ना चाहता था। पर जित्ते सर बोले, “अरे जगदीश, तुम तो काफी होशियार विद्यार्थी हो। पढ़ाई क्यों छोड़ते हो?...जहाँ तक हिंदी की बात है, तुम्हें कोई मुश्किल नहीं होगी। रात को मेरे घर आकर पढ़ लिया करो। मैं भरोसा देता हूँ, तुम्हारे बहुत अच्छे नंबर आएँगे। बाकी विषयों के अध्यापकों से भी मैं कहूँगा। सब तुम्हारी मदद करेंगे।” जग्गी को लगा, जित्ते सर तो किसी फरिश्ते जैसे हैं। उसने घर जाकर माँ को बताया तो उनके मुँह से बोल तक नहीं निकले। फिर उन्होंने कहा, “अपने सर को बोलना। मेरी माँ आपको लाख-लाख आशीषें दे रही हैं।” और एक जग्गी ही क्यों, आदित्य मिनोचा, गिरीश, लखपत राय, अखिलेश, सुशांत, मीरा सेठी, वंदना अग्रवाल, नमिता... हमारे बैच के कितने ही विद्यार्थी शुरू में घबरा से रहे थे, पर फिर सबके सब जित्ते सर की पसंदीदा छात्र-मंडली में शामिल हुए, जिन्होंने बढ़िया नंबर लाकर सबको चौंकाया। इनमें से कुछ ने तो कॉलेज की सांस्कृतिक गतिविधियों में भी खूब चमके। सबको लग रहा था, यह हिंदी का प्राध्यापक कुछ अलग है। इससे बहुत सारे लोग चिढ़ गए। वे जित्ते सर को जुनूनी कहते। इस पर जित्ते सर हँसकर कहते, “हाँ, मैं हूँ। और मेरा खयाल है, हर प्राध्यापक को थोड़ा जुनूनी तो जरूर होना चाहिए।” कॉलेज में बहुतों को समझ में नहीं आ रहा था, यह उलटा चक्का कैसे घूम गया? हिंदी वालों की तो वे कहीं गिनती ही नहीं करते थे। पर अब तो हम लोग भी सँभल गए थे। पहले की तरह हमें डराना आसान नहीं था। अब हम खुद ही धीरे-धीरे जवाब देना सीख गए थे। “हिंदी पढ़कर क्या होगा, हिंदी की जरूरत ही क्या है...?” लोग टेढ़ी हँसी के साथ कहते। “हिंदी हमारे जीने की भाषा है, हँसने-रोने की भाषा। हिंदी में हमारा पूरा देश बोलता है।” हम लोग उसी अंदाज में कहते, जिस अंदाज में जित्ते सर कहा करते थे।
“अरे, वो सब तो ठीक है, पर हिंदी से कोई नौकरी तो नहीं मिलेगी न।” लोग डंक चुभोते। “नौकरी के लिए बाकी विषय तो हम पढ़ते ही हैं न! पर हिंदी से जो मिलता है, वह भी कम नहीं। जित्ते सर कहते हैं, हिंदी से हमारा तार जुड़ता है पूरे देश और समाज से। हिंदी पढ़ने पर नजरिया बड़ा होता है और अपने देश की जनता का हृदय हमारे आगे खुलता है। हमारी संस्कृति और इतिहास के पन्ने खुलते हैं। हिंदी हमें सोचना सिखाती है, सोच-समझकर जीना सिखाती है...!” हम लोग इतने आत्मविश्वास से जवाब देते कि पूछने वाले सिटपिटा जाते। यों पंजाब के उस छोटे से कसबे के दयावती आदर्श डिग्री कॉलेज में एक हलचलों जैसी हलचल थी, क्योंकि जित्ते सर हमारे साथ थे।
और फिर एक दिन जब यूथ फेस्टीवल की तैयारियाँ जोरों पर थीं, हम लोगों ने सोचा कि इस बार हिंदी में भी एक जोरदार नाटक पेश किया जाए। पर उसकी तैयारी कौन करा सकता था सिवाय जित्ते सर के? सो हम सब मिलकर गए उनके पास। शुरुआत मैंने ही की, “सर, हम लोग चाहते हैं, इस बार यूथ फेस्टीवल में एक नाटक पेश करें। आप हमें नाटक तैयार करा दीजिए।” “मैं...? नाटक...!” जित्ते सर ने हैरानी से कहा, “पर आशुतोष, मैंने तो कभी कोई नाटक नहीं कराया। यों भी कविताएँ तो लिखी हैं, कहानियाँ भी, पर नाटक तो मैंने कभी नहीं लिखा। तो अचानक...?” “पर सर, आप जिस तरह पढ़ाते हैं, उससे हम सबको लगता है, आप नाटक बहुत अच्छा करा सकते हैं। हम सबका मन है, सर।” आदित्य ने जोर देते हुए कहा। “तुम नरूला मैडम से क्यों नहीं कहते? हो सकता है, वे तुम लोगों की मदद करें...!” “नहीं सर, उनकी तो कोई रुचि नहीं है इस सबमें। पिछले साल हम बच्चों ने कविता प्रतियोगिता के लिए कहा था, तब भी उन्होंने कहा था, ये सारे काम तुम लोग खुद करो। मेरे बस का नहीं है।” सुशांत ने कहा। “अच्छा ठीक है, प्रिंसिपल साहब से इजाजत तो ले लो। मिसेज नरूला सीनियर हैं। कहीं ऐसा न हो कि उन्हें बुरा लगे कि उनके होते, मैंने यह जिम्मा क्यों ले लिया?” और फिर जित्ते सर को मानना ही पड़ा। हम लोग बात की बात में प्रिसिंपल सतीश खोसला जी के पास भी पहुँच गए। बोले, “सर, हम लोग इस बार नाटक करना चाहते हैं। आप प्लीज, जित्ते सर से कहें, उसकी तैयारी करा दें...!” मि. खोसला ने एक क्षण के लिए कुछ सोचा, फिर कहा, “अच्छा, ठीक है, मैं उनसे कहता हूँ।” उसी समय उन्होंने जित्ते सर को बुला भेजा। उनके आने पर हँसते हुए बोले, “देखिए जित्ते साहब, यह तो कलाकारों ने अपना डायरेक्टर खुद तय कर लिया। अब तो आप मना नहीं कर पाएँगे।” जित्ते सर भी हँस पड़े। बोले, “मैंने नाटक कभी किया नहीं, पर बच्चे कह रहे हैं तो इसमें भी हाथ आजमाकर देखता हूँ। हालाँकि कह नहीं सकता, इताम हम लोग जीत पाएँगे या नहीं...?” “आप चिंता न करें सर, हम लोग जान लगा देंगे। बस, आप हमें डायलॉग बोलने का अभ्यास करवा दीजिए।” मैंने कहा तो सबने सिर हिलाकर अनुमोदन कर दिया। जित्ते सर मुसकराए। बोले, “ठीक है, मेरे लिए यह एक नया चैलेंज है। पर करता हूँ कोशिश।” बस, उसी दिन से जित्ते बाबू तैयारी में लग गए। उनका तरीका ही यही था। या तो वे किसी काम के लिए आसानी से तैयार ही नहीं होंगे, और हाँ करेंगे तो उसमें पूरी जान लगा देंगे। पर नाटक के निर्देशन वगैरह की बात तो बाद में थी। पहले नाटक लिखा तो जाए। जित्ते सर का कहना था, ऐसा नाटक हो, जिसमें आज का समाज हो, आज के हालात, और ऐसे सवाल भी जो दर्शकों के दिलों को झिंझोड़ दें। जित्ते सर का एक पूरा दिन इसी उधेड़बुन में निकला। बार-बार एक ही विचार हिट करता था, आज के बुद्धिजीवी सुविधापरस्त हो गए हैं। इसीलिए समाज दिशाहीन है। राजनेता और धर्म के धंधेबाज जैसे चाहें, लोगों को बहकाते हैं और अपना स्वार्थ साधते हैं। इसके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार तो बुद्धिजीवी ही हैं, जो अपने खोल से बाहर आने को तैयार ही नहीं हैं। उन्होंने इसी तबके पर नाटक लिखने का निश्चय किया। पूरे एक दिन उनके भीतर चक्की सी चलती रही, जैसे हर रचना से पहले चलती थी। और फिर उन्होंने कागज-कलम उठाया, किसी धुन में खर्रे के खर्रे लिखते चले गए। एक साथ कोई अठारह-बीस फुलस्केप कागज। फिर पढ़ा, कहीं-कहीं काटकर नए संवाद लिखे। फिर पढ़ा, फिर तराशा। फिर लिखा। आखिर तीसरे दिन वह नाटक पूरा हुआ। शीर्षक अजब सा था, ‘सात सुकरात’। इनमें हर सुकरात की अलग मुद्रा थी, अलग रंग-ढंग और मिजाज। उनमें से कोई किसी दूसरे से सीधे मुँह बात करने के लिए तैयार नहीं था। सातों सुकरात सात अलग-अलग दिशाओं में मुँह किए खड़े थे और मौका पाते ही एक-दूसरे की खिल्ली उड़ाते थे...! पहला सुकरात एक नखरीला कवि था, जो ‘हुम्म...हुम्म’ करके अपनी महानता का सिक्का जमाता था। दूसरा एक जगविख्यात चिंतक, तीसरा एक अक्खड़ और घमंडी पत्रकार, जिसकी आँखें आसमान तक चढ़ी हुई थीं। चौथा एक बड़ी गद्दी पर विराजमान धर्मगुरु, जो सीधे-सीधे भगवान की ठेकेदारी करता था। पाँचवाँ चुपड़ी बातें करने वाला कुशल उपदेशक, जिसे एक टीवी चैनल के धंधे ने पैदा किया था। छठा भाषणों से क्रांति लाने वाला समाज-सुधारक, सातवाँ सत्ता की पोल में घुसा एक पोलिटिकल एक्टिविस्ट...! सातों सुकरातों के अलग-अलग मूड, अलग-अलग दिशाएँ। जो विद्रोही कवि था, उसका अंदाज सबसे अलग। बात-बात पर उसके मुँह से निकलता, “तुम नहीं जानते कि हम कौन हैं? हम...हम लोग जले हुए लोग हैं...जले हुए लोग, याद रखना!” जवाब में दूसरा सुकरात जो आसमान तक चढ़ी हुई आँखों वाला पत्रकार था, हँसकर कहता, “जली हुई रोटी तो सुना था, जला हुआ कोयला भी। पर जले हुए लोग...! भला यह जले हुए लोग क्या होता है? क्या उसमें से जले हुए दूध जैसी गंध आती है?” सातों सुकरातों के अलग-अलग नखरे, अलग-अलग मुद्राएँ। छिपे हुए अहं की छद्म लीलाएँ। एक से एक दिलचस्प। सभी का ‘हुम्म...हुम्म’ करने का अपना मौलिक ढंग। लगता था, वे युगों से ऐसे ही हैं और हमेशा ऐसे ही रहेंगे। पर नाटक के आखिर में जब जनता आर्तनाद करती है और सूखे खेत, जली हुई फसलें, मरी हुई मछलियाँ और हताश लोग जमीन पर बिछे पड़े हैं, तब लंबी सफेद दाढ़ी वाले एक दरवेश का प्रवेश होता है। हाथों में इकतारा लिए गाता हुआ दरवेश। वह हताश लोगों को देखता है और फिर अजीबोगरीब मुद्राएँ बनाए सातों सुकरातों को, जो सात अलग-अलग दिखाओं में देख रहे थे। वह दरवेश गंभीर है। चिंतित। कुछ देर ठोड़ी पर हाथ रखे सोचता है, फिर एकाएक जोर से चिल्ला पड़ता है, “मिल गया, मिल गया, मिल गया...!” और वह दरवेश एक-एक करके सातों सुकरातों का मुँह उधर घुमा देता है, जहाँ हताश लोग हैं और सूखे खेत, सूखे तालाब और नदियाँ... और जली हुई धरती, जिसकी छाती पर जख्म ही जख्म हैं!... और बस, तभी चमत्कार हुआ। अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले सातों सुकरात मिलकर एक हो गए। “देश ऐसे ही सुधरेगा, ऐसे ही बनेगा नया भारत, नया देश...! हम आएँगे, जाएँगे, मगर अपने खुरदरे हाथों से देश की ऐसी तकदीर लिख जाएँगे कि वह आगे बढ़ेगा, आगे, आगे...बहुत आगे!” दरवेश की गूँजती आवाज। और सातों सुकरातों को पहली बार हाथ में हाथ लिए एक साथ काम करते देखा गया। कहीं वे झाड़-झंखाड़ साफ कर रहे थे, कहीं फावड़े चलाकर जमीन समतल कर रहे थे, कहीं पेड़ लगा रहे थे, कहीं रास्ते के अवरोध हटाकर नदी की धारा को उन्मुक्त कर रहे थे। डेरा बाबापुरा के जिस कॉलेज में यह युवा उत्सव हुआ, उसके प्रिंसिपल सिद्धू साहब तो इतने प्रभावित हुए कि अलग से जित्ते बाबू से मिलने आए। बहुत देर तक उनका हाथ पकड़कर खड़े रहे। फिर कहा, “देखो जित्ते साहब, आपके नाटक को दूसरा पुरस्कार मिला। निर्णायकों का जो भी निर्णय हो, वह सिर माथे, पर सच्ची कहूँ तो आपका नाटक मेरे दिल को छू गया। मैं जज होता तो आपको ही पहला नंबर देता। असल में आपने नब्ज पकड़ ली... आपके कलाकार भी बहुत अच्छे हैं, बड़ा सच्चा अभिनय किया सबने!” कहते हुए उनकी आँखों में जो चमक थी, उसने हर किसी को थोड़ी देर के लिए अवाक् कर दिया। लगा, हमारा नाटक करना सार्थक हो गया। जित्ते सर ने भीगे हुए स्वर में कहा, “बस-बस, सिद्धू साहब! आपने सब कुछ कह दिया। जो शब्द आपने कहे, उससे ऐसा लगा, जैसे हमारा ही नाटक अव्वल आया हो। बल्कि उसके अव्वल आने से भी वह खुशी न होती, जो आज मैं महसूस कर रहा हूँ।” बाद में पता चला कि युवा उत्सव में जो नाटक प्रथम आया था, उसकी तैयारी एन.एस.डी के कलाकारों की एक प्रोफेशनल टीम ने कराई थी और उस पर हजारों रुपए खर्च हुए। जबकि हम लोगों ने बस, रात-रात भर प्रैक्टिस की और ऐसी जबरदस्त एक्टिंग की कि कोई भी किसी से उन्नीस नहीं था। शायद सच्चाई दिल को कहीं ज्यादा करीब से छू लेती है।
ऐसी एक थोड़े ही, कितनी ही प्रतियोगिताओं की यादें मन में हैं, जिन्हें याद करते हुए मन भीगता है। जित्ते सर तो जैसे अपने घर के ही प्राणी थे। हम लोग दौड़-दौड़कर उनके पास जाते थे और वे सारे काम एक ओर रखकर झट हमारे लिए तैयारी करने में जुट जाते थे। इनमें कुछ वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ तो ऐसी थीं, जिन्हें भुला पाना मुश्किल है। खासकर राजनीति और धर्म के संबंध को लेकर जो डिबेट थी, उसने तो सबको झकझोर दिया था। कुछ लोगों का कहना था कि धर्म जब राजनीति में आता है तो वह उसे सही मानवीय दिशा देता है। पर जित्ते सर ने दूसरा पक्ष उठाया। उनका तर्क था कि धर्म का जब राजनीति से गठबंधन होता है तो वह इतनी बड़ी विध्वंसक शक्ति बन जाता है कि कई बार तो समूची मनुष्य जाति के लिए आत्मघाती हो जाती है। धर्म हमारे निजी जीवन और आचरण में रहे तो अच्छा है, पर सार्वजिनक जीवन में उसका जरूरत से ज्यादा प्रदर्शन उसे भ्रष्ट करता है। धर्म अच्छा है, जब तक कि वह मनुष्य की गहरी आंतरिक जिज्ञासा से जुड़ा है, एक विनयशील अंतःपुकार है, पर धर्म की बड़बोली सत्ता स्वयं उसे और दूसरों को भी भ्रष्ट करती है और कई बार तो अधर्म से बढ़कर घातक हो जाती है। जब नीलू खट्टर ने वाद-विवाद प्रतियोगिता में अपने तर्क रखने शुरू किए, सुनने वालों की आँखें फैलने लगीं। वह भिंडराँवाले के आतंक का जमाना था, जब शब्दों पर पहरा था। कब, किसने क्या कहा, ये बातें भी खबर बन जाती थीं। उस समय ऐसी बातें कहना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से कम घातक नहीं था। सुनने वाले पसीने-पसीने! पर दूर बैठे जित्ते सर एक आश्वस्ति भरी मुसकान के साथ मानो भीतर ही भीतर खट्टर का मनोबल बढ़ा रहे थे, कि हाँ-हाँ, कहो...कहो! इतने प्रभावशाली अंदाज में कहो कि सुनने वालों में से कुछ के दिलों में तो हलचल मचे। इस हॉल की दीवारों पर तुम्हारे शब्द दर्ज हो जाएँ।... मानो दूर बैठे भी वे दीप्त आँखों से अपने शिष्य में कोई शक्तिप्रवाह कर रहे हों और नीलू सचमुच इतने प्रभावशाली अंदाज में बोला, कि सुनने वाले अवाक्, ऐसी बातें तो पहले कभी सुनी ही नहीं। पर ये दिल को इतना छू क्यों रही हैं? बोलने के बाद खट्टर आकर जित्ते सर के पास आकर बैठा तो उसके सिर पर हाथ फेरते हुए, जित्ते सर कितने बड़े लग रहे थे। बिल्कुल किसी पर्वत सरीखे! हालाँकि उस समय उनकी आँखें कुछ गीली सी थीं।...मैं पास ही बैठा सोच रहा था, जित्ते सर को इतना भावुक तो पहले कभी नहीं देखा। जैसा कि हमें पहले से ही लग रहा था, खट्टर को कोई पुरस्कार नहीं मिला। पर इसका अफसोस न जित्ते सर को था, न खट्टर को। उन्हें तो अंधी-बहरी दीवारों को अपनी आवाज सुनाना था और वे इसमें पूरी तरह कामयाब हुए। सच्ची कहूँ तो यही जित्ते सर का पढ़ाना भी था। वे कोई पाठ्यक्रम को घोटा लगवा देने वाले प्राध्यापकों में से नहीं थे। वे चाहते थे उनका हर छात्र कुछ अलग सा हो, दूसरों से अलग। खूब सोचने-समझने वाला, संवेदनशील। सबका अपना व्यक्तित्व हो। कई बार कहते भी थे, “देखो भई, ज्यादातर प्राध्यापक लोग जैसे साल भर में एक तवा घुमा देते हैं और अगले साल फिर वही, अगले साल फिर वही...सालोंसाल एक ही तरीका। एक घिसी-पिटी स्टीरियो टाइप पढ़ाई। मेरा उसमें बिल्कुल यकीन नहीं है। इसके बजाय मैं तो तुम्हें भीतर से खोल देना चाहता हूँ, जिससे अपने आसपास तुम जो कुछ घटित होता देखो, उसे देखो, समझो और उसके बीच से जीने का रास्ता निकालो।...और रही तुम्हारे पाठ्यक्रम वाली पढ़ाई, या कि इम्तिहान की तैयारी, तो वह भी इन्हीं के बीच ही होगी। तुम्हारे मार्क्स निश्चित रूप से औरों से ज्यादा आएँगे, पर मेरा कहना है कि तुम यहीं मत रुकना। तुम जीवन में औरों से अलग दिखो, अगर सचमुच मेरे शिष्य हो तो...!” शायद यही वजह थी कि हम लोग उनसे प्रेम करते थे। उनसे प्रेम किए बगैर हम रह नहीं सकते थे और उनसे मिले बगैर भी नहीं। अगर कुछ दिन नहीं मिल पाए तो भीतर एक व्याकुल पुकार सी उठती थी कि चलो, जित्ते सर से मिल आएँ। उनसे मिले बगैर कुछ अधूरापन सा लगता था, एक खला सा!...और यह किसी एक-दो का नहीं, तकरीबन हममें से हर विद्यार्थी का अनुभव था। पता नहीं, यह क्या जादू कर दिया था उन्होंने हम सब पर कि हम दौड़-दौड़कर उनके पास जाते थे, जैसे उनसे हमें इश्क हो! हमारी बी.ए. फाइनल की क्लास में किसी प्रसंग में कही गई उनकी एक बात नहीं भूलती। उन्होंने कहा था, “देखो भई, मुझे माफ करना।...पर तुम लोग सफल बनो, यह आशीर्वाद मैं नहीं दूँगा। दूसरे देते होंगे, पर मेरे मुँह से तो कभी नहीं निकलते ये शब्द। बल्कि मैं तो कहूँगा, तुम सफल मत बनो, क्योंकि सफलता सिर पर चढ़ जाती है। मैंने बहुत से सफल और सफलतावादियों को देखा है। सफल होते ही वे इतने मतलबी हो जाते हैं कि घिन आती है। इसलिए मैं अपने शिष्यों से कि कहूँगा कि तुम सफल नहीं, सार्थक बनो।...तुममें से कल को कौन कहाँ होगा, कोई नहीं जानता। पर मेरा कहना है कि तुम जहाँ भी रहो, वहाँ एक दीया जलाओ जिससे कि दूसरों को भी रास्ता टटोलने में मदद मिले, रोशनी मिले...!” इस तरह की बातें उनसे इतनी सुनी हैं कि अगर इकट्ठा करूँ तो एक अलग तरह का सूक्ति-कोश तैयार हो जागा। एकदम भिन्न तरह का सूक्ति-कोश, रवायत से एकदम अलग। बल्कि दूसरे छोर पर। और जित्ते सर उन्हें इतने सहज ढंग से कहते थे कि उनका एक-एक शब्द पी जाने का मन होता था। शायद यही वजह है कि जित्ते सर का क्लास रूम का नजारा तो दिलचस्प था ही, उनके घर पर भी सारे दिन विद्यार्थियों का ताँता लगा रहता। हमारे कॉलेज के बाकी प्राध्यापक तो तीन या चार घंटे पढ़ाते थे, या कभी इतना भी नहीं। कभी-कभी एकदम गोल भी कर जाते थे। पर जित्ते सर की क्लास तो जैसे हफ्ते में सातों दिन और चौबीसों घंटे चलती रहती थी। हम लोग पढ़ाई में कोई मुश्किल आने पर तो उनके पास जाते ही थे। पर जित्ते सर हर मामले में हमारे गाइड थे। हमारी कैसी भी समस्या हो, जित्ते सर हमेशा उनकी मदद के लिए तैयार रहते। उनकी बातें ही मन में जोश और उत्साह भर देतीं। लगता था, जैसे हर चीज का हल है उनके पास। मुश्किल कुछ नहीं, और असंभव तो कुछ भी नहीं! कभी-कभी हम लोगों की बहुत जिद पर अपनी कोई कविता सुनाते तो हम सब बहते चले जाते थे उनके साथ। यों सारे दिन वे जो कुछ बोलते, बतियाते, प्यार से समझाते, या फिर उनकी कक्षा का जादुई व्याख्यान—वह सब कविता ही तो था। बोलते हुए वे इस कदर डूब जाते कि हम विद्यार्थियों को लगता, शायद किसी और दुनिया के हैं जित्ते सर, और अभी-अभी हमारी आँखों को धोखा देकर कहीं और निकल जाएँगे। जित्ते सर के क्लास रूम का वातावरण भी एकदम अनौपचारिक होता। वहाँ भी उन्हें तरह-तरह के प्रयोग करना पसंद था। एक बार नागार्जुन की कविता ‘कालिदास सच-सच बतलाना’ पढ़ा रहे थे। अचानक उन्होंने नीलू से कहा, “नीलू, जरा पढ़ो तो यह कविता।” नीलू पढ़ता रहा, वे सुनते रहे। फिर आदित्य, फिर गिरीश, मैं। एक-एक करके सब। उस दिन उन्होंने कुछ नहीं पढ़ाया। बस, यह देखा कि कविता किसने कैसे पढ़ी, कितना डूबकर और उसकी लय के साथ बहते हुए पढ़ी।... और पढ़ते समय चेहरे पर कैसे भाव आते हैं। आवाज में कैसी नमी, कैसा उतार-चढ़ाव...! क्लास में एक लड़की नमिता थी। अकसर चुप-चुप सी रहती। जित्ते सर ने उससे भी कहा कविता पढ़ने के लिए। उसने कविता पढ़ी बड़े ही सधे हुए अंदाज में, और एकदम डूबकर। आवाज बड़ी पुरनम। सुनकर जित्ते सर ने सिर हिलाया। बोले, “तुम्हारी आवाज बहुत असरदार है, थोड़े उतार-चढ़ाव में ही बड़ा प्रभाव पैदा हो जाता है...!” वह रो पड़ी। बोली, “सर, मेरे पापा ने सिखाया था बचपन में ही। वे ड्रामा के आदमी थे। कहते थे, आवाज बड़ी जिंदा चीज है, थोड़ा उसे साधना आ जाए, तो हम कमाल कर सकते हैं।” जित्ते सर खुश हो गए। बोले, “मैं कभी मिलूँगा तुम्हारे पापा से। संडे को घर पर होते हैं न!” “सर, नहीं हैं। मेरे पापा अब नहीं हैं।...आपने जिस तरह तारीफ की, उससे पापा की याद आ गई...!” कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू आ गए। सुनकर जित्ते सर चुप, एकदम चुप। बोले, “सॉरी...माफ करना, मुझे पता नहीं था...! कविता तुमने वाकई बहुत अच्छी पढ़ी।” फिर किसी और से नहीं कहा उन्होंने कविता पढ़ने के लिए। कुछ देर में कविता की व्याख्या करने लगे तो आवाज भर्राई हुई। थोड़ी देर लगी उन्हें खुद को सँभालने में, फिर रूमाल से आँखें पोंछीं, “ओह, आज तो मुश्किल हो रही है...!” और फिर आगे का पाठ। कुछ दिनों बाद फिरनीपुर के एक कॉलेज में कविता उत्सव था। उसकी तैयारी हो रही थी। पर जित्ते सर को प्रतिभागी का चुनाव तो करना ही नहीं था। उन्होंने कविता पढ़ने के लिए नमिता को चुना। कहा, “तुम अपने पापा पर ही कविता लिखकर लाओ। बाद में मैं थोड़ा टच कर दूँगा। उसी को पढ़ना।” वाकई नमिता ने बड़ी भावनात्मक कविता लिखी थी। जित्ते सर ने उसे कहीं-कहीं टच किया। भाषा और लय सँवार दी। नमिता से दो-तीन बार उन्होंने बुलवाया। नमिता पढ़ रही थी तो हम सबकी आँखें नम थीं। जित्ते सर ने कहा, “बस...बस, नमिता, ऐसे ही पढ़ना। इतने ही सधे स्वर में। सुनाते वक्त बहुत ज्यादा भावुक मत हो जाना। भावुक दूसरे होंगे, तुम्हें सुनने वाले...!” अब तक मिसेज नरूला उनसे चिढ़ने लगी थीं। उन्हें परेशानी इस बात की थी कि कल के आए इस बंदे की पूरे कॉलेज में तूती बोल रही है, जबकि हैड ऑफ द डिपार्टमैंट मैं हूँ! उन्होंने इधर-उधर दो-चार जनों से कहा, “जित्ते साहब खुद को ज्यादा समझने लगे हैं। इतने सीनियर स्टुडेंट हैं। उनमें से किसी को तैयार करते पोएट्री कंपिटीशन के लिए। एक नई लड़की को भेज दिया। देखना, भद पिटवाएँगे कॉलेज की!” बात जित्ते सर तक पहुँची। हँसकर बोले, “भद किस बात की...? मुझे यकीन है, नमिता नई है, पर कविता भीतर उसकी आत्मा में बसी हुई है। इनाम मिले न मिले, पर वह अपना असर तो छोड़कर आएगी।” जित्ते सर के साथ पूरी टीम गई, जिसमें पंजाबी और अंग्रेजी में कविता पढ़ने वाले विद्यार्थी भी थे। पहला इनाम पहली बार हमारे कॉलेज की हिंदी टीम को मिला। यानी नमिता...फर्स्ट! जबकि पंजाबी और अंग्रेजी वाली टीमें बस सांत्वना पुरस्कार ही बटोर पाईं। जित्ते सर अभी प्रोबेशन पर ही थे, जब विद्यार्थियों ने कॉलेज में शिक्षक दिवस मनाया। बाद में अध्यापकों को भी बोलने के लिए कहा गया। एक-दो अध्यापकों ने आशीर्वाद के कुछ शब्द कहे। फिर बारी आई जित्ते सर की तो बोले, “मुझे लगता है, शिक्षक दिवस शिक्षकों के आत्मसाक्षात्कार का भी दिन है। हमें यह भी देखना चाहिए कि हम अपने विद्यार्थियों को दे क्या रहे हैं। आखिर विद्यार्थी क्यों इज्जत करें हमारी..?” फिर कुछ रुककर बोले, “कभी-कभी विद्यार्थी कहते हैं कि सर, आपकी क्लास में समय का कुछ पता नहीं चलता। लगता है, पीरियड कभी खत्म न हो और हम बैठे सुनते रहें। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि सर, आपकी क्लास में बैठकर लगता है कि जीवन में कुछ भी मुश्किल नहीं है। मन में जोश भर जाता है!...तब मेरा कहने का मन होता है, काश, मैं आपको बता पाता, कैसे वे अध्यापक थे, जिनके चरणों में बैठकर मैंने थोड़ा-बहुत सीखा है। मैं कुछ भी हो जाऊँ, पर उनके पैरों की धूल भी नहीं हूँ...!” और फिर जब उन्होंने कोई आधे-पौने घंटे तक अपने अध्यापकों के बारे में बताया तो हाल में सन्नाटा छा गया। सभी अवाक...! हालाँकि यह दीगर बात है कि कुछ लोगों ने इसमें भी बुराई की गंध ढूँढ़ ली और प्रिंसिपल खोसला तक यह बात पहुँचाई कि “यह नया वाला हिंदी का प्रोफेसर तो अपने को पता नहीं क्या अफलातून समझता है। इसने वहाँ बैठे सभी सीनियर्स की हेठी कर दी...!” और इस दुष्प्रचार में सबसे आगे थीं मिसेज नरूला, जिनसे पच नहीं रहा था कि हिंदी का यह नया आया लेक्चरर कैसे विद्यार्थियों के दिलों पर राज कर रहा है!
पर मुश्किलें एक ओर से नहीं थीं। पंजाब का वह आतंकवाद का दौर खुद एक बड़ी मुसीबत थी, जबकि रोजमर्रा की छोटी-मोटी बातें भी अब धार्मिक उन्माद की शक्ल लेने लगी थीं। एक रात तो बस की यात्रा में खुद जित्ते सर की हालत खराब, खूनमखून...! रात दस बजे बस में अमृतसर से आ रहे थे। कुछ उनींदे से। सर्दियों के हाड़ कँपाते दिन। बस कुछ ही आगे आई होगी कि अचानक एक जगह बड़े जोर का धमाका और फिर तेज ‘झन्न्न्न...!’ की आवाज। पूरी बस के यात्री एकाएक उछलकर खड़े हो गए। जित्ते सर जहाँ बैठे थे, उसके पास वाली खिड़की का शीशा खील-खील होकर चारों और बिखर गया था। उन्हें कुछ देर लगी यह समझने में कि किसी ने दूर से पत्थर मारकर बस का शीशा चूर-चूर कर दिया, ताकि...किसी न किसी का सिर फूटे! जित्ते सर के माथे और गालों में कुछ काँच के टुकड़े घुस गए थे, पर असहनीय दर्द के बावजूद वे पूरी तरह होश में थे और दूसरे यात्रियों को धैर्य बँधा रहे थे। उनके पास वाली सीट पर बैठे यात्री को कहीं ज्यादा चोट आई। उसके सिर और माथे से बहने वाला खून रुक ही नहीं रहा था और वह बुरी तरह कराह रहा था। दो-तीन और यात्रियों के चेहरे खूनमखून थे। एक बूढ़े आदमी के तो आँख के बिल्कुल पास काँच की किरचें चुभी थीं। देखकर दहशत हो रही थी। गनीमत यह कि जित्ते सर के साथ वाली सीट पर श्यामला एकदम सुरक्षित थीं। और जैसा कि उनका स्वभाव था, उन्होंने झटपट बैग से फर्स्ट एड का सामान निकाला, जिसे वे हमेशा यात्रा में साथ रखती थीं। घायल यात्रियों को वे जरूर फ्लोरेंस नाइटिंगेल लगी होंगी। बस का ड्राइवर होशियार था। समझ गया, कहीं पेड़ के पीछे छिपे आतंकवादियों की करतूत है। उसने फुरती दिखाई। जितनी तेज बस वह दौड़ा सकता था, उसने दौड़ा दी और यात्रियों को किसी भीषण दुर्घटना से बचा लाया। पर अगले दिन का अखबार वाकई रक्तरंजित ही था। पता चला रात के सन्नाटे में बस से निकालकर सत्रह बेकसूर यात्रियों को मौत की नींद सुला दिया गया।...और दुर्घटना वहीं, उसी रूट पर हुई थी, जहाँ बस पर वह पत्थर फेंका गया। कोई घंटे भर बाद। जित्ते सर सौभाग्यशाली थे कि बचकर आ गए, पर अगली बस के यात्री उतने भाग्यशाली नहीं थे, और फिर...! उस हालत में भी जित्ते सर को मंजूर नहीं था कि वे छुट्टी लें। अगले दिन पट्टी बाँधकर पढ़ाने पहुँच गए तो हर कोई हैरान। हम लोगों ने चिंतातुर होकर जानना चाहा, “क्या हुआ सर...?” इस पर गंभीर होकर बोले, “मुझे तो क्या होना था? हुआ तो बाद वाली बस के यात्रियों के साथ। तुमने अखबार में पढ़ा ही होगा।...” फिर एक क्षण रुककर कहा, “मैंने तुम्हें बताया था न, कि धर्म की अति सत्ता विनाशकारी होती है। वह निजी आचरण में रहे तो देवत्व है और राजनीति के साथ मिलकर अधिशासी सत्ता हो जाए तो विध्वंस करती है, अपना भी और दूसरों का भी।...यह बताना इसलिए जरूरी है कि तुम नौजवान हो। मैं चाहूँगा कि तुम्हारे पैर कभी भटकें नहीं।” हमें हैरानी होती, एकदम दुबले-पतले से जित्ते सर। उनमें इतनी ताकत छिपी कहाँ है, जिसने उनकी आत्मा को इतना निर्भीक और बलवती बना दिया। पर अब थोड़ा-थोड़ा समझ में आता है कि उनकी असली ताकत शायद विचारों की ताकत थी और वही विचारों की निर्भयता वे अपने शिष्यों में भी देखना चाहते थे।... यों और भी चीजें थीं जो हमें हैरान करतीं। खासकर यह चीज हमें बड़ी अद्भुत लगती थी कि अरे, कितनी कम जरूरतें हैं उनकी। उनके घर जाते तो लगता, जैसे इस घर में किताबों के अलावा कुछ और है ही नहीं। बमुश्किल एक कुरसी-मेज, कुछ कपड़े, बरतन, एक टेपरिकार्डर, कुछ कैसेट्स। और किताबें, किताबें, बस किताबें। जब विभागाध्यक्ष मिसेज नरूला और कॉलेज के कुछ और धाकड़ तत्त्वों की दुरभिसंधि के फलस्वरूप तीसरे साल ही उन्हें कालेज छोड़कर जाना पड़ा तो हमारी सारी क्लास रोई थी। रात कोई साढ़े ग्यारह बजे उनकी ट्रेन आनी थी और हम सारे छात्र छोड़ने गए थे उन्हें स्टेशन तक। लोग हैरान, जैसे रात के अँधेरे में विद्यार्थियों का कोई जुलूस निकला हो। गाड़ी में वे और श्यामला भाभी चढ़े तो उनका थोड़ा सा जो सामान था, वह हम लोगों ने आराम से चढ़ा दिया। अपनी बहुत सी चीजें तो वे हम शिष्यों में ही बाँट गए थे। बोले, “क्या करूँगा यह सब ले जाकर? तुम्हारे पास रहेंगी तो अच्छा लगेगा।” हाँ, महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर की एक कांस्य मूर्ति उन्हें हम लोगों ने भेंट की थी। उसे वे हाथों में पकड़े हुए थे, जब गाड़ी हौले-हौले सरकने लगी और हम लोगों के लिए अपने आँसुओं पर काबू पाना मुश्किल हो गया। उस समय का एक फोटो हमारे साथी लखपत ने ले लिया। उसमें देखा, उनकी आँखें भी ऐसी थीं, जैसे बमुश्किल खुद को थाम रहे हों। लौटे तो कितना भीषण खालीपन हमारे हिस्से आया, क्या यह कभी कहा जा सकता है? इतने बरस बीत गए, पर वे लम्हे आज भी भीतर एक अजीब भूचाल की तरह उठते हैं और...!
उस समय मोबाइल फोन तो कहाँ थे? फोन भी शायद किसी-किसी के पास रहे हों। बस, चिट्ठियों का सहारा था। उन्हीं से जित्ते सर के हालचाल पता चलते। ज्यादा पूछते हुए भी हम लोगों को संकोच होता था। पर इतना तो पता चल ही गया था कि जित्ते सर दिल्ली आए तो यहाँ कोई सहारा उनके लिए नहीं था और न किसी तरह की आर्थिक निश्चिंतता। कहना चाहिए, उन्होंने पहाड़ से निरवलंब कूदने की कोशिश की और इसका शायद नतीजा काफी तकलीफदेह रहा था। मुझे लगता है, उन्होंने शायद ज्यादा सोचा-विचारा भी नहीं था। जित्ते सर लेखक तो थे ही, और शायद बुनियादी तौर से लेखक ही थे वे। मुझे लगता है, दिल्ली आने का निर्णय भी उसी के बूते लिया गया। ‘दिल्ली जाकर मैं कोई पढ़ने-लिखने का काम पकड़ लूँगा और जिंदगी किसी तरह चलती रहेगी’—बस इतना ही सोचकर वे दिल्ली आ गए थे। पर यह चीज दूर से जितनी अच्छी लगती थी, शायद पास से वैसी नहीं थी। दिल्ली अलग तरह का शहर है और यहाँ की अलग मुश्किलें हैं। लगता है, जित्ते सर को शुरू-शुरू में कई भयावह अनुभवों से गुजरना पड़ा होगा। कोई पाँच-छह साल उनके ऐसे ही कटे, मुसीबतों के साथ। उनके पास कोई नौकरी नहीं थी तो बहुत दिनों तक उन्होंने फ्रीलांसिंग से काम चलाया। प्रकाशकों के आग्रह पर एकमुश्त पारिश्रमिक लेकर कुछ शैक्षणिक किताबें उन्होंने तैयार कीं। या फिर प्रूफ पढ़कर घर की जरूरतें पूरी करते। एक बार नीलू खट्टर को उन्होंने चिट्ठी में लिखा भी था, “नीलू, इन दिनों बहुत व्यस्तता है, पर तुम लोगों की बहुत याद आती है। ऐसे प्यारे विद्यार्थी कहाँ मिलते हैं? आजकल लिखने-पढ़ने का काम है और बारह-तेरह घंटे बिना रुके काम करना होता है। इसलिए कई बार लगता है, मेरे पूरे शरीर में आँखें ही सबसे ज्यादा मजदूरी करती हैं।...रात तक उनका ऐसे कचूमर निकल जाता है, जैसे उन्होंने दिन भर बोरे ढोए हों।” फिर एक बार जब मैं गहरे पसोपेश में था, उन्होंने मुझे लिखा, “आशुतोष, तुम लोग कैसे हो? मेरी इच्छा है कि तुम हिंदी में पी-एच.डी. करो और सच में कुछ काम करो।” फिर अपने बारे में लिखा, “आशुतोष, इस समय प्रूफ देखने के लिए अनंत काम मेरे सामने पड़ा है। मैं आधी-आधी रात तक जागकर जो पन्ने मेरे सामने आते हैं, उनका एक-एक हिज्जा ठीक करता हूँ। उन्हें बिल्कुल निर्दोष और निर्मल बनाता हूँ। पर फिर एकाएक सोचने लगता हूँ, मैं कुछ भी करूँ, इससे क्या? लोग तो वैसे ही रहेंगे, और यह समाज भी। आखिर इस देश और समाज के बिगड़े हुए हिज्जे कौन सुधारेगा...?” फिर बरसों बाद दक्षिण दिल्ली के एक दूर के कालेज में लेक्चरशिप मिली तो उनके आखिर के कुछ वर्ष थोड़े चैन से बीते। पढ़ाने में फिर वही रस आने लगा। लेकिन पिछले कुछ बरसों के अनुभव उनके इतने कड़वे थे कि वे उन्हें कभी भूल नहीं पाए। वह पहले वाला जोश और उत्साह शायद नहीं लौट सका। वे अंदर से कहीं टूट हो चुके थे और रात-दिन कुछ सोचते रहते थे। इधर लिखने की दीवानगी उनकी बढ़ गई थी और कविता की जगह गद्य ने ले ली थी। यहाँ दिल्ली में भी उनकी एक शिष्य मंडली थी और उसी के बीच वे थोड़ी निश्चिंतता महसूस करते थे। हालाँकि कालेजों में पढ़ाई का तौर-तरीका और वातावरण जैसे बदला था, उसने उन्हें हिला दिया। वे पूरी तरह सहज फिर कभी नहीं हो पाए। बाद में कुछ पेंशन भी हो गई। वे अब निश्चिंत होकर कुछ लिखने की सोच रहे थे। मित्रों के पूछने पर कहते, “शायद अब मैं वह सब लिख पाऊँ, जो मेरे भीतर जाने कब से अटका पड़ा है...!” अभी कोई साल भर पहले मैं और नीलू खट्टर दोनों मिलने पहुँचे तो बहुत खुश हुए। बहुत खुश। बोले, “लगता है, मैं फिर वहीं पहुँच गया, उसी जगह, जो कोई पच्चीस बरस पहले मुझसे छूट गई थी।” फिर बहुत भावुक होकर बोले, “सच्ची कहूँ तो पढ़ाने का जो आनंद पंजाब के उस छोटे से कॉलेज में आया था, वह फिर कभी नहीं आया। वे मेरे जीवन के स्वर्णिम दिन थे। आज भी निराश होता हूँ तो उसी से शक्ति मिलती है। तुम लोगों को याद करता हूँ और आनंद से भर जाता हूँ...!” कहते-कहते उनका स्वर भीगने लगा था। तबीयत उनकी ठीक नहीं थी, पर मन में गजब का उत्साह। उस दौर के उनके और विद्यार्थी भी जाकर मिलते तो कुछ पलों के लिए वे मानो ठिठक से जाते। कई बार बातें करते-करते भावुक हो जाते, “अरे, तुम्हें याद है वह सब...? मैंने तो नहीं सोचा था कि तुम लोग...!” “सर, आपने जो दिया है, वह क्या हम लौटा सकते हैं किसी भी तरह? बस, आपसे मिल लेते हैं, आपके लिए कुछ कर तो नहीं पाए...!” नीलू खट्टर के साथ गया पूरन कह रहा था। इस पर हँसकर बोले, “इतनी दूर से तुम लोग आ जाते हो मिलने के लिए, कुछ बातें हो जाती हैं। मेरे लिए तो यही सबसे बढ़कर है।” इधर कुछ वर्षों से वे बड़ी तेजी से अपना आत्मकथात्मक उपन्यास पूरा करने में लगे थे, ‘हीरेन बाबू की अजीब दास्तान’। कुछ समय से फोन पर उनसे बातें होने लगी थीं। कभी-कभी अपने अलमस्त अंदाज में कहते थे, “आजकल रात-दिन हीरेन बाबू मेरे साथ रहते हैं।” फिर एकाएक गंभीर हो जाते। कहते, “आशुतोष, सच कहता हूँ, मैं इसे पूरा किए बिना नहीं मरना चाहता!” बाद में उसी का नाम बदलकर, उन्होंने उपन्यास को नया नाम दिया, ‘हीरेन बाबू का अधूरा जिंदगीनामा’। “क्यों...? अधूरा जिंदगीनामा किसलिए?” मैंने जानना चाहा। इस पर बोले, “देखो आशुतोष, यह उपन्यास की शक्ल में मेरी आत्मकथा है, मेरी अपनी औघड़ जिंदगी की कहानी...और आत्मकथा कभी किसी की पूरी नहीं होती। हो ही नहीं सकती, इसलिए यह नया नाम मुझे सूझा, ‘हीरेन बाबू का अधूरा जिंदगीनामा’। क्यों, तुम्हें पसंद नहीं आया?” “नहीं, ठीक है सर...! पर वह पहले वाला नाम भी अच्छा था।” मैंने झिझकते हुए कहा। सुनकर सीरियस हो गए। बोले, “लगता है, आशुतोष, तुम्हें वह पहला वाला नाम ज्यादा पसंद है। पर अब तो रख दिया यह नाम। उपन्यास जब भी छपेगा, इसी नाम से छपेगा।” फिर एक दिन एकाएक बुरी खबर। फोन करने पर पता चला, उन्हें कैंसर है... गले में। खाने-पीने तक में कष्ट हो रहा है। दवाएँ अब असर नहीं कर रहीं। डाक्टरों ने जल्दी कीमियोथैरेपी सजेस्ट की है। फिर पता चला, कीमियोथैरेपी शुरू हो गई है और कुछ-कुछ फायदा है। फिर एक अच्छी खबर। डाक्टरों के इलाज के साथ-साथ श्यामला भाभी की अनथक सेवा काम आई। कैंसर की गिरफ्त से वे मिकल आए हैं और अब फिर से अपना लिखना-पढ़ना शुरू कर रहे हैं... फिर एक दिन बज्राघात, श्यामला भाभी नहीं रहीं...अचानक हार्ट अटैक! हम सब लोग दौड़कर पहुँचे। पर वह जो घर की आत्मा थी, चली गई। जित्ते सर अकेले होते चले गए। एकदम अकेले...। अकेले और अशक्त। अभी कोई छह महीने पहले मिला तो पहचाने नहीं जा रहे थे। जैसे गालों की हड्डियाँ झाँक रही हों। इस हालत में दोबारा फिर से कैंसर ने सिर उठाया तो न तो न उनके शरीर में ताकत और न शायद जीने की लालसा ही बची थी। बस, खुशी इस बात की थी कि उन्होंने अपना वह महत्वाकांक्षी उपन्यास पूरा कर लिया था। मैंने देखा, कोई हफ्ता भर पहले ही वह पूरा हुआ था। उस पर तारीख पड़ी थी, 12 फरवरी, 2015 और समर्पण किया गया था, “अपने प्यारे शिष्यों को, जो मुझे अपनी संतानों की तरह लगते हैं। वही मेरा परिवार हैं, वही मेरा भविष्य भी। जब नहीं रहूँगा, तब भी शायद उन्हीं की आँखों से दुनिया को देखूँगा, उन्हीं के कानों से सुनूँगा और उन्हीं में शायद जीवित रहूँगा। सच्ची बात तो यह, कि मैं मरना नहीं चाहता...या शायद मरकर भी इसी दुनिया में रहना चाहता हूँ!”
...पर हुआ वही, जिसकी ओर तिल-तिल करके वे बढ़ रहे थे। अंत में निगम बोध घाट। विद्युत शवदाहगृह। नीलू ने बताया, “मुश्किल से कोई पंद्रह-बीस लोग रहे होंगे वहाँ।...कोई जाना-माना साहित्यकार नहीं।” दिल्ली शहर। सबकी अपनी व्यस्तताएँ, सबके अलग समीकरण। फिर घर से निकलना आसान भी तो नहीं होता, जबकि मरने वाला एक असफल जीवन जीकर गया लगभग बेपहचाना लेखक हो।... घंटे-आध घंटे में सब खत्म हो गया। हालाँकि कई बार लगता है, वे इतने विद्रोही और जिंदादिल इनसान थे कि जरूर मौत को भी चकमा देकर आ जाएँगे और हँसते हुए कहेंगे, “मैं गया कहाँ...? कोई मुझे ले जाए क्या यह आसान है? मैं तो यहीं था, तुम सबके पास और हमेशा बना रहूँगा!” काश, यह सच होता...! काश, हम उन्हें यकीन दिला पाते कि जित्ते सर, आप क्यों निष्फल कहते हैं अपने आप को? आपके इतने-इतने शिष्य हैं दूर-दूर तक, जिनके दिलों में आप रहेंगे। तो...तो फिर...? अभी मैं यह सोच ही रहा था कि लगा, घोर अँधेरे की चादर फाड़कर निकले हैं जित्ते बाबू। चेहरे पर एक बाँकी, तिरछी मुसकान, “क्या सचमुच...?” और मैं कुछ कहूँ, इससे पहले ही गायब वह बाँकी मुसकान। गायब चेहरे और आवाज की वह कौंध। और अब एक अंधकार है, अफाट अंधकार...और उसमें डबडबाई आँखों से पूछा गया, काँपता एक सवाल—आप...आप कहाँ हैं जित्ते सर...?