आप जुझारू हैं या जुगाडू ? / जयप्रकाश चौकसे

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आप जुझारू हैं या जुगाडू ?
प्रकाशन तिथि : 25 जनवरी 2013

अब्बास और उनके भाई मस्तान विगत दो दशकों से फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में सक्रिय हैं और उन्हें मौलिक कहानियों पर फिल्में बनाने से सख्त परहेज है। वे हमेशा हॉलीवुड से प्रेरणा लेकर फिल्में बनाते हैं। सच तो यह है कि अनेक लोग यही करते हैं, परंतु अब्बास-मस्तान ये सरेआम कहते भी हैं। अब्बास-मस्तान की फिल्मों में घटनाक्रम तेजी से घूमता है और गति उनका मूल लक्ष्य है। इसलिए उनकी फिल्म का नाम 'रेस' अर्थात दौड़ होना कुछ अजीब नहीं लगता। कुछ फिल्मकारों की मति गति में ही है। उनका ख्याल है कि युवा वर्ग को तेज रफ्तार फिल्में उसी तरह पसंद हैं, जैसे उन्हें तेज गाड़ी चलाने का जुनून होता है और दुर्घटना को दावत देना उनकी जीवनशैली बन जाता है।

फिल्मों के बारे में प्राय: दर्शक इस तरह की बात करते हैं कि अमुक फिल्म धीमी है या फलां फिल्म तेज है। फिल्म निर्माण तो 24 फ्रेम प्रति सेकंड की गति से ही होता है। दरअसल दर्शक बोर करने वाली फिल्म को धीमी और मनोरंजक फिल्म को तेज गतिवाली फिल्म के रूप में बयान कर रहा है। चार घंटे चलने वाली 'संगम' दर्शक को लंबी नहीं लगी, क्योंकि वह मनोरंजन करती है, जबकि उसका घटनाक्रम मात्र एक प्रेम-त्रिकोण का है और पूरी फिल्म में घटनाएं अधिक नहीं हैं। यहां तक कि उसके 40 मिनट के क्लाइमैक्स में केवल तीन पात्र अपनी-अपनी बात ही कर रहे हैं। घटना के नाम पर उस चार घंटे की फिल्म में मात्र एक प्लेन का दुर्घटनाग्रस्त होना और नायक का संयोगवश बच जाना मात्र है। सारी फिल्म का आधार सिर्फ इतना है कि नायक नायिका का हिंदी में लिखा खत नहीं पढ़ पाता, क्योंकि उसे वह भाषा नहीं आती और उसका दोस्त खत पढ़ते हुए यह बात छुपा जाता है कि यह प्रेम-पत्र उसे लिखा गया है, क्योंकि वह अपने बचपन के मित्र के एकतरफा जुनूनी प्रेम को जानता है। इस कहानी में एक और प्रेम-पत्र वर्षों बाद नायक अपनी पत्नी के सामान से प्राप्त करता है और अपने जुनून में कहता है कि जब तक लिखने वाले का नाम नहीं मालूम करेगा, 'तब तक अंगारों पर लेटने' की जलन उसे होगी। कहानी की महीन-सी रेखा में प्रेम-पत्र के महत्व के कारण ही हसरत-जयपुरी ने फिल्म के लिए गीत लिखा था- 'ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर कि तुम नाराज न होना'। 'संगम' महज अपने प्रस्तुतीकरण के कारण मनोरंजक सिद्ध हुई, जबकि वही राज कपूर जब सवा चार घंटे की दार्शनिक 'मेरा नाम जोकर' बनाते हैं, तब दर्शक उसमें मनोरंजन के अभाव के कारण उसे नकार देते हैं।

वर्तमान कालखंड में गति को बहुत महत्व दिया जाता है और यहां तक कि कुछ व्यक्तियों को भी 'तेज' कहा जाता है। दरअसल आज जुगाड़ू आदमी को 'तेज' कहते हैं, जो येन-केन-प्रकारेण सफलता अर्जित कर लेता है। आजकल की जीवन-शैली में मनुष्य का जुझारू होने से बेहतर जुगाड़ू होना माना जाता है। जुझारू व्यक्ति अखाड़े की भाषा में मिट्टीपकड़ पहलवान हैं, अर्थात आप उसे गिरा तो सकते हैं, परंतु चित (पराजित) नहीं कर सकते। आज सारी राजनीति जुगाड़ू लोगों से अटी पड़ी है। समाज में चतुर व्यक्ति को बुद्धिमान माना जाने लगा है। चतुराई फिर सफलता से जुड़ी है, जबकि बुद्धिमानी जीवन के दर्शन से।

अब्बास-मस्तान और उनकी तरह के अन्य फिल्मकार गति को तर्क से अधिक महत्व देते हैं। फिल्मों में तर्कहीनता भी संभाव्य के दायरे में ही स्वीकार की जाती है। फिल्म के सारे प्रतिमान और मानदंड बदल गए हैं। अब गुणवत्ता सफलता के लिए आवश्यक नहीं रह गई है और हम समाज में भी देख रहे हैं कि बातूनी और लफ्फाजी करने वालों को बुद्धिमान समझा जा रहा है। इसी तरह कविता के क्षेत्र में भी जिनकी पंक्तियां आसानी से उद्धृत की जा सकती हैं, उन्हें अच्छा कवि माना जा रहा है। सारे गंभीर विचारों के मामले आकर उन वाक्यों पर ठहर जाते हैं, जिन पर श्रोता ताली बजा रहा है और ताली की गिजा पर कितने ही लोग सफल भी मान लिए जा रहे हैं। समाज की मजबूत प्रवृत्तियां हर क्षेत्र में अलग ढंग से अभिव्यक्त होती हैं। समाज में लोकप्रिय जुगाड़ू प्रवृत्ति के बारे में ही ईबी वाइट कहते हैं कि वे मनुष्य प्रजाति के विषय में इसलिए निराशावादी हैं कि मनुष्य में विकसित जुगाड़ू प्रवृत्ति स्वयं उसके अस्तित्व के लिए कब घातक हो जाती है, वह जान ही नहीं पाता। दरअसल जीवन जुझारूपन का नाम है, जुगाड़ू होने का नहीं। महत्वपूर्ण गति नहीं, वरन मति है।