आप क्या कर रहे हैं / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
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उसकी याद आती है।

हर कहीं मेरी आँखें हमेशा उसे ढूँढ़ती रहती हैं।

आख़िरी बार मैंने उसे इस शहर के बड़े स्टेशन के पब्लिक ब्रिज के पास देखा था और उसके पहले स्टेशन रोड के फ़ुटपाथ पर...

उसकी याद आती है, बराबर आती है। एक बार उसे देख लेता तो मन को कम-से-कम यह तसल्ली तो हो जाती कि वह इस संसार में अभी है।

कितने दिन हो गये उसे देखे, फिर भी उसकी याद नहीं जाती। यह कैसी अजीब बात है कि पहली बार जब मैंने उसे देखा था, तभी उससे प्रभावित हो गया था और फिर कभी भी मैं उसे भुला न पाया।

मुझे अच्छी तरह याद है, सबसे पहले मैंने उसे अपने एक मित्र के यहाँ देखा था। इस शहर में एक कालेज में मुझे नौकरी मिली थी। अपना डेरा ठीक करने के पहले मैं अपने इस मित्र के यहाँ दो दिन ठहरा था। रात एक की गाड़ी से पहुँचा था। सुबह चाय पर हम बैठे तो मेरे मित्र ने पुकारा, ‘‘नवाब साहब!’’

बग़ल में रसोई थी। दरवाज़े पर आकर उसने कहा, ‘‘कहिए?’’

मैं तो उसकी तरफ़ देखता ही रह गया। बारह-तेरह वर्ष का लडक़ा। साफ़-सुथरे कपड़े। गन्दुमी रंग। बड़े ही तीखे नक़्श। आँखें ऐसी बड़ी-बड़ी और नुकीली, कि जैसे देखने वाले की आँखों में गड़ी जा रही हों और उन पर घनी, बड़ी-बड़ी बरौनियों के साये तो ऐसे कि जैसे किसी को भी अपने नीचे ढँक लें। चौखट पर उसके उस तरह अकडक़र खड़े होने और दबंगई से बोलने के अन्दाज से मैं दंग रह गया।

‘‘अजऱ् यह है, हुज़ूर, कि हम मेज़ पर हाजि़र हैं, ज़रा चाय-वाय लाने की मेहरबानी करें!’’ मेरे मित्र ने मुसकराते हुए कहा।

‘‘अभी आया,’’ और वह अन्दर चला गया।

‘‘यह कौन हैं?’’ मैंने कुछ न समझते हुए धीरे से पूछा।

मेरा मित्र धीरे से हँस पड़ा। बोला, ‘‘यह नवाब साहब हैं। इनके वालिद हुज़ूर ने बीमार होकर एक हफ़्ते की छुट्टी फ़रमायी है। उनकी जगह पर इन्होंने गद्दी सँभाली है। दो दिन हुए इनको आये हुए, लेकिन इसी बीच इन्होंने अपनी रसोई की सल्तनत में इनक़लाब कर दिया है! बड़ी लाजवाब हस्ती हैं ये! तुम ख़ुद इन्हें जान जाओगे। यह छुपे रहने वालों में नहीं हैं!’’

‘‘हूँ! मालूम तो कुछ ऐसा ही देता है,’’ मैंने कुछ समझकर कहा, ‘‘मुझे तो इनके पहले तेवर ने ही ग़ुलाम बना दिया!’’

‘‘यह अच्छा हुआ कि तुम पहले ही इनके तेवर से परिचित हो गये, वरना...,’’ मेरे मित्र ने हँसकर कहा, ‘‘कहीं कोई हलकी बात तुम्हारे मुँह से निकल जाती तो यह हज़रत इस तख़्ते-ताऊस को लात मारकर निकल भागते और हम दो रोटी के लिए तरस जाते।’’

‘‘ऐसा?’’ मेरे मुँह से यों ही निकल गया, ‘‘तब तो सच ही ये अज्ञातवासी पाण्डवों में से कोई मालूम होते हैं। इसे मैं तुम्हरा सौभाग्य समझूँ या...’’

‘‘मैं तो सौभाग्य ही समझता हूँ। अभी नाश्ता आता है, तो तुम्हें भी मेरा सौभाग्य मालूम हो जाएगा। मैं तो चाहता हूँ कि इनके वालिद जान बीमार ही पड़े रहें तो अच्छा!’’

तभी उसने नाश्ता मेज़ पर ला रखा। उसके हाथों को देखने से यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि वह नाश्ता मालिक के लिए लगा रहा है या अपने लिए। मुझे तो यह भी शक हो आया कि यह भी कहीं साथ ही बैठकर तो नाश्ता नहीं करेगा? लेकिन हर चीज़ क़ायदे से लगाकर वह फिर रसोई में घुस गया।

मेरा ख़ याल था कि मेरा अफ़सर मित्र साहबी चीज़ें खाता होगा। लेकिन यहाँ तो सभी देसी, घरेलू और रोज़ की जानी-पहचानी चीज़ें थीं। मीठी टिक्की के अन्दर लज़ीज़ हलवा भरा हुआ था और नमकीन टिक्की के अन्दर खड़ी, बघारी हुई मूँग, और उनके ऊपर एक-एक मक्खन की टिकिया, और एक-एक प्लेट पपीते की।

उँगली चाटते हुए मेरे मित्र ने कहा, ‘‘बोलो!’’

मैंने कहा, ‘‘मान गया! अब तो तुम्हें घर बसाने की भी ज़रूरत नहीं!’’

मेरा मित्र ज़ोर से हँस पड़ा। बोला, ‘‘एक ही कारीगर है ये! ऐसी-ऐसी जिद्दत पैदा करते हैं कि इनकी उम्र देखकर हैरान हो जाना पड़ता है। ...उस दिन शाम को आफ़िस से लौटा तो आप बरामदे में बेंत की कुर्सी पर तशरीफ़ रखे हुए थे। मैं दरवाज़े की ओर बढ़ा तो आप खड़े होकर चाबी मेरी ओर बढ़ाते हुए फ़रमाते हैं, ‘अब्बा बीमार पड़ गया है।’ ’’

मैंने पूछा, ‘‘आप?’’

इन्होंने फ़रमाया, ‘‘मैं उसका लडक़ा हूँ।’’

मैंने पूछा, ‘‘आप इत्तिला देने आये हैं?’’

इन्होंने कहा, ‘‘नहीं, उसका काम सँभालने आया हूँ।’’

‘‘मैं तो इनकी तरफ़ देखता ही रह गया। बोला, आप उसका काम सँभालेंगे? मालूम है, वह यहाँ क्या-क्या काम करता है?’’

आप आँखें चढ़ाकर बोले, ‘‘मालूम है!’’

‘‘मुझे विश्वास हो, ऐसी कोई बात ही नहीं थी। मैंने पूछा, आप खाना बना लेते हैं?’’

इस पर तो आप तुनक ही गये। कहते हैं, ‘‘काम देख लीजिए, साहब! बात करने से क्या फ़ायदा?’’

‘‘अब मैं क्या करता? सोचा, देख ही लिया जाए। वरना होटल तो बने ही हुए हैं। मैंने इन्हें रसोई और स्टोर दिखा दिया।’’

बोले, ‘‘खाना कै बजे खाते हैं?’’

‘‘मैंने बता दिया, नौ बजे। सोचा कह दूँ, अभी चाय लूँगा। लेकिन फिर यह सोचकर कि लडक़े पर ज़हमत क्यों डालूँ, मैं ख़ामोश ही रहा। मैं कपड़े बदल रहा था, तो स्टोव की आवाज़ आयी। मुँह-हाथ धोकर, बैठक में आ सोचने लगा कि होटल से चाय पी आऊँ कि घी की सुगन्ध आयी। मैं सिगरेट जलाकर यों ही बैठ गया। थोड़ी देर बाद आप आकर पूछते हैं, चाय कहाँ लेंगे?’’

‘‘मैं इनका मुँह देखते हुए बोला, चाय? ...चाय बनायी है क्या?’’

ये बोले, ‘‘तैयार है, आप कहाँ लेंगे?’’

मैंने कहा, ‘‘यहीं लाइए।’’

‘‘तुरन्त ही सजी हुई टे्र मेरे सामने मेज़ पर आ गयी। एक प्लेट में बेसन का हलवा और दूसरी में नमकीन कचरी, टिकोजी से ढँका हुआ-टी पॉट, दूध, चीनी और एक गिलास पानी। मैं हैरान कि इतनी चीज़ें इन्होंने इतने कम समय में कैसे बना लीं! हलवा बेहद लज़ीज़ था और कचरी बिल्कुल खस्ता। जितनी हैरानी उतना ही मज़ा! चाय पीकर मैं सिगरेट जला ही रहा था कि आप हाजि़र। मैंने कहा भाई खूब! आपकी जितनी तारीफ़ की जाए, कम है!’’

आप टे्र उठाते हुए बोले, ‘‘शुक्रिया!’’ और मेरी ओर एक नज़र फेंककर चलते बने कि अभी आप मुझे क्या समझते हैं?

‘‘थोड़ी देर बाद मैं यह पूछने रसोईं की ओर गया कि रात या सुबह के लिए सब सामान है न, कि देखता हूँ कि डायनिंग रूम में मेज़ पर आप बाक़ायदे जमे हुए चाय और नाश्ता ले रहे हैं। मुझे बेहद बुरा लगा, लेकिन यह सोचकर मैं वहीं से लौट आया कि इन्हें बाद में समझा दूँगा।’’

‘‘तो तुमने समझाया?’’ मैंने मित्र से पूछा।

‘‘नहीं,’’ मित्र बोला, ‘‘रात को मैं खाने पर बैठा तो ये आप ही बोले, शाम को उस तरह मेरा चाय लेना आपको बुरा लगा। देखिए, साहब! जहाँ तक काम का सम्बन्ध है, मैं आपका नौकर हूँ। काम में कोई नुक़्स हो, आप मुझे डाँटिए। लेकिन जहाँ तक आपके और मेरे बीच व्यवहार का सम्बन्ध है, मैं आपसे निवेदन कर देना चाहता हूँ कि वहाँ मुझे नौकर न समझें, बल्कि अपने बराबर समझें।’’

‘‘मैं इनका मुँह ताकने लगा, तो ये बोले, एक बात पूछता हूँ, आप बुरा न मानें, आप यह बताने की मेहरबानी करेंगे कि आपको उस तरह मेरा चाय पीना क्यों बुरा लगा?’’

‘‘बात यह है कि, मैंने कहा, जो क़ायदा है...’’

‘‘क्या क़ायदा है? आप पूछ बैठे।’’

‘‘यही कि साहब लोगों... मैं आगे क्या कहूँ, मेरी समझ में न आया। फिर बोला, भाई, अभी तुम बिल्कुल लडक़े हो, मैं तुम्हें क्या बताऊँ। तुम जैसे चाहो खाओ-पिओ। एक हफ़्ते की तो बात है।’’

‘‘नहीं, साहब, आप बोले, इस तरह तो मैं नहीं रह सकता! मेरा इस तरह खाना-पीना आपको बुरा लगेगा, तो मैं कैसे रह सकता हूँ?’’

‘‘मैंने यों ही कह दिया, मुझे बुरा नहीं लगेगा। आपने बात कह दी, मैंने समझ ली। आप जैसे चाहिए, रहिए-सहिए।’’

‘‘ठीक कह रहे हैं न?’’ आपने फिर भी पूछा।

‘‘हाँ, और मैं क्या कहता। मैंने सोच लिया था कि ज़रा इन अजूबे साहब को देख लिया जाए।’’

‘‘इनके चेहरे का तनाव कम हो गया तो मैंने पूछा, आपका शुभ नाम?’’

‘‘नवाब, इन्होंने फरमाया।’’

‘‘आप कुछ पढ़े-लिखे हैं?’’

‘‘जी!’’

‘‘कहाँ तक पढ़े हुए हैं?’’

‘‘कोई इम्तहान तो नहीं दिया, लेकिन अख़ बार पढ़ लेता हूँ।’’

‘‘अख़ बार?’’

‘‘जी, इनक़लाब अख़ बार मैं हर हफ़्ते खरीदता हूँ। दूसरा अखबार भी पढ़ता हूँ।’’

‘‘तो आप इनक़लाबी हैं?’’

‘‘जी!’’

‘‘अभी से?’’

‘‘जी!’’

‘‘कैसे? मतलब यह है कि आपने कहाँ इनक़लाब का सबक़ लिया?’’

‘‘डाक्टर चचैया को आप जानते हैं?’’

‘‘हाँ, वह इनक़लाब के सम्पादक थे न? ...लेकिन वह तो तीन साल पहले जेल में मर गये थे।’’

‘‘जी, मरे नहीं थे, मार डाले गये थे!’’

‘‘कुछ हल्ला-गुल्ला तो हुआ था। तो आप...’’

‘‘जी, मेरी माँ उनके यहाँ काम करती थी। आप जानते हैं, उनकी पत्नी अपने घर में मज़दूरों के बच्चों के लिए एक स्कूल चलाती हैं। उन्हीं के स्कूल में मेरी भी पढ़ाई-लिखाई हुई। मैं बचपन से ही माँ के साथ उन्हीं लोगों के यहाँ रहा। माँ की मदद करता था और उनके स्कूल में पढ़ता था।’’

‘‘तो खाना-बनाना भी आपने वहीं सीखा?’’

‘‘नहीं। वहाँ तो लोग बहुत ही मामूली खाना खाते थे। खाना बनाना मैंने सिंह साहब के यहाँ सीखा।’’

‘‘कौन सिंह साहब?’’

‘‘बैरिस्टर, जो नार्थ रोड पर रहते हैं। उनके यहाँ मेरा चाचा बावर्ची है।’’

‘‘वहाँ की नौकरी आपने क्यों छोड़ी?’’

‘‘एक दिन उनके मेहमान ने मुझे गाली दे दी।’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर मेरे एक साथी ने बीड़ी के एक कारख़ाने में मुझे काम दिला दिया था।’’

‘‘वहाँ आप क्या करते थे?’’

‘‘वहाँ रैपिंग डेपार्टमेण्ट में मैं काम करता था।’’

‘‘वह काम आपने क्यों छोड़ा?’’

‘‘वहाँ हड़ताल हुई और हम कई आदमी निकाल दिये गये। हमारा केस चल रहा है।’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर यह आपके यहाँ आया हूँ, अब्बा के एवज़ में।’’

तभी नवाब आ गया और टे्र उठाते हुए उसने मेरी ओर संकेत करते हुए मित्र से पूछा, ‘‘आपका भी खाना बनेगा न?’’

मित्र ने कह दिया, ‘‘हाँ।’’

वह चला गया, तो मित्र ने मुझसे कहा, ‘‘आओ, चलो, मैं तुम्हें इनकी कोठरी दिखाऊँ। इनके वालिद बरामदे में ही सो-बैठ लेते थे। लेकिन इन्होंने कहा, मुझे कोई और जगह दीजिए।’’ उधर कोने में एक बेकार-सी कोठरी पड़ी हुई थी। मैंने मन में सहमे-सहमे ही इन्हें वह कोठरी दिखाई और कहा, ‘और कोई जगह तो मेरे पास है नहीं। देख लीजिए, यह कोठरी तो आपके लायक़ नहीं है।’

‘‘इन्होंने देखकर कहा, ठीक है। रह लूँगा।’’

वह कोठरी सचमुच बड़ी बारीकी से देखने की चीज़ थी। छोटी-सी कोठरी, साफ़ और क़रीने से सजी हुई। एक ओर दीवार से लगकर फ़र्श पर एक चटाई बिछी थी। दूसरी ओर दीवार से लगकर ईंटें सजाकर उन पर दफ़्तियों के टुकड़े रखकर दो ख़ानों की रेक बनायी गयी थी। उस पर अख़ बार और कुछ किताबें सजाकर रखी हुई थीं। ऊपर की दफ़्ती पर एक टूटे हुए गिलास में गुलदस्ता सजा था और उसके दोनों ओर मदार के फूल के दो-दो तोते बैठाये हुए थे। दरवाज़े के पास कोने में ईंटों पर एक छोटी-सी सुराही करई से ढँकी हुई रखी थी।

मेरे मित्र ने कहा, ‘‘और यह देखो!’’

सामने की दीवार पर कीलों से तीन हैंगरों में एक कमीज़, एक तहा हुआ पायजामा और एक छोटा तौलिया लटके हुए थे। मित्र ने एक हैंगर को हाथ से पकडक़र कहा, ‘‘देख रहे हो इनकी करामात!’’

वे हैंगर टहनियों के बने हुए थे।

दंग होकर मैंने कहा, ‘‘भाई, कमाल है! यह तो एक ही आॢटस्ट हैं!’’

‘‘अभी यह इनकी दो दिनों की करामात है,’’ मित्र ने कहा, ‘‘आगे कुछ दिन और यह यहाँ रह गये तो तुम समझ ही सकते हो कि यह कोठरी कैसा रूप धारण कर लेगी!’’

तीसरे दिन सुबह मैं जाने लगा, तो नवाब को बुलाकर मैंने दो रुपये उसकी ओर बढ़ाए।

उसने पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

मैंने कहा, ‘‘बख़्शीश।’’

भौंहे चढ़ाकर वह बोला, ‘‘बख़्शीश और भीख में क्या फ़रक़ है? यही न कि बख़्शीश आप ही दी जाती है और भीख माँगने पर दी जाती है? माफ़ कीजिए, साहब, बिना मेहनत के मेरे लिए एक कौड़ी भी हराम है!’’

मारे शर्म के मेरा सिर झुक गया। किसी तरह कहा, ‘‘माफ़ कीजिए, मुझसे ग़लती हो गयी!’’

मित्र ने कहा था कि जब तक कोई व्यवस्था नहीं हो जाती, तुम मेरे ही यहाँ खा लिया करना। लेकिन दो दिनों तक मैं उसके यहाँ न जा सका। अपने इन्तजाम में ही फँसा रहा। फिर भी उस लडक़े की याद बराबर आती रही। मुझे लग रहा था कि जाने कब वह वहाँ से चला जाए। ऐसे नौकर के साथ भला कोई कब तक निबाह कर सकता है? लोगों में ऐसी समझ और उदारता कहाँ है कि वे नौकर की भावनाओं की भी क़द्र कर सकें और उसके साथ बराबर का व्यवहार कर सकें? यहाँ तो लोग नौकर को ग़ुलाम समझते हैं, अपने कुत्ते से भी हीन समझते हैं। मेरी समझ में न आता कि इस लडक़े का ग़ुजर कैसे होगा? यह तेवर, यह दिमाग़ और यह समझ लेकर वह इस ज़माने में कैसे चल सकेगा? आगे चलकर, ठोकरें खा-खाकर वह ‘रास्ते’ पर आ जाएगा, ऐसा न लगता। उसकी बातें कच्ची उम्र की भावुकता या नासमझी की उपज न लगतीं। उसकी बातें तो गहरी समझ, पक्के आत्मविश्वास और प्रबल साहस से फूटती-सी ज्ञात पड़तीं। उसकी हैसियत के लडक़े में ऐसी बातें! उसके भविष्य के विषय में कोई भी कल्पना करना मेरे लिए असम्भव था। शायद यही कारण था कि मुझे उसमें उतनी गहरी दिलचस्पी हो गयी थी।

आखिर तीसरे दिन मैं अपने को रोक न सका। नवाब के बाप की एक हफ़्ते की छुट्टी आज ख़ त्म हो रही थी। सोचा कि फिर जाने नवाब को देख पाऊँ या न देख पाऊँ, आज चलकर देख लूँ। जान-बूझकर रात को मैं काफ़ी देर से मित्र के यहाँ इसलिए पहुँचा कि खाने-पीने की कोई बात न उठे।

मित्र के घर का दरवाज़ा बन्द था, लेकिन दरवाज़े के शीशों से अन्दर की रोशनी आ रही थी। मैंने दरवाज़ा खटखटाया तो बरामदे से किसी की आवाज़ आयी, ‘‘कौन हैं? साहब नहीं हैं।’’

यह नवाब की आवाज़ नहीं थी। मैंने वहीं से खड़े-खड़े पूछा, ‘‘नवाब हैं क्या?’’

तभी बरामदे की बत्ती जल उठी और एक लाग़र, बूढ़ा-सा, लम्बा आदमी मेरे सामने आ खड़ा हुआ। बोला, ‘‘कुर्सी पर बैठ जाइए, साहब! नवाब तो कल नौ बजे ही चला गया था। मैं उसका बाप हूँ। साहब अपने किसी दोस्त के यहाँ गये हैं। कह गये हैं कि देर से लौटेंगे।’’

‘‘आपकी छुट्टी तो आज तक थी न?’’ मैंने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।

‘‘हाँ, साहब, छुट्टी तो आज तक थी,’’ वह बोला, ‘‘लेकिन लौंडा भाग खड़ा हुआ तो क्या करता? उसे तो कोई परवाह ही नहीं है। लेकिन मैं कैसे घर बैठा रहूँ? ड्यूटी न बजाऊँ, तो बाल-बच्चे खाएँगे क्या? साहब बहुत अच्छे आदमी हैं। कोई भारी काम नहीं है। मैंने सोचा था कि वह साहब के यहाँ चल जाए, तो मैं कहीं और अपने लिए इन्तजाम कर लूँगा। लेकिन क्या बताऊँ, यह लडक़ा कहीं खप ही नहीं पाता।’’

‘‘बात क्या हुई, आपको कुछ मालूम है?’’ मैंने पूछा।

‘‘कोई भी बात नहीं हुई, साहब,’’ उसने बताया, ‘‘लौंडे का दिमाग़ ही ऐसा है कि न तो कुछ सोचता है और न समझता है। साहब, आप ही बताइए, इस घर में एक साहब हैं और एक मैं हूँ। अगर साहब की कोई चीज़ इधर-उधर हो गयी, तो वह मुझसे ही तो पूछेंगे कि किसी दूसरे से? इसमें मेरे बुरा मानने की क्या बात है? मुझे मालूम होगा तो मैं बता दूँगा, नहीं मालूम होगा तो कह दूँगा, मैं नहीं जानता। बस इतना ही न, कि और कुछ? साहब को विश्वास न होता, तो क्या वह मुझ पर या मेरे लडक़े पर अपना घर छोडक़र जाते? साहब को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। तीन साल इनके यहाँ मुझे नौकरी करते हुए हो गये, लेकिन एक बार भी इन्होंने मुझे एक हलकी बात नहीं कही...’’

‘‘आखिर हुआ क्या, यह तो बताइए?’’ मैंने उसकी भूमिका को काटते हुए कहा।

‘‘उसने मुझे कुछ नहीं बताया,’’ वह बोला, ‘‘बस, मुँह फुलाये हुए घर पहुँच गया और मेरे सामने चाबी फेंककर कहा कि मैं उनके वहाँ काम नहीं करूँगा। तुम्हें करना हो तो जाओ, वरना उनकी चाबी पहुँचा देना। मैंने पूछा कि आख़िर बात क्या हुई, तो वह बोला, उन्हीं से पूछना। मैंने कह दिया, मैं उनके यहाँ काम नहीं करूँगा! और वह बाहर चला गया। तीन दिन मुझे बुख़ार रहा। अभी बेहद कमज़ोरी है। लेकिन क्या करता? अपनी ड्यूटी पर हाजि़र हो गया। शाम को साहब दफ़्तर से आये तो लडक़े की जगह मुझे देखकर बोले, ‘नवाब साहब चले गये क्या?’ मैंने बताया तो वह बोले, ‘मुझे लगा था कि वह चले जाएँगे। दरअसल ग़लती मेरी ही है। मुझे उनसे नहीं पूछना चाहिए था।’

‘‘आपने उससे क्या पूछा था, साहब?’’ मैंने पूछा तो वह बोले, ‘उनसे, भाई, मैंने बस इतना ही पूछा था कि मेरी क़लम नहीं मिल रही है, आपको मालूम है?’

मैंने कहा, ‘‘साहब, इसमें आपकी भला क्या ग़लती है? आपकी कोई चीज़ नहीं मिलेगी, तो आप पूछेंगे ही। इसमें बुरा मानने की क्या बात है?’’

‘‘लेकिन वे तो बुरा मान गये,’’ साहब बोले, ‘‘और उन्होंने कोई ग़लत बुरा न माना। देखो,’’ कोट की जेब से क़लम निकालकर मुझे दिखाते हुए वह बोले, ‘‘यही वह क़लम है। भूल से मैं दफ़्तर में छोड़ आया था और याद न रहने से मैं सुबह इसे यहाँ खोज रहा था।’’

‘‘ठीक है, साहब,’’ मैंने कहा, ‘‘आपको याद न रहा और आपने पूछ लिया तो, मेरे देखने में तो, इसमें आपकी कोई भी ग़लती नहीं है। लेकिन मैं उस लडक़े की क्या कहूँ, उसका दिमाग़ ऐसा ही है। आपने तो देखा ही होगा।’’

‘‘मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है,’’ साहब बोले, ‘‘कल शाम को उन्हें मेरे पास लाना। मैं उनसे माफ़ी माँग लूँगा। मुझे लगता है कि ग़लती मेरी है।’’

‘‘देखा, साहब, आपने?’’ वह मुझसे बोला, ‘‘ऐसा नेक साहब आपने और कहीं देखा होगा? और वह कमबख़्त एक ज़रा-सी बात पर इनसे भी चिढक़र भाग खड़ा हुआ।’’

‘‘तो तुम उन्हें लिवा लाये थे?’’ मैंने पूछा।

‘‘नहीं आया, साहब!’’ उसने बताया, ‘‘मैंने बड़ी चिरौरी-मिनती की, लेकिन उसकी एक ही लकार रही, नहीं जाता, नहीं जाता, नहीं जाता! इन लोगों के चोंचले मैं जानता हूँ!’’ क्या बताऊँ, साहब! मैं इस लडक़े से बहुत परेशान हूँ। न जाने यह किस घाट लगेगा। मुझे बड़ा डर लगता है। लेकिन उसे डाँटना तो दूर है, मैं कुछ कह भी नहीं पाता। बस्ती में लोगों को वह अख़ बार पढक़े सुनाता है और मीटिंगें करता है। हमारी बस्ती वाल्मीकियों की बस्ती है। हमारे यहाँ मर्द, औरतें और लडक़े-लड़कियाँ सभी ख़ानसामागीरी करते हैं। और यह कहता है कि तुम लोग यह पेशा छोड़ो, यह बड़ी ज़लालत का पेशा है। कारख़ानों में काम करो, तब तुम्हें मालूम हो कि मज़दूर क्या होता है। वह मज़दूरों से इनक़लाब की बातें करता है, साहब! ...बस्ती के लोग उसकी बातें बड़े ध्यान से सुनते हैं ...’’

उसकी बात जारी ही थी कि मैं बीच में ही उठ खड़ा हुआ। बोला, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूँ। साहब आयें तो उनको कह देना कि हरनन्दन आया था।’’

‘‘अच्छा, साहब, सलाम!’’

दूसरी बार उससे मेरी भेंट स्टेशन के सामने फुटपाथ पर हुई थी। स्टेशन के पब्लिक ब्रिज से होकर मैं रोज़ सुबह-शाम अपने डेरे से कालेज जाता और वापस आता था। यही सीधा रास्ता था। वरना एक मील का चक्कर पड़ता था।

एक शनिवार की शाम मैं वापस आ रहा था कि एक कडक़ती हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ी—मज़दूरों और ग़रीबों का अख़ बार इनक़लाब पढि़ए! ...आज का यह संकट पूँजीवादी सरकार की जनता-विरोधी नीतियों का लाजि़मी नतीजा है! ...बढ़ती हुई क़ीमतों के विरोध में देश के कोने-कोने में जनता के विराट प्रदर्शन और सभाएँ! ...कई जगह प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलीं...इनक़लाब पढि़ए! मूल्य सिर्फ़ दस पैसे! ...

मैंने देखा, यह वही था। साइकिल रोककर मैं उसके सामने खड़ा हो गया। और कई लोग उसके पास खड़े थे। कुछ लोग अख़ बार ले रहे थे और कुछ लोग उससे कोई बात कर रहे थे।

उनसे छुट्टी पाकर उसने मेरी ओर देखा और एक अख़ बार बढ़ाया। अख़ बार लेकर, उसे पैसा देते हुए मैंने पूछा, ‘‘मुझे पहचानते हो?’’

‘‘जी, पहचानता हूँ,’’ उसने कहा।

‘‘अब अख़ बार बेच रहे हो?’’ मैंने पूछा।

‘‘अखबार तो मैं हर शनिवार-रविवार की शाम को बेचाता हूँ,’’ उसने कहा।

‘‘मैं तो पहली बार तुम्हें यहाँ अख़ बार बेचते देख रहा हूँ,’’ मैंने कहा।

‘‘इस बार मेरी ड्यूटी यहीं लगी है।’’

‘‘कहाँ काम कर रहे हो आजकल?’’

‘‘अभी तो कहीं नहीं कर रहा हूँ।’’

‘‘तुम्हारे मुक़द्दमे का क्या हुआ?’’

‘‘वह आरबिट्रेशन में है।’’

‘‘काफ़ी दिन हो गये।’’

‘‘ये सब तमाशे हमें बेवक़ूफ बनाने और हमारे मनोबल को तोडऩे के लिए हैं, साहब।’’

‘‘फिर भी हम लोग मुक़द्दमे क्यों लड़ते हैं, आप यह जानना चाहते हैं? एक बात आप जान लीजिए कि इन लेबर-कोर्टों का परदाफ़ाश करने के लिए ही हम लोग मुक़द्दमे लड़ते हैं। हम जानते हैं कि इन कोर्टों का फ़ैसला अधिकतर मालिकों के हित में होगा, क्योंकि इन्हीं की सरकार के बनाये हुए ये कोर्ट हैं। आप तो जानते हैं, कोर्टों में कितना भ्रष्टाचार है। ख़ैर, इस समय मेहरबानी करके आप मुझे अख़ बार बेचने दीजिए...इनक़लाब पढि़ए! मज़दूरों और गरीबों...’’

वह आवाज़ दे चुका, तो इसके पहले कि कोई उसके पास आये, मैंने कहा, ‘‘मुझे हर हफ़्ते यह अख़ बार चाहिए, मेरा पता नोट कर लें, तो अच्छा।’’

उसने चट जेब से नोटबुक और पेंसिल निकालकर कहा, ‘‘बोलिए!’’

मैंने पता बोल दिया। उसने लिखकर कहा, ‘‘अच्छा, नमस्ते! ...’’

मैं अभी पुल के इधर ही था कि साइकिल ढोने वाले कई लडक़े मेरे पीछे पड़ गये, ‘‘बाबूजी, हम ले चलेंगे!’’

रोज़ सुबह-शाम ऐसा ही होता था। कई लडक़े एक साथ पीछे पड़ जाते थे। कई बार तो कई लडक़े साइकिल पकडक़र आपस में झगडऩे भी लगते थे—पहले मैंने कहा था! ...पहले मैंने कहा था! ...

मेरी बड़ी परेशानी हो जाती। आख़िर एक लडक़े के हाथ साइकिल पकड़ाकर मैं दूसरों को डाँटकर भगा देता, तो मेरी जान छूटती।

आज भी ऐसा ही हुआ। लेकिन आज एक ख़ याल भी आया कि ये सब लडक़े भी नवाब के आस-पास की ही उम्र और हैसियत के लडक़े हैं। लेकिन कितना फ़र्क़ है नवाब और इनके बीच! ये कितने गन्दे हैं, बड़े-बड़े नाखूनों में मैल, हाथ-पाँव चीकट, किसी की कमर में फटा हुआ गन्दा जाँघिया और किसी की देह में लिपटा हुआ चीथड़ा। पीले-पीले दाँत, आँखों के कोनों में कीच। देखकर ही घिन छूटती है। उनके हाथ लगाने से साइकिल भी गन्दी हो जाती है। फिर ये किस तरह आपस में झगड़ते हैं और एक दूसरे को कैसी-कैसी गालियाँ बकते हैं! फक-फक बीड़ी पीना तो है ही। इन्हें साइकिल थमाने को जी नहीं करता। लेकिन किया क्या जाए? साइकिल उठाकर पुल की पचासों सीढ़ियाँ चढऩा-उतरना कठिन काम तो है ही, साथ ही खतरनाक भी कम नहीं है। और ये साइकिल चढ़ाने-उतारने के लिए सिर्फ़ तीन पैसे लेते हैं। कभी पाँच पैसे का सिक्का देने पर दाँत चियारकर कहते हैं, ‘‘दो पैसे तो नहीं हैं, बाबूजी! गिरीब मनई हैं, क्या कहते हैं? ...’’

सोमवार की सुबह कालेज जाते समय मैं पब्लिक ब्रिज के पास पहुँचा और जब एक भी लडक़ा मेरी साइकिल के पीछे न पड़ा, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है, आज लडक़े क्या हुए? लेकिन सीढ़ियों के पास पहुँचा तो मुझे और भी बड़ा आश्चर्य हुआ। देखा कि सीढ़ियों की बगल में सब लडक़े एक क़तार में खड़े हैं। उनमें से एक सिरे पर खड़ा एक लडक़ा आया और उसने मेरी साइकिल थाम ली। मैं तो यह व्यवस्था देखता ही रह गया। समझ में ही नहीं आ रहा था कि एक दिन के भीतर ही इतना बड़ा इनक़लाब इन वाहियात लडक़ों में कहाँ से आ गया!

लडक़े के साथ-साथ सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उससे मैंने पूछा, ‘‘क्या बात है, आज तो तुम लोगों में बड़ा क़ायदा आ गया है!’’

वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘हमारा नम्बर लग गया है। जिसका नम्बर आएगा, उसे ही साइकिल मिलेगी!’’

‘‘यह तो मैं देख रहा हूँ,’’ मैंने कहा, ‘‘लेकिन एक ही दिन में तुम लोग ऐसे भले आदमी कैसे बन गये? देखता हूँ कि तुम्हारा जाँघिया भी आज कुछ साफ़ है।’’

‘‘अब हम रोज़ नहाएँगे और अपने कपड़े साफ करेंगे,’’ वह बोला, ‘‘कल से ही हम लोगों ने तय किया है। अब हममें से कोई बीड़ी भी नहीं पिएगा! जो बीड़ी पीता हुआ पकड़ा जाएगा, उसे दण्ड दिया जाएगा, उसे एक दिन साइकिल नहीं ढोने दिया जाएगा। और जो झगड़ा करेगा या गाली बकेगा उसे भी दण्ड दिया जाएगा। तीन साइकिलों की ढुलाई उससे ले ली जाएगी। और, बाबूजी हम लोग एक काम और करेंगे,’’ लडक़ा साँस लेने के लिए रुका।

मुझे आश्चर्य-पर-आश्चर्य का धक्का लग रहा था। एक-से-एक बढक़र आश्चर्य! अचानक ही इन बिगड़े हुए लडक़ों में संगठन और व्यवस्था पैदा हो जाएगी, इसकी कल्पना कौन कर सकता था?

वह आगे बोला, ‘‘बाबूजी, हम लोगों में से हर आदमी रोज़ अपनी एक-एक साइकिल की ढुलाई चन्दा देगा। इस तरह जो रक़म जमा होगी, उसमें से हर हफ़्ता हम लोग अख़ बार और किताबें खरीदेंगे।’’

‘‘वाह!’’ आख़िर मैं दंग होकर बोला।

‘‘और, बाबूजी, हम लोगों में से कोई कभी बीमार भी तो पड़ जाता है। जो बीमार पड़ जाएगा, उसे हम काम नहीं करने देंगे। उसकी छुट्टी रहेगी। और हम लोग जमा हुई रक़म में से उसकी दवा और ख़ुराक़ का इन्तजाम करेंगे।’’

हद हो गयी! यह तो कल्पनातीत लगता था, नितान्त असम्भव! मैंने लडक़े के चेहरे को ज़रा ध्यान से देखा। जिस चेहरे को देखने से घिन छूटती थी, उसी चेहरे पर आज एक अद्भुत चमक देखकर मैं हैरान रह गया। यह कुछ वैसा ही लगा, जैसे घूरे पर अचानक गुलाब खिल गया हो। कैसी अद्भुत उत्साह की यह चमक थी! बालकों और मासूम लोगों के सिवाय यह अन्यत्र दुर्लभ है।

‘‘और एक बात तो मैं आपको बताना ही भूल गया!’’ वह अपने उत्साह में ही बोला, ‘‘हम जल्दी ही कोई कोठरी किराये पर लेंगे और रात में हमारी पढ़ाई भी होगी!’’

‘‘अच्छा,’’ मैंने उसके उत्साह में भाग लेते हुए पूछा, ‘‘लेकिन पढ़ाएगा कौन?’’

‘‘नवाब भैया पढ़ाएँगे,’’ वह बोला, ‘‘परसों शाम को वह हमारे बीच आये थे। उन्होंने ही तो हम लोगों को यह सब सिखाया है। वह भी हम लोगों के साथ यहाँ काम करेंगे।’’

अब मेरी समझ में आ गया। यह इनक़लाब नवाब का लाया हुआ था! लेकिन इतनी जल्दी वह इन आवारों की कायापलट कर सका, यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं थी।

‘‘वह कहाँ है?’’ मैंने पूछा, ‘‘वह तो तुम लोगों की क़तार में दिखाई न दिये?’’

‘‘वह अभी इस ओर हैं,’’ लडक़ा बोला, ‘‘उनकी बारी आएगी तो इधर से साइकिल लेकर वह उधर जाएँगे।’’

सीढ़ियाँ उतरकर लडक़े ने मेरी ओर साइकिल बढ़ाई, लेकिन मेरी आँखें तो इस ओर सीढ़ियों के पास क़तार में खड़े लडक़ों में नवाब को ढूँढ़ रहीं थीं। साइकिल भड़ाम से गिर पड़ी।

कई लडक़े एक साथ दौडक़र साइकिल उठाने लगे। उन्हीं में नवाब भी था। वही बोला, ‘‘ग़लती आपकी थी, लडक़े की नहीं।’’

मैंने साइकिल लेते हुए कहा, ‘‘आप ठीक कहते हैं।’’

साइकिल लाने वाले लडक़े के सिवा सब लडक़े अपनी क़तार में तुरन्त ही जा खड़े हुए। मैंने जेब से तीन पैसे का एक सिक्का निकालकर लडक़े की ओर बढ़ाया।

लडक़े ने हाथ खींचते हुए कहा, ‘‘पाँच पैसे दीजिए, बाबूजी! आज से हमारा रेट बढ़ गया है। आप तो जानते हैं, महँगाई कितनी बढ़ गयी है। आठ आने में एक पाव आटा मिलता है। दस पैसे में दो ठो पकौड़ी मिलती हैं...’’

मैंने पाँच पैसे का एक सिक्का निकालकर उसे देते हुए कहा, ‘‘तुम ठीक कहते हो। तुम लोग दस पैसे लो तो भी कोई अनुचित बात न होगी। पैसे का मूल्य अब कुछ नहीं है।’’

‘‘बाबूजी, आप तो समझते हैं,’’ वह लडक़ा बोला, ‘‘लेकिन कुछ लोग नहीं समझते हैं। कई लोगों से अभी हमारा झगड़ा हो चुका है।’’

तभी नवाब ने उस लडक़े को पुकारकर कहा, ‘‘चलो क़तार में!’’

लडक़ा दौडक़र क़तार के अन्त में जा खड़ा हुआ और मैंने पैडिल पर अपना पाँव रखा।

अब शनिवार की शाम को छोडक़र रोज़ सुबह-शाम पुल के इधर-उधर नवाब दिखाई देता। लेकिन उससे मेरी कोई बात न हो पाती। मुझे देखकर भी वह अपनी क़तार छोडक़र मेरे पास न आता और मैं उसे अपने पास बुलाऊँ, यह मुनासिब न समझता। मेरे बुलाने पर वह मेरे पास आ भी जाता तो मैं जानता हूँ वह मेरे साथ कोई बात न करता। कह देता—यह काम का समय है, माफ़ कीजिए।

मेरा ख़ याल था कि शनिवार को या रविवार को वह खुद ही अखबार लेकर मेरे डेरे पर आएगा। लेकिन ऐसा भी न हुआ। एक दूसरा ही लडक़ा मेरे पास अखबार पहुँचाता था। एक बार मैंने उससे नवाब के बारे में पूछा तो वह बोला—वह हाकिंग करता है, इस मोहल्ले में अख़ बार पहुँचाने का काम मैं करता हूँ।

दरअसल मैं नवाब के इस अद्भुत कार्य पर उसको शाबाशी देने के लिए तड़प रहा था। मैं देख रहा था कि उन लडक़ों की टोली कितनी तेजी से बदलती जा रही थी। दो-तीन हफ्तों के अन्दर ही पहले उन सभी लडक़ों की कमरों में मैंने खाक़ी रंग के नये-नये जाँघिये देखे, फिर नयी-नयी सफ़ेद बनियानें दिखाई दीं। उनके बाल भी अब ठीक दिखाई देते थे, चेहरे तो ख़ैर साफ़-सुथरे हो ही गये थे। इधर मैं यह भी देखता था कि क़तार में खड़े या बैठे कुछ लडक़े कोई बाल-पुस्तिका पढ़ रहे हैं। नवाब की योजना ज्यों-ज्यों सफल होते हुए आगे बढ़ती जाती थी, उसे शाबाशी देने की मेरी चाह और उत्कट होती जाती थी। लेकिन उससे बात करने का मुझे कोई अवसर ही न मिलता था। संयोग कुछ ऐसा था कि मेरी सायकिल ढोने की एक बार भी उसकी बारी न आयी कि पुल चढ़ते-उतरते ही मैं उससे कुछ बात कर सकूँ।

आखिर एक दिन मैंने ख़ुद एक तरक़ीब सोच निकाली। उस दिन शाम को पुल से ज़रा इधर ही मैं सायकिल खड़ी कर रुक गया और सडक़ की ओर देखते हुए इस तरह सिगरेट जलाकर पीने लगा जैसे किसी का इन्तज़ार करता होऊँ। सायकिल खड़ी करते समय मैंने देख लिया था कि नवाब इधर से ग्यारहवें नम्बर पर खड़ा है। उसकी बारी आते देर न लगेगी। इस समय बड़ी भीड़ होती है। यह समय कार्यालयों से बाबू लोगों के लौटने का होता है।

यों मैं सडक़ की ओर देख रहा था, लेकिन मेरी नज़र नवाब की बारी आने पर ही लगी थी। जैसे ही उसकी बारी आयी मैंने चट सायकिल ली और लपककर पुल के पास आ गया। नवाब आया, तो मैंने उसे सायकिल पकड़ा दी। वह सायकिल उठाकर सीढ़ियाँ चढऩे लगा, तो मैं भी उसकी बग़ल में हो लिया।

सीढ़ियों पर बड़ी भीड़ थी, इसलिए उससे बात करने की ललक होने के बावजूद मैंने ज़ब्त से काम लिया। डर था कि बात करने में कहीं उसका ध्यान इधर-उधर न हो जाए और वह किसी ख़ तरे में पड़ जाए। जब सीढ़ियाँ पार करने के बाद समतल पुल पर आ गया और वह एक ओर होकर सायकिल डगराते हुए उतरने वाली सीढ़ियों की ओर चलने लगा, तो मैंने बिलकुल उसके पास-पास चलते हुए कहा, ‘‘बहुत-बहुत बधाई, भाई! आपने वह काम कर दिखाया है, जिसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है। मैं तो जाने कब से आपको बधाई देने को तड़प रहा था।’’

मेरा ख़ याल था कि मेरी बधाई पाकर वह बहुत ही ख़ुश होगा। इसी कारण मैं उसके मुँह की ओर देख रहा था। लेकिन आश्चर्य, उसके चेहरे पर ख़ुशी की कोई भी चमक न आयी। उलटे, मैंने देखा, उसके होंठ ज़रा टेढ़े हो गये। वह बोला, ‘‘इस काम में तारीफ़ की क्या बात है? साहब! यह तो निहायत ही बेकार का काम है। आदमी को काम तो वह करना चाहिए न, जिस काम से उसकी बुद्घि बढ़े, अनुभव बढ़े, और उसकी प्रतिभा विकसित हो। आप ही बताइए, एक तरफ़ से सायकिल उठाकर दूसरी तरफ़ कर देना कौन-सा काम है? यह क्या कुछ वैसा ही काम नहीं है, जैसा कि बैल करते हैं? आप उन पर एक जगह बोझा लाद देते हैं और दूसरी जगह उतार लेते हैं।’’

उसकी बात सुनकर तो मुझ पर जैसे ठण्डा पानी पड़ गया। क्या समझकर मैं इसे बधाई देने के लिए तड़प रहा था और यह क्या कह रहा है! मैंने अपने को सँभालकर कहा, ‘‘मेरा मतलब सायकिल ढोने के काम से न था, मैं तो...’’

बीच में ही बोल पड़ा—असल चीज़ तो काम ही है, जनाब, काम जो हम लोग करते हैं। इसे हम लोग ताजि़न्दगी करते रहे तो क्या हम बैल-के-बैल ही न बने रहेंगे। ज़रा सोचिए तो कि हम लडक़े किसी कारखाने में या खेतों पर काम करते तो क्या होता...

‘‘भाई,’’ मैंने उसे टोककर कहा, ‘‘मैं तो यह कह रहा था कि आपने जो इन लडक़ों को संगठित करके...’’

‘‘आपकी इस बात से मेरी बात में क्या फ़रक पड़ता है?’’ वह बीच ही में फिर बोल पड़ा, ‘‘आप बैलों को नहलाइए-धुलाइए, झाडि़ए-पोंछिए, थोड़े ढंग सिखा दीजिए, इससे क्या फ़रक पड़ता है?’’

‘‘उन्हें आप पढ़ा-लिखा तो रहे हैं,’’ मैंने फिर भी कहा।

‘‘इन्हें मैं क्या पढ़ा-लिखा दूँगा? कोई किसी को क्या पढ़ा-लिखा सकता है? असली पढ़ाई तो कार्य-क्षेत्र में होती है! जिस काम में आपकी बुद्घि, आपकी कारीगरी का उपयोग न हो, आपकी पढ़ाई-लिखाई किस काम आएगी?’’

इस समय मुझे नवाब का एक दूसरा ही रूप दिखाई दिया। मैंने कहा, ‘‘इस समय, आश्चर्य है, आप बहुत दुखी और निराश मालूम पड़ रहे हैं।’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है,’’ वह बोला, ‘‘आपने बात उठायी तो मैंने सही बात कह दी। इस बेकार के काम से हम जल्दी ही छुटकारा पाकर कोई सचमुच का काम करना चाहते हैं। लेकिन आप ही बताइए, यह कैसे हो?’’

‘‘आपके मुक़द्दमे का क्या हुआ?’’

‘‘अभी तारीख़ पड़ी है,’’ वह बोला, ‘‘यह मेरा ही सवाल नहीं है, इन सभी लडक़ों का सवाल है, लाखों...’’

‘‘अच्छा, अब आप मेहरबानी करके सीढ़ियों पर ध्यान दीजिए!’’ उतराई की सीढ़ियाँ वह उतरने लगा, तो मैंने उससे बात करना बन्द कर देना ही ठीक समझा, ‘‘किसी दिन आप हमारे यहाँ आइए, तो ज़रा इतमीनान से बातें हों।

लेकिन वह नहीं आया। मैं जानता था कि वह नहीं आएगा। वह क्या करने मेरे यहाँ आता? केवल बात करने का उसके लिए क्या मतलब था? और मैं उसके किस काम का था? जिस शाम मैंने उसे अख़ बार बेचते देखा था, मेरे मन में आया था कि उसे मैं अपने यहाँ काम करने के लिए कहूँगा। लेकिन तभी उसके बात की बात मुझे याद आ गयी थी कि नवाब घरेलू कामों से कितनी नफ़रत करता है। किसी कारख़ाने में तो मैं उसे कोई काम दिला न सकता था। और अब तो उसके सामने अपना ही नहीं, अपने साथियों का ही नहीं, बल्कि लाखों लडक़ों का सवाल था। मेरी दृष्टि में उसने उन लडक़ों को लेकर जो काम किया था, वह अद्भुत था। लेकिन उसकी अपनी दृष्टि में जैसे वह कोई काम ही न हो।’’

मैं उसके विषय में जितना ही सोचता, उतनी ही जैसे मेरी अपनी विद्वत्ता की तुच्छता और व्यर्थता सामने आ जाती थी। मैं इतना पढ़ा-लिखा था, एक डिग्री कालेज में लेक्चरर था, लेकिन कभी भी जो मेरे मन में ये बातें उठी होतीं, जो उसके मन में उठती थीं, या कभी भी जो मैंने वे काम किये होते, जो वह करता था। कभी-कभी मुझे लगता था कि उसने जीवन का कोई बहुत ही बड़ा गुर प्राप्त कर लिया है। उस गुर के प्रताप से ही वह हर बात, हर समस्या, हर काम के मूल में पहुँच जाता है और उसकी स्पष्ट व्याख्या तुरन्त प्रस्तुत कर देता है। मुझे उसकी हर बात और हर काम में एक बड़ी ही सहज, किन्तु बड़ी ही गहरी समझ का आभास मिलता था। उससे मैं चमत्कृत था और मन-ही-मन उसकी प्रशंसा करता था। उस समझ की सैद्धान्तिक पहलू से मैं व्याख्या भी कर सकता था। लेकिन वह मेरी पकड़ से बाहर ही थी, या यों कहूँ, मैं स्वयं उसकी पकड़ से बाहर ही रहना चाहता था, क्योंकि मैं हरगिज-हरगिज उसे अपने जीवन में व्यावहारिक रूप न दे सकता था। मुझमें उतना साहस था ही नहीं। इसी कारण सच कहूँ, अब मुझे कभी-कभी उससे एक डर-सा लगने लगता था। उस शाम मेरी बधाई का उसने जो उत्तर दिया था, उससे मैं स्वयं संकुचित हो गया था। बाद में मुझे लगा था कि आगे कुछ और बातें होतीं, तो वह शायद सीधे कह देता, ‘आप मूर्ख हैं! आप विद्यार्थियों को क्या पढ़ाते होंगे?’ वह कोई डरने या दबने वाला तो था नहीं!

यह एक अवसर था और स्वयं अपने तथाकथित आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए मेरे मन में यह बात उठी थी कि अब इस लडक़े में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं रखनी चाहिए। आख़िर वह दिलचस्पी ही क्या, जिसका न तो मेरे लिए कोई अर्थ हो और न उसके लिए ही?

लेकिन कोशिश करके भी मैं अपनी यह दिलचस्पी ख़ त्म न कर सका। कारण मैं स्वयं ठीक नहीं बता सकता। लेकिन मुझे लगता था कि मैं व्यावहारिक रूप में न सही, लेकिन किसी-न-किसी रूप में उससे ज़रूर प्रभावित हूँ। उसकी कोई चीज़ है, जो मेरी आत्मा को छू गयी है। ठीक उसी तरह जैसे किसी कविता की कोई बढ़िया पंक्ति किसी सहृदय को छू जाती है।

कभी-कभी तो उसे लेकर मैं बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ कर जाता। जैसे यह कि शायद वह किसी दिन एक बहुत बड़ा नेता हो जाए, या कोई बहुत बड़ा कारीगर...और कभी-कभी तो लगता कि कहीं यह ज़ालिम जि़न्दगी...और मेरी आत्मा काँप उठती। इसका हिसाब कौन बता सकता है कि दुनिया के कितने होनहार...

इन्हीं द्वन्द्वों में कई दिनों तक मैंने उससे आँखें न मिलायीं। यह अच्छा ही हुआ कि इन दिनों मेरी साइकिल ढोने की उसकी एक बार भी बारी न आयी। उसके साथियों से ही मैं उस टोली की प्रगति की सूचनाएँ प्राप्त करता रहा।

एक दिन सुबह अपने वक़्त पर मैं पुल के पास पहुँचा, तो वहाँ एक भी लडक़े को न देखकर मैं अचकचाया-सा इधर-उधर देखने लगा। कल शाम तक तो लडक़ों की क़तार यहाँ खड़ी थी, इस वक़्त अचानक वे सब कहाँ ग़ायब हो गये? समझ में आने वाली बात न थी। पुल पर देखा तो लोग ख़ुद अपनी-अपनी साइकिल उठाकर लिये जा रहे थे। मैं किसी से पूछूँ, इसके पहले ही एक ओर बैठी एक बूढ़ी भिखमंगिन बोल उठी, ‘‘सरकार, आज लडक़े हड़ताल पर हैं। शहर में आज हड़ताल है न!’’

फिर तो सहसा ही मेरी समझ में सब आ गया। महँगाई के विरोध में आज शहर में हड़ताल होने वाली थी, मुझे मालूम था। लेकिन मैंने तो यह सोचा भी न था कि ये लडक़े भी हड़ताल में शामिल हो जाएँगे।

मुझे ठिठका हुआ देखकर वही बूढ़ी मुसकराकर बोली, ‘‘आज तो आपको ही साइकिल ढोनी पड़ेगी, बाबू! एक भी लडक़ा यहाँ नहीं है। यहीं से तो सब जुलूस बनाकर नारे लगाते हुए गये हैं।’’

मैं उस बूढ़ी के व्यंग्य से बचने के लिए ही तुरन्त वहाँ से मुड़ पड़ा। सच ही मेरे मन में एक बार आया कि मैं भी क्यों न आज हड़ताल मनाऊँ। विद्यार्थी तो हड़ताल करेंगे ही, कालेज तो खुलेगा नहीं। प्रिंसिपल का आदेश मुझे याद था कि सब अध्यापकों को हाजि़र होना है, लेकिन जब मैं यह सोच रहा था कि अगर मैं हाजि़र न होऊँ तो क्या होगा? यह अजीब बात है कि मैं अब यह सोच रहा था, घर से चलने के वक़्त तो ऐसा कोई ख़ याल मेरे दिमाग़ में न आया था। मैं कालेज जाने के लिए ही घर से निकला था और मेरी साइकिल पुल के पार हो गयी होती, तो अब तक मैं कालेज पहुँच भी गया होता। लेकिन अब जैसे नवाब ने ही मेरे सामने एक नैतिक प्रश्न खड़ा कर दिया था। उसके प्रति मेरी मौखिक सहानुभूति के लिए जैसे अचानक ही एक परीक्षा से गुज़रने का यह अवसर आ गया था।

फिर भी मैं साइकिल चला रहा था। मैं कालेज की ओर ही जा रहा था, लेकिन मेरे मन में एक द्वन्द्व भी चल रहा था। नवाब को लेकर मैंने बहुत-कुछ सोचा था, लेकिन उसके किसी काम के कारण पहले कोई द्वन्द्व मेरे मन में न उठा था। मैं जानता था कि महँगाई की समस्या ने बड़ा ही भयंकर रूप धारण कर लिया है। मैं जानता था कि महँगाई से चन्द अमीर लोगों को छोडक़र बाक़ी सारे लोग बेहद परेशान हैं। मैं जानता था कि महँगाई के विरोध में बिना आम लोगों के बड़े पैमाने पर आन्दोलन किये, सरकार, जमाखोरों और कालेबाज़ारियों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगने वाली है। मैं जानता था कि इस आन्दोलन में हर आदमी का शामिल होना सामाजिक और नैतिक कर्तव्य है। फिर भी इस कर्तव्य से आँख मूँदकर मैं कालेज हाजि़री देने जा रहा था और मेरे मन में कोई वैसा द्वन्द्व नहीं था। लेकिन यह जानते ही कि नवाब और उसकी टोली भी हड़ताल में शामिल हो गयी है, मेरे मन का यह क्या हाल हो गया?

यह द्वन्द्व चलता रहा और मैं आगे बढ़ता रहा। कई बार साहस बटोरा कि लौट चलूँ, लेकिन एक बार भी लौट न सका। बार-बार साहस करने से भी जैसे मेरी आत्मा की रग-रग में जमी हुई कमजोरी पिघल न सकी, जैसे जन्म-जन्मान्तर से जम-जम कर वह पत्थर हो गयी हो।

कालेज पहुँचते-पहुँचते मैं सम्पूर्ण रूप से हार चुका था। वहाँ नवाब नहीं था। हो सकता है कि उसे मेरे बारे में कोई किसी तरह का ख़ याल भी न हो, लेकिन मैं इस समय उसके सामने बेहद शर्मिन्दा था। एक ऐसी स्थिति आकर चली गयी थी, जिसमें मैं उस अदना-से लडक़े की तरह भी खड़ा न रह सका था।

अध्यापकों से मालूम हुआ कि विद्यार्थियों का जुलूस अभी थोड़ी देर पहले यहाँ से शहर की ओर गया है। शहर में धारा एक सौ चवालीस लगी हुई है, देखो, क्या होता है! शाम को गाँधी मैदान में सभा का भी ऐलान हुआ है।

मैंने उनकी बातें सुन लीं। लेकिन मुझे लग रहा था कि जैसे मुझे उन बातों में कोई दिलचस्पी लेने का हक़ ही न रह गया हो।

हाजि़री-रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद हम सभी अध्यापक स्टाफ़-रूम में आ बैठे थे। प्रिंसिपल ने कहा था कि आप लोग वहाँ बैठें और आदेश की प्रतीक्षा करें।

अध्यापक लोग हड़ताल की ही बातें कर रहे थे। कोई कह रहा था कि डर है कि कहीं हंगामा न मचे। कोई कह रहा था कि जुलूस को अगर पुलिस ने रोका, तो ज़रूर गड़बड़ी होगी। लोगों का ग़ुस्सा बहुत बढ़ा हुआ है। कोई कह रहा था कि धारा एक सौ चवालीस लगाने की क्या जरूरत थी? हड़ताल को शान्तिपूर्वक ग़ुज़र जाने देते। कोई कह रहा था कि वाह! धारा एक सौ चवालीस न लगे, तो यह मालूम कैसे हो कि कोई सरकार है, जो हड़ताल के समय भी अपना काम करती है! कोई कह रहा था कि, जो हो, साहब, इस महँगाई ने तो लोगों की कमर तोड़ दी है! लोग क्या करें?

जिसके मन में जो आती थी, कहता जाता था। लेकिन मेरी समझ में न आता था कि मैं क्या कहूँ। दरअसल मैं कहना चाहता था कि हमें भी हड़ताल और जुलूस में शामिल होना चाहिए था, क्योंकि ऐसा करना हमारा भी, अध्यापक होने के नाते और भी अधिक, एक सामाजिक और नैतिक कर्तव्य था। लेकिन यह बात मैं बहुत चाहकर भी न कह सकता था। जिस डर से मैं यहाँ आ गया था, वही डर इस बात को कहने से भी मुझे रोक रहा था।

क़रीब दो घण्टे वैसे ही बैठे-बैठे बीत गये। हड़ताल से हटकर बहुत सारी दूसरी बातें भी इस बीच हो चुकी थीं—देश की राजनीति से लेकर कालेज की राजनीति तक। लेकिन मैं किसी बात में भी कोई हिस्सा न ले सका। मैं सोच रहा था कि अब भी छुट्टी हो जाए तो मैं जाकर जुलूस में शामिल हो जाऊँ, या कम-से-कम शहर में जाकर देखूँ कि क्या हो रहा है। दरअसल मैं अपनी बेशर्मी को किसी-न-किसी तरह कुछ कम करना चाहता था।

आख़िर साढ़े बारह बजे के क़रीब बड़े घबराये हुए-से प्रिंसिपल अपने कमरे से स्टाफ़-रूम में आये और बोले, ‘‘अभी-अभी सेक्रेटरी साहब का फोन आया है, पाँच जगहों पर लाठी-चार्ज हुआ है और गाँधी मैदान के सामने जुलूस पर गोली चल गयी है...’’

‘‘कितने लोग मरे हैं?’’ एक अध्यापक ने पूछा।

‘‘अभी इसकी कोई ख़ बर नहीं है,’’ प्रिंसिपल बोले।

‘‘हमारे लिए क्या आदेश है?’’ एक दूसरे अध्यापक ने पूछा।

‘‘अभी उन्होंने कहा है कि आप लोग इन्तजार कीजिए, मैं पदाधिकारियों से सम्पर्क स्थापित कर रहा हूँ। शायद कालेज बन्द करना पड़े।’’

प्रिंसिपल चले गये, तो सभी लोग फिर अपनी-अपनी जगह पर बैठ गये और लाठी और गोली चलने के न्याय और अन्याय पर और उसके परिणामों पर बातें करने लगे। फिर एक-एक कर यह भी बताने लगे कि अगर कालेज बन्द हो गया तो उनका क्या प्रोग्राम होगा।

लेकिन मैं बेचैन हो रहा था। मेरी आँखों के सामने नवाब था और मैं उसे लेकर परेशान था। जाने उसे क्या हुआ हो। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि इस स्थिति में भी ये लोग कैसे इस तरह बातें कर रहे हैं। इन लोगों को घायल होने वालों या मरने वालों की कोई चिन्ता क्यों नहीं है? लेकिन यह सवाल मैं उन लोगों से नहीं पूछ सकता था। मुझे डर था कि कहीं मैंने यह सवाल पूछा, तो चट कोई मुझसे ही पूछ बैठेगा कि आपको उनकी इतनी चिन्ता है तो आप भी जुलूस में क्यों न शामिल हुए? फिर मैं इसका क्या जवाब दूँगा?

थोड़ी देर बाद प्रिंसिपल साहब ने आकर बताया, ‘‘तीन की मरने की ख़ बर है। घायल तो बहुत सारे लोग हुए हैं। विद्यार्थी शाम को विश्वविद्यालय के कम्पाउण्ड में सभा करने जा रहे हैं। उन्होंने कल फिर हड़ताल की घोषणा की है। देखिए, क्या होता है। सेक्रेटरी साहब का आदेश है कि कालेज चाहे बन्द हो या न बन्द हो, स्टाफ को बराबर अगले आदेश तक अपनी हाजि़री देते रहना होगा। अब आप लोग जा सकते हैं।’’

सब लोग चले गये, तो मैं प्रिंसिपल के कमरे में गया और उनसे पूछा, ‘‘मरने वालों में कोई लडक़ा भी है क्या, प्रिंसिपल साहब?’’

‘‘यह तो नहीं मालूम,’’ प्रिंसिपल ने कहा, ‘‘क्यों? आप कुछ परेशान मालूम पड़ते हैं!’’

‘‘नहीं, मैं परेशान तो नहीं हूँ,’’ मैंने कहा, ‘‘यों ही एक लडक़े के बारे में मुझे चिन्ता है। किसी तरह यह मालूम हो सकता है, प्रिंसिपल साहब?’’

‘‘कह नहीं सकता,’’ प्रिंसिपल बोले, ‘‘आप चाहें तो कोतवाली को फोन करके पूछ लीजिए, डाइरेक्टरी में नम्बर देख लीजिए।’’

मैंने नम्बर निकालकर रिंग किया। उधर से मेरा नाम पूछा गया, फिर परिचय पूछा गया। फिर पूछा गया, ‘‘आप क्या चाहते हैं?’’

मैंने कहा, ‘‘मैं जानना चाहता हूँ कि क्या गोली से मरने वालों में कोई चौदह-पन्द्रह साल का लडक़ा भी है?’’

उधर से जैसे डाँटते हुए जवाब आया, ‘‘आपसे किसने कहा कि गोली से कोई मरा है? हमें तो कोई ऐसी ख़ बर नहीं है?’’

मैं हैरान होकर रह गया। फिर भी पूछा, ‘‘क्या घायलों में ऐसा कोई लडक़ा है?’’

‘‘साहब,’’ उधर से जवाब आया, ‘‘हमें यह भी ख़ बर नहीं है कि कोई घायल हुआ है।’’

उधर से फोन काट दिया गया तो मैंने भी चोंगा रख दिया। प्रिंसिपल ने पूछा, ‘‘क्या पता चला?’’

‘‘वे कहते हैं, हमें तो कोई ख़ बर ही नहीं है कि कोई मरा या घायल हुआ है।’’

‘‘वो लोग कुछ नहीं बताएँगे,’’ प्रिंसिपल बोले, ‘‘आप सीधे अपने घर जाइए। कल सुबह अख़ बार से शायद कुछ पता चले।’’

दोपहर का वक़्त था। फिर भी सडक़ बिल्कुल सुनसान थी। कोई भी आदमी कहीं दिखाई न दे रहा था। चारों ओर दहशत छायी हुई थी। रह-रहकर जब कोई पुलिस-वैन आगे या पीछे से ज़न्नाटे से आ निकलती तो मन काँप-काँप उठता।

जान-बूझकर ही मैं पुल के पास गया कि शायद वहाँ कोई लडक़ा लौटकर आया हो और उससे नवाब के बारे में कुछ मालूम हो सके। लेकिन वहाँ भी कोई न था, वह भिखारिन भी नहीं थी।

डेरे पर पहुँचा तो अचानक ही ख़ याल आया कि शायद इनक़लाब कार्यालय से कोई पता चल सके। इनक़लाब की एक प्रति निकालकर मैंने पता और फोन-नम्बर नोट किया और साइकिल लेकर चल पड़ा।

दो चौराहों को पार करके तीसरे चौराहे पर पहुँचा, तो वहाँ एक कांस्टेबिल ने बढक़र मेरी साइकिल का हैण्डिल पकड़ लिया और बोला, ‘‘आगे रास्ता बन्द है। आप पीछे लौट जाइए!’’

मैंने साइकिल से उतरकर कुछ पूछना चाहा, तो मुझे रोकते हुए वह बोला, ‘‘यहाँ रुकना मना है; आप तुरन्त लौट जाइए!’’

क्या करता, लौट पड़ा। अब सडक़ के दोनों ओर मैं यह देख रहा था कि कहीं फोन मिले तो रिंग करूँ। आख़िर एक कोठी के सामने फोन के तारों का एक खम्भा देखकर मैंने अन्दाज लगाया कि शायद यहाँ फोन हो। उतरकर ऊपर तारों को ध्यान से देखा, तो मेरा अन्दाज़ा सही निकला। मैं कोठी की ओर बढ़ा, तो देखा, उसके सभी दरवाज़े बन्द हैं और एक चौक़ीदार बाहर बैठा है। मैंने उसी से कहा, ‘‘भाई, मुझे एक बहुत ज़रूरी काम से ज़रा फोन करना था।’’

वह खड़ा होकर बोला, ‘‘इस वक़्त कोठी नहीं खुलेगी। और कहीं देखिए।’’

और कहीं मुझे फोन दिखाई न दिया। लाचार मैं अपने डेरे पर आ पड़ रहा। इस वक़्त परेशान होने से कोई फ़ायदा न था। फिर भी मुझे चैन न था। अब मुझे विश्वास हो गया था कि निश्चय ही शहर में संगीन वारदातें हुई हैं, वरना इस तरह रास्ते बन्द न हो जाते। फिर अचानक ही मुझे पड़ोस के उस विद्यार्थी की याद आ गयी, जो रोज़ सुबह मेरे यहाँ अख़ बार पढऩे आता था। मैं उठकर उसके यहाँ गया। दरवाज़े पर ही उसकी माँ बैठी हुई थी। मैंने उससे पूछा, तो वह आँसू चुलाती हुई बोली, ‘‘वह तो सुबह का ही गया अभी तक नहीं लौटा। सुना है जुलूस पर गोली चली है और कई लोग मारे गये हैं। हम लोगों ने लडक़े को मना किया था, लेकिन वह नहीं माना। उसके बाबू उसे खोजने गये हैं और मैं यहाँ बैठी-बैठी उसका इन्तजार कर रही हूँ। भगवान सही-सलामत उसे वापस लाएँ तो मैं कथा कहलाऊँगी। आपको कुछ मालूम है, मास्टर साहब?’’

‘‘नहीं, मुझे कुछ भी मालूम नहीं है,’’ मैंने कहा, ‘‘वह लौटे तो मुझे ज़रा ख़ बर करवाइएगा।’’

मेरी वह शाम बड़ी बेचैनी में कटी। मुझे नहीं मालूम कि अगर मेरा कोई छोटा भाई भी ऐसी वारदात में फँसा होता, तो मैं इतना परेशान होता कि नहीं।

रात नौ बजे के क़रीब वह विद्यार्थी आया। वह बड़े जोश में था। नमस्ते करने के बाद वह बिना मेरे पूछे ही, एक-एक घटना का वर्णन विस्तार से करने लगा। अन्त में वह बोला, ‘‘कल फिर हड़ताल होगी। हम फिर धारा एक सौ चवालीस को तोड़ेंगे। कल आज से बड़ा जुलूस निकलेगा। ...यह कहाँ का न्याय है, सर, कि तुम हमें भूखों मारो और हम तुम्हारे विरोध में प्रदर्शन भी न कर सकें, जुलूस भी न निकाल सकें? ... ख़ैर अब बताइए, सर, आप मुझे क्यों पूछ रहे थे? अम्मा ने बताया है कि...’’

‘‘भाई,’’ मैंने कहा, ‘‘मेरा भी एक परिचित लडक़ा जुलूस में था, मुझे उसी की चिन्ता है। सुना है गोली से...’’

‘‘काफ़ी लोग मरे और घायल हुए होंगे, सर, बीसों हजार का जुलूस मैदान के पास खड़ा था। उसी पर गोली चली थी।’’

‘‘कौन लोग मरे हैं? तुम्हें कुछ पता है?’’

‘‘नहीं, सर, अभी यह कैसे मालूम होगा? शायद कल सुबह अख़ बार में कुछ आये। ...हाँ...सर, इनक़लाब कार्यालय पर पुलिस ने छापा मारा है, यह मुझे मालूम है। बहुत सारे लोग गिरफ़्तार भी हुए हैं। आपका यह लडक़ा कहाँ रहता है? बतलाइए, तो उसका पता लगाऊँ।’’

‘‘इस वक़्त तुम कैसे जा पाओगे? रास्ते तो बन्द हैं।’’

‘‘मैं चला जाऊँगा, सर, आप बताइए!’’

‘‘नहीं, इस वक़्त रहने दो,’’ मैंने कुछ सोचकर कहा, ‘‘अब कल ही देखेंगे। सुनो, तुम कल सुबह कै बजे निकलोगे?’’

‘‘बिल्कुल सुबह, सर!’’

‘‘ज़रूर जाओगे? तुम्हारे माँ-बाप...’’

‘‘वे मुझे नहीं रोक पाएँगे, सर!’’ वह बोला, ‘‘मैं ज़रूर जाऊँगा!’’

‘‘मुझे भी अपने साथ ले सकते हो? मुझे अपने एक मित्र के पास जाना है। मुझे तो आज रास्ते में एक चौराहे पर पुलिस ने रोक दिया था। मुझे यहाँ की गलियों का कोई पता नहीं है।’’

‘‘ले चलूँगा, सर! ठीक छै बजे आप तैयार रहिएगा।’’

वह पूरी रात आँखों में ही कट गयी। सुबह मैं तैयार हो ही रहा था कि अख़ बार आ गया। पहली सुर्खी थी—शहर में गोली-काण्ड और लाठी-चार्ज...सात मरे और सैंतीस घायल...इनक़लाब कार्यालय पर छापा...दो सौ पचास आदमी गिरफ़्तार! कई जगह क्रुद्घ भीड़ द्वारा लूट-पाट और आगज़नी...मैं तेज़ी से ख़ बर पढऩे लगा। लेकिन मरने वालों और घायलों के कहीं भी नाम न थे। हाँ, यह सूचना ज़रूर थी कि शहर की सभी शैक्षिक संस्थाएँ अनिश्चित काल तक के लिए बन्द कर दी गयी हैं।

तभी वह विद्यार्थी आ गया। मैंने अख़ बार उसकी ओर बढ़ाया तो वह बोला, ‘‘आप जल्दी चलिए! अख़ बार फिर पढ़ लेंगे। एक साथी ने अभी-अभी ख़ बर दी है कि विश्वविद्यालय-क्षेत्र में सशस्त्र पुलिस तैनात कर दी गयी है। सात बजे हमारा जुलूस उप-कुलपति के यहाँ प्रदर्शन करेगा और माँग करेगा कि विश्वविद्यालय-क्षेत्र से तुरन्त सशस्त्र पुलिस हटवाएँ, वरना बहुत बुरे परिणाम होंगे।’’

‘‘साइकिल ले लें?’’ मैंने पूछा।

‘‘हाँ, ले लीजिए,’’ वह बोला, ‘‘मैं अपनी साइकिल नहीं ले जा रहा हूँ। मैं ही साइकिल चलाऊँगा, आप पीछे बैठ जाइए।’’

जाने किन-किन सडक़ों और गलियों को पार करता हुआ वह फर्राटे से निकला जा रहा था। सब जगह कल ही की तरह सन्नाटा था और दहशत छायी हुई थी।

मुझे मेरे मित्र के फाटक पर छोडक़र वह भाग खड़ा हुआ। मैंने साइकिल ले जाने के लिए कहा, तो वह बोला, ‘‘नहीं, इससे अड़चन होगी, इसीलिए मैं अपनी साइकिल नहीं लाया। ख़ैरियत से दिन बीत गया तो शाम को मुलाक़ात होगी।’’

दरवाज़े से मैंने मित्र को पुकारा, तो वह आकर आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘इस वक़्त तुम कैसे आ गये? सुना है, शहर में कई सडक़ों पर लोगों का आना-जाना बन्द कर दिया गया है।’’

‘‘चलो, बताता हूँ,’’ मैंने कहा, ‘‘पहले एक प्याला चाय पिलवाओ। बिस्तर से उठकर सीधे तुम्हारे यहाँ आ रहा हूँ।’’

‘‘अभी बनाता हूँ,’’ वह बोला, ‘‘मैंने भी अभी चाय नहीं पी है।’’

मैंने बैठते हुए पूछा, ‘‘क्यों? तुम्हारा ख़ानसामा...’’

‘‘वह रात बारह बजे गया था, अभी तक नहीं लौटा।’’

‘‘क्यों?’’ मैंने अधीर होकर पूछा, ‘‘बारह बजे रात को...’’

‘‘इनक़लाब कार्यालय का कोई आदमी नवाब के घायल होने की ख़ बर लेकर आया था। उसी के साथ वह गया था। कहकर गया था, सुबह तक ज़रूर आ जाऊँगा। मालूम होता है...’’

‘‘नवाब किसी अस्तपाल में...’’

‘‘मुझे और कुछ भी नहीं मालूम है,’’ मित्र बोला, ‘‘वह आये तो कुछ मालूम हो। मुझे बड़ी देर तक नींद नहीं आयी।’’

‘‘इनक़लाब कार्यालय के आदमी ने कुछ तो बताया होगा,’’ मैंने पूछा, ‘‘नवाब कैसे घायल हुआ...’’

‘‘उसने कुछ भी नहीं बताया,’’ मित्र बोला, ‘‘वह बड़ी जल्दी में था। एक मिनट भी नहीं रुका। ...याद, तुम्हें नवाब की याद है?’’

मुझे लगा कि मैं रो दूँगा। सच ही, उसी क्षण मैं कुछ बोला होता, तो मैं ज़रूर रो देता। लेकिन सिर झुकाकर उस क्षण मैं ख़ामोश रह गया। थोड़ी देर बाद सँभलकर मैंने कहा, ‘‘उससे तो इधर मेरी रोज़ भेंट होती थी।’’ अपनी ही आवाज़ से मुझे लगा कि मेरा गला मुझे धोखा दे रहा है, सो मैं फिर चुप हो गया।

‘‘कहाँ भेंट होती थी?’’ मित्र ने उत्सुक होकर पूछा, ‘‘मुझे तो तब से उसके बारे में कुछ भी मालूम न हुआ। कई बार उसके बाप से पूछा भी, लेकिन उसने मुझे कुछ भी न बताया। हमेशा यही कह देता, जो उसके मन में आता है, वह करता है साहब! वह किसी की बात मानने वाला नहीं।’ तुम्हें कुछ मालूम हो, तो बताओ, यार! मुझे तब से बराबर उसके लिए उत्सुकता बनी रही। यह कितनी अजीब बात है कि वह छोकरा उन थोड़े-से दिनों में ही मुझे इस तरह प्रभावित कर गया कि मैं उसे कभी भी न भूलूँगा और मुझे बराबर यह जानने की उत्सुकता बनी रहेगी कि वह क्या करता है। दुनिया बड़ी ज़ालिम है, यह मैं जानता हूँ। यह भी जानता हूँ, उसके विकास के लिए हमारे समाज में कोई भी अनुकूल परिस्थिति नहीं है। फिर भी मुझे बराबर लगा है कि शायद वह प्रतिकूल परिस्थितियों से कभी ऊपर उठ जाए और एक-न-एक दिन कुछ बन जाए। ख़ैर, तुम रुको, मैं स्टोव पर पानी चढ़ा दूँ।

वह जा ही रहा था कि नवाब का बाप सहसा कमरे में दाख़िल हुआ और बोला, ‘‘साहब, माफ़ कीजिएगा, देर हो गयी। मैं सीधे अस्पताल से आ रहा हूँ। नवाब के बायें जंघे में गोली लगी थी। गोली निकाल दी गयी थी, लेकिन वह बेहोश पड़ा हुआ था। सुबह पाँच बजे उसे होश आया है। डाक्टर कहते हैं, बच जाएगा,’’ कहकर वह रसोई की ओर चला गया।

‘‘भगवान् को धन्यवाद है!’’ मित्र के मुँह से निकला, ‘‘मैं तो डरता था कि कहीं...’’

‘‘क्या देर थी,’’ मैंने भी राहत की साँस लेकर कहा, ‘‘क्या बताऊँ?’’ मैंने तो जब से गोली चलने की ख़ बर सुनी थी, नवाब को लेकर बेहद परेशान था।

‘‘तुम्हें मालूम था कि वह जुलूस में गया है?’’

‘‘हाँ, मुझे मालूम था,’’ मैंने कहा, ‘‘तुम बैठो तो उसके इधर के सब कारनामें मैं तुम्हें सुनाऊँ।’’

चार दिन तक मैं मित्र के यहाँ ठहरा रहा। इस बीच संघर्ष-क्षेत्र शहर से हटकर विश्वविद्यालय में चला गया था। वहाँ सशस्त्र पुलिस और विद्यार्थियों के बीच कई टक्करें हुई थीं। सशस्त्र पुलिस ने एक रात हास्टलों पर वहशियाना हमला बोल दिया था। कमरों के बन्द दरवाज़ों को तोड़-तोडक़र उन्होंने विद्यार्थियों को लाठियों से पीटा था, उनकी घड़ियाँ, ट्रांजिस्टर, क़लमें, अँगूठियाँ और पैसे लूटे थे और सैकड़ों विद्यार्थियों को गिरफ़्तार कर लिया था। बदले में विद्यार्थियों ने दूसरे दिन शहर में जो कांस्टेबिल मिले थे, उनकी पिटाई की थी, विश्वविद्यालय के पास के थाने में आग लगा दी थी और तीन पुलिस-वानों को फूँक दिया था। लगता था कि अब यह सिलसिला कभी ख़ त्म न होगा।

मैं रोज़ नवाब से मिलने को तड़प रहा था। लेकिन मेरा मित्र टाल जाता था। आख़िर चौथे दिन शाम को मैं न माना। नवाब का बाप जब उससे मिलने अस्पताल जाने लगा, तो मैं अकेले ही उसके साथ हो लिया। रास्ते-भर मैं यही सोचता रहा कि नवाब से मैं क्या बात करूँगा। एक बार उसे बधाई देने का नतीजा देख लिया था, अब फिर वैसा करने की बेवक़ूफी मैं न कर सकता था। मन-ही-मन मैं डर भी रहा था कि कहीं वह पूछ न बैठे कि आप भी जुलूस में थे क्या? जो हो, उससे मिलने की ऐसी इच्छा थी कि इस समय मैं सब-कुछ झेलने को तैयार था।

वह बिस्तर पर पड़ा हुआ था। बिल्कुल दुबला हो गया था। लेकिन उसके चेहरे पर कोई शिकन न थी। उसकी नज़र शायद मुझ पर न पड़ी। उसके बाप ने जब उसे बताया कि यह साहब भी तुम्हें देखने आये हैं, तो लेटे-लेटे ही उसने मेरी ओर सिर घुमाया। मैंने उसके क़रीब जा, चेष्टा करके मुसकराते हुए उससे पूछा, ‘‘तबीयत तो आपकी ठीक है न?’’

‘‘जी, बिल्कुल ठीक है,’’ उसने कहा, ‘‘बस, यहाँ पड़े-पड़े जी घबराता है। पता नहीं कितने दिन और यहाँ पड़े रहना होगा।’’

‘‘आप जल्दी ही ठीक होकर यहाँ से मुक्त हो जाएँगें।’’

‘‘अच्छा, तो मैं चलता हूँ,’’ मैंने कहा, ‘‘जल्दी ही फिर हमारी भेंट होगी।’’

‘सो तो है ही,’ रास्ते-भर मेरे कानों में उसकी एक यही बात गूँजती रही और मैं सोचता रहा कि कितनी दिलेरी से यह लडक़ा इतना बड़ा संकट झेल गया है।

दूसरे दिन सुबह मैं अपने गाँव चला गया था।

दो महीने बाद कालेज खुलने की सूचना मिली। मैं स्टेशन पर उतरा, तो पहली बात मेरे दिमाग़ में यही आयी कि पुल के पास चलकर देखूँ कि वहाँ नवाब है कि नहीं। मेरा ख़ याल था कि अब वह वहाँ नहीं होगा। जंघे में चोट आ जाने के कारण वह साइकिल उठाने के क़ाबिल न होगा।

आटो रिक्शा ज़रा दूर ही रुकवाकर मैं पुल के पास गया। वहाँ पहले की ही तरह लडक़ों की क़तार देखकर मुझे ख़ुशी हुई। वही सब जाने-पहचाने लडक़े थे। लेकिन नवाब उनमें नहीं था। मैंने एक लडक़े को बुलाकर पूछा, ‘‘नवाब नहीं हैं क्या?’’

उस लडक़े ने बताया, ‘‘नवाब भैया उस तरफ़ हैं। अभी वह साइकिल नहीं ढोते हैं। गोलीकाण्ड में उनकी जाँघ में गोली लगी थी।’’

‘‘उनकी चोट ठीक हो गयी है?’’ मैंने पूछा।

‘‘जी, चोट तो ठीक हो गयी है, लेकिन उनका वह पैर कमज़ोर हो गया है। ताक़त आने में देर लगेगी।’’

‘‘तुम लोगों में से और किसी को चोट आयी थी?’’ मैंने पूछा।

‘‘जी, एक साथी तो हमारा वहीं जाता रहा था। तीन साथियों को गोली लगी थी। दो अस्पताल से आये हैं। एक अभी अस्पताल में ही है। इन लोगों पर पुलिस ने मुक़द्दमा भी चलाया है। इनक़लाब में इनकी तसवीरें छपी थीं।’’

‘‘इनक़लाब निकल रहा है?’’

‘‘जी, वह तो बराबर निकलता रहा,’’ उसने बताया, ‘‘पुलिस ने पूरी कोशिश की थी कि वह बन्द हो जाए, लेकिन, साहब, उसे दुनिया की कोई ताक़त बन्द नहीं कर सकती! साहब, आप कहाँ रहे इतने दिन? वारदात के बाद आप यहाँ दिखाई न दिये। हमारा धन्धा इधर बहुत मन्दा रहा।’’

‘‘मैं अपने देहात चला गया था। कल से आऊँगा।’’

‘‘नवाब भैया से आपको कुछ कहना है, साहब?’’

‘‘मैं कल उनसे मिल लूँगा, अब चलता हूँ।’’

दूसरे दिन सुबह नवाब को मैंने देखा। लडक़ों की क़तार के पीछे एक छोटी-सी चटाई पर, चारदीवारी से टेक लगाकर बैठा वह कुछ पढ़ रहा था। मैंने उसके पास जाकर उससे पूछा, ‘‘कहिए, अब तो आप बिल्कुल ठीक हैं?’’

‘‘नहीं,’’ वह बोला, ‘‘बिल्कुल ठीक होता तो इस तरह क्यों बैठा रहता? आज स्कूल खुले हैं न?’’

‘‘जी,’’ मैंने बताया, ‘‘मैं देहात चला गया था। कल ही आया हूँ। शाम को ज़रा इतमीनान से बातें होंगी।’’

‘‘मैं तो आपको खोज रहा था,’’ उसने कहा, ‘‘एक दिन मैं आपके डेरे पर भी गया था।’’

‘‘कहिए-कहिए, मुझसे कोई काम है?’’ ख़ शी और उत्सुकता के साथ मैंने पूछा।

‘‘शाम को बताऊँगा,’’ वह मुसकराकर बोला, ‘‘इस समय आपको कालेज की देरी हो जाएगी।’’

फिर भी मैं पूछने को हुआ, लेकिन फिर न पूछा। सोचा, शाम को इतमीनान से बातें करना ही अच्छा होगा।

आगे बढ़ा, तो एक लडक़ा मेरे सामने आ खड़ा हुआ। उसके हाथ में छोटा-सा एक हुण्डी-बक्सा था। उसने बक्सा मेरी ओर बढ़ाकर कहा, ‘‘मज़दूरों और ग़रीबों के अख़ बार इनक़लाब की कुछ मदद कीजिए!’’

मैंने जेब से एक रुपये का एक नोट निकालकर बक्से में डाला, तो लडक़ा बोला, ‘‘धन्यवाद! आप इनक़लाब लेंगे?’’

‘‘मैं लेता हूँ,’’ मैंने कहा।

‘‘बड़ी ख़ुशी की बात है,’’ लडक़ा मुसकराकर बोला, और दूसरे आदमी की ओर चला गया।

शाम को पुल के इधर ही देखा, नवाब फुटपाथ पर बैठा हुआ अख़ बार बेच रहा था। मैं उसके पास जा खड़ा हुआ। पूछा, ‘‘आज तो सोमवार है। इनक़लाब लेट निकला है क्या?’’

‘‘जी, अभी-अभी तो आया है,’’ उसने कहा, ‘‘आपकी कापी पहुँच गयी होगी।’’

‘‘आप मुझसे कोई बात करने वाले थे?’’

‘‘इस वक़्त तो यह जरूरी काम आ गया। आप चलिए, आज रात मैं आपके यहाँ आऊँगा।’’

‘‘आप अच्छी तरह चल लेते हैं?’’

‘‘चल लेता हूँ,’’ वह बोला, ‘‘देर तक खड़ा नहीं रह सकता, कोई बोझ नहीं उठा सकता। और सब ठीक है। आप चलिए।’’

रात को आठ बजे, नौ बजे, दस बजे। मैं उसका इन्तजार करता रहा। उसने आने को कहा है, तो ज़रूर आएगा, इसमें मुझे कोई सन्देह न था।

आख़िर ग्यारह बजे वह आया। आते ही बोला, ‘‘एक मीटिंग में देर हो गयी, माफ़ कीजिएगा।’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ मैंने कहा, ‘‘आप बैठिए।’’

वह बैठ गया, तो मैंने जो मिठाई उसके लिए लाकर रखी थी, उसे उसके सामने रख दिया।

वह बोला, ‘‘मैं तो खाना खाकर आया हूँ, इस वक़्त...’’

‘‘नहीं, आप ज़रूर थोड़ा लीजिए!’’

वह हाथ आगे करके बोला, ‘‘अच्छा, एक टुकड़ा दे दीजिए।’’

‘‘नहीं, आप इसी में से खाइए, कोई ज़्यादा नहीं है। मैं भी खाता हूँ, आप उठाइए।’’

मिठाई खाकर उसने पानी पिया। मैंने पूछा, ‘‘सिगरेट?’’

‘‘नहीं, मैं नहीं पीता।’’

मैं सिगरेट जला चुका, तो वह बोला, ‘‘आप जानते हैं, इनक़लाब कार्यालय पर पुलिस ने छापा मारा था। हमारा सारा अख़ बारी काग़ज़, स्याही के पीपे और दूसरे सामान वह उठा ले गयी थी। साथ ही मशीन को भी तोड़-फोड़ दिया था। सम्पादक और कई दूसरे साथियों को गिरफ़्तार करके ले गयी थी। वे अब भी जेल में हैं। पुलिस का ख़ याल था कि इनक़लाब बन्द हो जाएगा। लेकिन इनक़लाब बन्द नहीं हुआ। उलटे आन्दोलन के दिनों में वह रोज़ाना निकला। पुलिस पता लगाती रही कि वह कहाँ से और कैसे निकलता है, लेकिन वह असफल रही। जो हो, इनक़लाब निकलता रहा और निकलता रहेगा। ज़ब्त भी हो जाएगा तो दूसरा इनक़लाब निकलेगा। फिर तीसरा निकलेगा। हम इसे किसी भी हालत में बन्द न होने देंगे... लेकिन, आप समझ ही सकते हैं, हम कितनी बड़ी कठिनाई में पड़ गये हैं। स्कूल-कालेज बन्द रहने से बिक्री भी कम ही हुई है। मैं चाहता हूँ कि आप ख़ुद तो हमारी मदद करें ही, साथ ही अपने साथियों और मित्रों से भी कुछ मदद कराएँ।’’

‘‘आप जो कहिए,’’ मैंने कहा, ‘‘मैं करने को तैयार हूँ।’’

‘‘यह मेरे कहने की बात नहीं है,’’ वह बोला, ‘‘आप जो भी सुविधानुसार दे सकें, दें और थोड़ी मेहनत करके अपने साथियों और मित्रों से भी जो इकठ्ठा कर सकें, कर लें।’’

मैंने दस रुपये का नोट निकालकर उसे देते हुए कहा, ‘‘यह मेरा है। दो-एक दिन में लोगों से इकठ्ठा करके भी मैं आपको दूँगा।’’

रसीद काटकर मेरी ओर बढ़ाते हुए वह बोला, ‘‘आप माहवार भी कुछ दे सकेंगे?’’

‘‘इतना ही बराबर देता रहूँगा,’’ मैंने कहा, ‘‘ज़्यादा दे सका तो मुझे ख़ुशी ही होगी।’’

‘‘अपने साथियों और मित्रों से भी माहवार के लिए कहिएगा।’’

‘‘ज़रूर कहूँगा,’’ मैंने कहा, ‘‘कुछ-न-कुछ ज़रूर हो जाएगा। अब और कुछ कहिए।’’

‘‘मैं आपसे क्या कहूँ?’’ वह मुसकराकर बोला, ‘‘आप पढ़े-लिखे, समझदार आदमी हैं। आपको तो हमें सब बताना चाहिए और हमें रास्ता दिखाना चाहिए। इस व्यवस्था ने हमारे देश की क्या हालत कर दी है, आप मुझसे कहीं अधिक देख और समझ रहे होंगे। मँहगाई और खाद्य-संकट, बेकारी और भुखमरी, कारख़ाने बन्द हो रहे हैं, उद्योग-धन्धे चौपट हो रहे हैं, आॢथक संकट... सूबों में आये दिन सरकारें गिर रही हैं और बन रही हैं...’’

‘‘हैरत है कि हमारी विकास-योजनाओं का ऐसा परिणाम हुआ। आयोजकों का तो कहना था...’’

‘‘वे लोग तो आज भी कह रहे हैं और जब तक बने रहेंगे, बराबर कहते रहेंगे। लेकिन वे संकट के सिवा और किसी चीज़ का निर्माण कर ही नहीं सकते!’’

‘‘वे भी तो समाजवाद...’’

‘‘कोई अपने बारे में क्या कहता और सोचता है, इसका क्या महत्व है?’’ उसने कहा, ‘‘हम उसका काम और उसके काम का परिणाम देखेंगे न? आप ही बताइए, इतने वर्षों में अगर हमारे यहाँ समाजवाद की शुरूआत भी हुई तो क्या हमारे देश की यही हालत होती, जो आज है?’’

मैं चुप रहा तो वही बोला, ‘‘नहीं, नाम समाजवाद का लिया जाता रहा और विकास पूँजीवाद का किया जाता रहा और इसका लाजि़मी परिणाम यही होना था जो आज हमारे देश में हो रहा है। आज के युग में पूँजीवादी तरीक़े से किसी भी अविकसित देश का विकास हो ही नहीं सकता। ऐसा न होता तो आप ही सोचिए, हमारे देश में यह संकट क्यों उत्पन्न होता?’’

‘‘संकट तो है,’’ मैंने कहा, ‘‘यह तो सब स्वीकार करते हैं। लोगों...’’

‘‘लोगों, ग़रीबों, मज़दूरों, किसानों और बाबू लोगों की बदहाली का ही यह सवाल नहीं है। सवाल पूरे देश का है, देश के विकास का है। ऐसी व्यवस्था जो देश में संकट पैदा कर देती है, देश के विकास का रास्ता बन्द कर देती है, वह हमारे किस काम की है? क्या इतने वर्षों इसे देख लेने के बाद अब यह ज़रूरी नहीं है कि देश की भलाई के लिए, उसके आगे के विकास के लिए हम इस व्यवस्था को ख़त्म कर दें और एक दूसरी ऐसी व्यवस्था क़ायम करें, जिसमें देश के विकास के रास्ते खुलें?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ मैंने कहा, ‘‘जो बेकार सिद्घ हो जाए, उसे ज़रूर छोड़ देना चाहिए।’’

‘‘छोड़ ही नहीं देना चाहिए,’’ उसने कहा, ‘‘बल्कि देश के हर आदमी को अपनी शक्ति भर उसकी जगह एक नयी व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह है कि नहीं? आप ही बताइए?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं।’’

दूसरी बार भी मेरे मुँह से यही बात सुनकर वह हँस पड़ा और बोला, ‘‘ठीक है तो आप ही बताइए, इस ज़माने में वह दूसरी व्यवस्था कौन-सी हो सकती है?’’

‘‘यह आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?’’ मैं बोला, ‘‘यह कौन नहीं मानता कि नयी व्यवस्था समाजवाद ही होगी? ऐसा न होता तो ये लोग भी आज समाजवाद का मुखौटा क्यों धारण करते?’’

‘‘फिर तो हर आदमी के सामने यही सवाल आता है कि आप इसके लिए क्या कर रहे हैं? नहीं?’’

‘‘आप ठीक कहते हैं।’’

सुनकर वह फिर हँस पड़ा और उठते हुए बोला, ‘‘आपको आज सोने में देर हुई, माफ़ कीजिएगा।’’

‘‘नहीं,’’ मैंने भी उठते हुए कहा, ‘‘आज इतनी देर आपसे बातें करके बड़ी ख़ुशी हुई। आशा है, आप फिर मुझे ऐसा अवसर देंगे।’’

लेकिन ऐसा अवसर फिर मुझे कभी भी न मिला। पुल के पास हमारी रोज़ देखा-देखी होती, मुसकराहटों का आदान-प्रदान होता, लेकिन मैं उसके पास न जाता। फिर भी उसका वह सवाल मेरे मानस पर चोट करता रहता—आप क्या कर रहे हैं?

साथियों और मित्रों से पैसे माँगना मेरे लिए कठिन काम था। लेकिन चूँकि मैंने वादा किया था, इसलिए अपने अफ़सर मित्र और दो ऐसे साथियों से, जो मेरी बात न टाल सकते थे, मैंने दो-तीन दिन के अन्दर पैसे माँगकर एक शाम उसे दिये, तो मुझे रसीद देकर उसने पूछा, ‘‘यह कितने लोगों से आपने लिया है?’’

‘‘तीन आदमियों से,’’ मैंने कहा।

‘‘आपके तो बहुत-सारे साथी और मित्र होंगे?’’ उसने कहा।

‘‘हाँ।’’

‘‘तो औरों से भी माँग देखिए।’’

‘‘माँगूँगा।’’

विवश होकर ही मैंने बड़ें संकोच, झिझक और परेशानी के साथ यह काम शुरू किया। लेकिन कुछ ही दिनों में मुझे एक बिल्कुल ही नया अद्भुत अनुभव हुआ। मुझे लगा कि अब जाकर सही माने में साथियों और मित्रों के साथ मेरा सम्पर्क और सम्बन्ध बन रहा है। किसी के साथ हमदर्दी और सहमति का और किसी के द्वेष और विरोध का। देखते-ही-देखते हमारा एक दल बन गया। स्टाफ़ रूम में गर्म-गर्म बहसें होने लगीं। एक नया वातावरण ही बन गया। मैं हैरान था, यह सब क्यों और कैसे हुआ? फिर मुझे सहसा यह एहसास हुआ कि शायद मैं कुछ कर रहा हूँ, इसी कारण यह हो रहा है। मैं इन बातों की चर्चा नवाब से करना चाहता था। लेकिन भेंट होने पर कोई भी बात न कर पाता था। यह अनुभव, यह एहसास मेरे लिए इतना नया था कि इस पर मैं क्या कहूँ, समझ ही न पाता था।

थोड़े ही दिनों में मेरा और हमारे दल का एक नाम-सा पड़ गया और उसे स्वीकार करने में हमें एक ख़ुशी-सी ही हुई, क्योंकि इससे हमारा काम बढऩे लगा, हमारा हौसला बढऩे लगा।

और फिर वह दिन आया। वह शनिवार का दिन था। कालेज से लौटा, तो अचानक ही पुल के पास लडक़ों को न पाकर मैं परेशान और हैरान हो उठा। फिर सहसा ही यह ख़ याल आया कि कहीं-सब-के-सब पुल के दूसरी ओर न हों। मैं अपनी साइकिल उठाकर पुल पर चढ़ा और उतरा। लेकिन इस ओर भी एक भी लडक़ा न था। फिर मैंने याद करने की कोशिश की कि कहीं इस समय कोई जुलूस या प्रदर्शन तो नहीं है? मैंने सुबह अख़ बार पढ़ा था, लेकिन मुझे याद नहीं आया कि इस तरह के किसी कार्यक्रम की कोई सूचना छपी थी।

आस-पास देखा, तो कोई भिखारी भी न था कि उसी से पूछूँ। ख़याल आया कि इस वक़्त तो यहाँ बहुत-सारे भिखारी हुआ करते थे, आख़िर वे कहाँ चले गये?

एक बेचैनी में ही मैं आगे बढ़ा और डेरे न जाकर सीधे इनक़लाब कार्यालय पहुँचा। फाटक पर ही पुल के पास वाले कई लडक़े बैठे हुए दिखाई पड़े, तो मेरी जान में जान आयी। एक लडक़े से मैंने पूछा, ‘‘तुम लोग यहाँ क्यों हो? नवाब कहाँ हैं?’’

‘‘नवाब भैया का कहीं पता नहीं लग रहा है...’’

‘‘क्या मतलब?’’ मैंने चौंककर पूछा। मेरा दिल धडक़ने लगा।

‘‘आपको नहीं मालूम है क्या?’’

‘‘मुझे कुछ भी नहीं मालूम, तुम जल्दी बताओ! नवाब को क्या हुआ?’’ मेरे लिए खड़ा रहना मुश्किल हो गया तो साइकिल खड़ाकर मैं वहीं बैठ गया।

लडक़ा भी बैठकर बोला, ‘‘आज सुबह क़रीब ग्यारह बजे एक कांस्टेबिल अपनी साइकिल पर पुल के पास आया। उतरकर उसने साइकिल उठाने के लिए हमारी ओर इशारा किया, तो हमने मना कर दिया। आप जानते हैं, हम लोग पुलिस की साइकिल नहीं ढोते, क्योंकि ये पैसा नहीं देते।’’

‘‘कांस्टेबिल ने कहा, आओ, ले चलो मैं पैसा दूँगा।’’

‘‘जिस लडक़े की बारी थी, उसने उसके पास जाकर कहा, पहले पैसा दे दीजिए, फिर आपकी साइकिल उठाऊँगा।’’

‘‘पहले पैसा क्यों दूँ? कांस्टेबिल ने कहा, पहले काम करो, फिर पैसा दूँगा।’’

‘‘तब मैं नहीं ले जाऊँगा! कहकर लडक़ा हटने लगा, तो कांस्टेबिल उसे गाली देते हुए उस पर टूट पड़ा और उसे घूँसों-बूटों से ठोकरें मारने लगा। हम यह सहन न कर सके । हमारे हाथ भी जो लगा हम भी वही उठाकर उस पर टूट पड़े। हमसे पेश न पा आख़िर वह अपनी साइकिल उठाकर भाग खड़ा हुआ। उसे भागते हुए देखकर तमाशबीनों ने हू-हू कर दी।’’

‘‘उस समय नवाब भैया पुल के दूसरी ओर थे। एक लडक़े को भेजकर हमने इस वारदात की उन्हें ख़ बर करायी, तो उन्होंने हम-सबको उसी ओर बुला लिया। हम सब इकठ्ठे हो गये, तो वह बोले, आज काम बन्द। हो सकता है कि पुलिस की दौड़ अभी आये।’’

सब लोग इधर-उधर होकर बासे पर पहुँचे। एक आदमी इनक़लाब कार्यालय में जाकर इस वारदात की सूचना दे आया।

‘‘हम लोग बासे पर इकठ्ठे हुए ही थे कि अचानक लठ्ठबन्द पुलिस के एक दल ने हम पर हमला बोल दिया और पटापट हम पर लाठियाँ पडऩे लगीं। हम गिर पड़े तो ज़बरदस्ती हमें उठाकर उन्होंने लारी में ठूँस दिया।’’

‘‘कोतवाली में जाकर उन्होंने फिर हमें गालियाँ दीं और पीटा। और फिर एक-एक कर सबको छोड़ दिया। हम कोतवाली से ज़रा दूर खड़े थे कि सब आ जाएँ तो चलें। सब तो आ गये, लेकिन नवाब भैया नहीं आये। हमने बड़ी देर तक उनका इन्तजार किया। फिर भी वह न आये तो हमें चिन्ता हुई। हमने एक लडक़े को इसकी सूचना देने इनक़लाब कार्यालय भेजा और बाक़ी सब नवाब भैया के बारे में पूछने कोतवाली गये। उन लोगों ने कहा कि सब छोड़ दिये गये हैं, यहाँ कोई भी नहीं है। तुम लोग भाग जाओ, वरना फिर पिटोगे। लेकिन हम वहाँ से नहीं हटे।

‘‘इनक़लाब के मैनेजर साहब आ गये, तो हमने नवाब भैया के बारे में बताया। वह कोतवाली के अन्दर गये और बड़ी देर के बाद ग़ुस्से में बाहर निकलें। बोले, तुम लोग कार्यालय चलो। डर है कि पुलिस ने नवाब को कहीं ग़ायब न कर दिया हो।’’

‘‘सात लडक़ों को अस्पताल पहुँचा दिया गया है। बाक़ी यहीं हैं। कोतवाली पर सात बजे प्रदर्शन करने का फ़ैसला हुआ है। शहर में ऐलान हो रहा है।’’

तभी एक ओर से ऐलान सुनाई पड़ा, भाइयों! आज दोपहर को पुलिस ने पच्चीस मासूम लडक़ों को कोतवाली में बन्द करके बुरी तरह पीटा है। सात लडक़े जख़्‍मी होकर अस्पताल में पड़े हैं और एक लडक़े का पता नहीं है। मालूम होता है कि पुलिस ने उस लडक़े को मार कर उसकी लाश ग़ायब कर दी है। पुलिस के इस ज़ुल्म और निर्मम हत्या के विरुद्घ आज सात बजे इनक़लाब कार्यालय से एक जुलूस निकलेगा और कोतवाली जाकर पुलिस से लडक़े की माँग करेगा। भाइयों! आप लोग ज़्यादा-से-ज़्यादा संख्या में जुलूस और प्रदर्शन में शामिल होइए और पुलिस के ज़ुल्म और हत्या के विरुद्घ आवाज़ बुलन्द कीजिए...

जलूस और प्रदर्शन में शामिल होने के बाद मैं घर लौटा था। हज़ारों लोगों का मजमा कोतवाली के सामने लगा था। लोग बेहद ग़ुस्से में थे। पुलिस के ज़ुल्म और हत्या के विरोध में गगन-भेदी नारे लगा रहे थे और नवाब की माँग कर रहे थे। कोतवाली का फाटक बन्द था और उस पर सशस्त्र पुलिस तैनात थी।

आख़िर फाटक के पीछे कलक्टर प्रगट हुए और उन्होंने माइक पर ऐलान किया—‘हम पूरे मामले की तहक़ीक़ात करेंगे। हम आप लोगों को विश्वास दिलाना चाहते हैं कि अगर इस बात की तस्दीक़ हो गयी कि नवाब यहाँ मारा गया है और उसकी लाश ग़ायब की गयी है तो अपराधियों को निश्चित रूप से दण्ड दिया जायगा।’’

‘‘हम किसी जज द्वारा तहक़ीक़ात की माँग करते हैं!’’ मजमे ने आवाज़ उठायी।

कलक्टर ने कहा—इसके लिए हम सरकार से सिफ़ारिश करेंगे। जो न्यायोचित होगा हम करेंगे, आप लोग विश्वास कीजिए।

उसके बाद जलूस आगे बढ़ गया था।

उसके बाद बहुत-सारे दिन बीत गये हैं। इनक़लाब कार्यालय से मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया है। उसी पुल से रोज़ जाता-आता हूँ। नवाब की बराबर याद आती है। पुल के पास और ज़्यादा आती है। मेरी आँखें बराबर उसे हर कहीं ढूँढ़ती रहती हैं। मुझे हमेशा ऐसा-सा लगता है कि अचानक ही कहीं नवाब मेरे सामने प्रगट हो जाएगा और मुस्कराते हुए मुझसे कहेगा—सवाल यह है कि आप क्या कर रहे हैं?