आबशारे न्याग्रा / प्रेमचंद
प्रकृति ने जहाँ मानव को बहुत से उपहार प्रदान किए हैं, वहीं उनमें वे रंगबिरंगे पहाड़ भी हैं जिन्हें प्रकृति के उदार हाथों ने फूलों के गुलदस्तों की भाँति उत्तरोत्तर सजाया है। जहाँ ऊँचे-ऊँचे वृक्ष आकाश से बातें करते हैं, सुन्दर युवा उद्यान अपनी प्रेयसी शीतल मन्द हवा से आलिंगनबद्ध होकर आत्ममुग्ध और आत्मविस्मृत हुए झूमने लगते हैं, और कभी उसके आनन्ददायक झोंकों से मस्ती में आकर अपने स्रष्टा के नाम का स्मरण करने लगते हैं। जहाँ प्रपातों और निर्झरों से बहता हुआ स्वच्छ शीतल जल अपने प्रेमियों की व्यथा और संताप मिटा रहा है। जहाँ संसार की चिन्ताएँ और बाधाएँ बात की बात में मिट जाती हैं और मन सहसा पाँव पीछे हटाने से वर्जित करने लगता है और कहता है कि यह चार दिन का जीवन प्रकृति के स्वयं उद्भूत संरक्षण और उसके रचयिता की पूजा-अर्चना में व्यतीत कर दीजिए। ये वही पवित्र स्थान हैं जिनमें योगियों, मुनियों और संन्यासियों के आवास रहे हैं। ये वही पवित्र स्थान हैं जहाँ बैठकर संसार से विरक्त पूर्ण ज्ञानियों ने आत्म-साक्षात्कार और लोकहित तथा लोक-कल्याण के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। यही वे प्राकृतिक दृश्य थे जिनमें स्वामी राम खो गए। उनका यह शेर उनकी मानसिकता का अनुमान करने के लिए पर्याप्त है -
लोग कहते हैं कि मैदानों में रहना ठीक है
कौन जाए राम अब गंगा की लहरें छोड़कर
पता नहीं शहंशाह बाबर ने किस आधार पर भारतवासियों पर आरोप लगाते हुए और आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था - ‘विचित्र रसहीन लोग हैं। यदि डेरा लगाना हो तो नदी की ओर पीठ कर लेते हैं। इनके मन पर प्राकृतिक दृश्यों का तनिक भी प्रभाव नहीं होता।’
ऐसी बेबसी की दशा में जबकि लोग विदेशी आक्रान्ताओं से भयभीत थे और गृहयुद्ध तथा पारस्परिक झंझटों में फँसे हुए थे, प्राकृतिक दृश्य उन पर क्या प्रभाव छोड़ते! इसी प्रकार विदेशी लेखकों ने अन्य बातों में अपना मत निर्धारित करने में त्रुटि की है। भारतवासियों पर यह एक धार्मिक प्रतिबन्ध था जिसकी पृष्ठभूमि में पूर्वजों का यही गुप्त मन्तव्य था कि तीर्थ यात्राओं, दर्शनीय स्थलों जैसे बदरीनारायण, केदारनाथ, अमरनाथ, वैष्णोदेवी, कांगड़ा, ज्वालामुखी, मक्का-मदीना के दर्शनों के बहाने मनुष्य प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द ले, अपने ज्ञान में वृद्धि करे, पहाड़ों के व्यापार और देश-देश की उपज से परिचय प्राप्त करे। यह नहीं कि चिड़चिड़े अज्ञानियों की भाँति आँखें मूँदे जाएँ और ईसा के गधे की भाँति कोरे के कोरे वापस चले आएँ। ऐसे ही स्थान और वस्तुएँ प्रकृति ने अन्य देशों के निवासियों के लिए भी उत्पन्न की हैं ताकि अपने अवकाश के क्षणों में लोग इनका आनन्द लें और प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर ईश्वर का स्मरण करें।
इनमें एक विक्टोरिया जल-प्रपात है जो अफ्रीका महाद्वीप के निवासियों को अपना प्रेमी बनाए हुए है। ऐसा ही एक जल-प्रपात अमरीका महाद्वीप में है जो आबशारे न्याग्रा के नाम से प्रसिद्ध है। सुन्दर दृश्यों के प्रेमी यहाँ के निवासी आश्चर्यजनक बुद्धिमत्ता से कार्य कर रहे हैं और दिन-रात इसी चिन्ता में रहते हैं कि ईश्वर ने आँखें तो दी हैं लेकिन हम अभी तक इनसे सूर्य के प्रकाश में ही काम ले सकते हैं। इसलिए कोई ऐसा उपाय खोज निकाला जाय जिससे इस जल-प्रपात की सुन्दरता का दृश्य और पूर्ण स्रष्टा की कलाकारी तथा कारीगरी का अनुभव रात और दिन में एक समान कर सकें। वे प्रत्येक दिन को ईद और रात को शबे बरात बनाने के इच्छुक हैं। सच पूछिए तो न्याग्रा जल-प्रपात का सौन्दर्य रात के समय ही निखार पर आता है जब उसकी चित्ताकर्षक जल-चौकी का सम्पूर्ण विस्तार विभिन्न रंगों के प्रकाश से दैदीप्यमान हो जाता है। इस उत्कृष्ट दृश्य की सुन्दरता का क्या वर्णन हो सकता है, मनुष्य क्या देवता भी आकाश से देख लें तो हजार जान से मुग्ध हो जाएँ।
दीर्घकाल तक अमरीका वाले इस दुविधा में रहे कि किन माध्यमों और संसाधनों से यह जल-प्रपात रात्रि के समय प्रकाशमान होकर मनमोहक हो सकता है। रात्रि के समय इसमें दर्शकों के लिए निरन्तर जल गिरने के शोर के अतिरिक्त और कुछ भी मनमोहक विशेषता नहीं थी। लम्बे समय तक विचार-विमर्श होता रहा। अन्ततः यह महत्त्वपूर्ण कार्य न्याग्रा जल-प्रपात के उत्साही अधिकारी को सौंपा गया और इसकी सफलता का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त हुआ, क्योंकि अब आप इस अनुपमेय जल-प्रपात को प्रकृति के अत्यन्त विचित्र रंगों में नहाता हुआ देख सकते हैं।
वास्तव में यहाँ दो पृथक्-पृथक् जल-प्रपात हैं - 1. गोट टापू - जो एक पाषाणी भूखण्ड है और नदी को दो भागों में विभक्त करता है। कैनेडा वाले भाग को हॉर्स शू या कैनेडा का जल-प्रपात कहते हैं जिसकी गहराई 158 फिट और चौड़ाई 2640 फिट है।
इस टापू के दूसरी ओर दूसरा जल-प्रपात है जो अमरीकी जल-प्रपात के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी गहराई 162 फिट और चौड़ाई लगभग 1000 फिट है। इन दोनों दरारों को स्वच्छ करती जाने वाली पानी की धार या लहर में जल का प्रवाह एक करोड़ पचास लाख घन फिट प्रति मिनट है। सितम्बर 1907 में ये दोनों जल-प्रपात पहली बार प्रकाशित किए गए थे। यह परीक्षण बड़ी-बड़ी मशालों की सहायता से किया गया था। 50 मशालें प्रज्ज्वलित की गई थीं जो इसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए जनरल इलैक्ट्रिक कम्पनी से बनवाई गई थीं और जिन्हें कम्पनी के प्रसिद्ध इंजीनियर श्री डब्ल्यू.डी.ए. रामन साहब ने अत्यन्त श्रमपूर्ण प्रयास से सुसज्जित किया था। एक प्रकाशगृह जिसमें 21 मशालें थीं, ओंटेरियो के निकट कैनेडा की घाटी में स्थापित किया गया था और चाँद जैसे लैम्प बराबर-बराबर रख दिए गए थे ताकि इससे दोनों जल-प्रपातों पर प्रकाश पड़े। दूसरा प्रकाशगृह पहले स्थान से कुछ ऊँचाई पर स्थापित किया गया ताकि उससे जल-प्रपातों के ऊपरी भागों पर प्रकाश की जगमगाती किरणें पड़ सकें। तीसरा प्रकाशगृह विक्टोरिया बाग में बनाया गया जिससे अमरीकी जल- प्रपात पर प्रकाश पहुँच सके। जो लोग प्रायः कहते थे कि नदियों की शक्ति निरर्थक नष्ट हो रही है, उनसे किसी प्रकार का काम नहीं लिया जाता, उन लोगों की इच्छा भी पूर्ण हो गई। इन मशालों और प्रकाशगृहों को प्रकाश पहुँचाने का कार्य इन जल- प्रपातों से ही लिया जा रहा है, जिसका अर्थ यह है कि ये स्वयं अपने आपको प्रकाश पहुँचा रहे हैं। इस विद्युत-यन्त्र को चलाने के लिये 300 अश्वशक्ति विद्युत और बीस करोड़ कैंडिल पावर के प्रकाश की आवश्यकता थी। बीस करोड़ कैंडिल पावर के प्रकाश की तीव्रता का अनुमान तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि इस देखने योग्य दृश्य का आनन्द स्वयं न उठा लिया जाए।
प्रकाश को और अधिक तीव्र तथा आकर्षक बनाने के लिए विभिन्न रंगों का प्रकाश उत्सर्जित करने वाले ऐसे उपकरणों से काम लिया जाता है जो गोल होते हैं और जिनसे रंगीन छल्ले निकाले जाते हैं। इस उपाय से अधिकारियों के मनोनुकूल विभिन्न रंगों की किरणें प्रकट होती जाती हैं। दर्शक यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाता है कि मानवीय आँखों ने ऐसा दृश्य पहले कहीं नहीं देखा था। विचित्र प्रभाव छा जाता है। प्रतीत होता है कि जो पानी दरार पर से होकर जा रहा है वह पिघली हुई चाँदी का ही ढेर है। फिर मानो किसी ने जादू कर दिया और सहसा पानी की रुपहली लहरें गहरे नीले रंग में परिवर्तित हो गईं। बात की बात में यह रंग भी मद्धम पड़ गया और पानी हरा, पीला, लाल, कत्थई होता गया। फिर कुछ क्षणों के लिये घुप्प अंधेरा छा गया लेकिन कुछ समय पश्चात् जल-प्रपात का एक किनारा सफेद प्रकाश की किरणों से चमक उठा और शेष भाग नीले से। और इसी प्रकार विभिन्न रंगों में परिवर्तित होता रहा, यहाँ तक कि उस तट पर दस-बारह भिन्न-भिन्न रंग गिरते दिखाई देते हैं। फिर इसका क्रम बदल गया। जल-प्रपात के किनारे-किनारे सफेद प्रकाश चमक उठा। उससे कुछ ही फिट नीचे पानी भिन्न रंग लिए हुए था और नीचे तक जल-प्रपातों की यही दशा थी। इस समय इसकी घरघराहट और गति भी उन्मत्त भाव की होती है। कभी नाचते और कभी चक्कर काटते हुए दिखाई देते फेनिल बादल वह आनन्द उत्पन्न करते हैं कि दर्शक का मन अनचाहे ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। रंगों का मिश्रण और पानी की अठखेलियाँ इन्द्रधनुष की समस्त विशेषताओं को निःशेष कर देती हैं। एक प्रसिद्ध पर्यटक का कथन है कि कोई कवि या लेखक अभी तक इस दृश्य के सौन्दर्य का वर्णन नहीं कर सका। इसका वर्णन करना मात्र कल्पना शक्ति का काम नहीं है जो उड़ती हुई धुंध और गिरते हुए पानी की सुन्दरता को स्पष्ट कर सके, विशेषकर उस समय जब इन पर नितान्त अंधेरे से अचानक प्रकाश की चमक दिखाई देती है।
हॉर्स शू जल-प्रपात के लाल और नीले रंगों से मिलकर उत्पन्न होने वाले दृश्य का वर्णन अनिर्वचनीय है। ऐसा ही प्रभावोत्पादक और मनमोहक दृश्य उस समय दिखाई देता है जब लाल, सफेद और नीली किरणें पानी की सतह पर पड़ती हैं।
जब पानी पर रंगीन किरणें पड़ती हैं तो कुछ बम के गोले छोड़ दिए जाते हैं जिनके छूटते ही धुँए के बादल बन जाते हैं जिन पर कृत्रिम प्रकाश पहुँचाया जाता है तो आकाश पर उड़ता हुआ धुँआ एक कृत्रिम बादल का रूप ग्रहण कर लेता है जिस पर विभिन्न रंगों की छाया पड़ती है। कई बार ये बादल सितारों के समान हो जाते हैं और अत्यन्त विचित्र तथा सुन्दर लगते हैं। कभी-कभी बिजली के प्रकाश की किरणें उस बड़े इस्पाती पुल पर डाली जाती हैं जो जल-प्रपातों के नीचे बना हुआ है। यहाँ से दर्शकों के झुंड के झुंड स्पष्ट दिखाई देते हैं। प्रकाश की ये किरणें सौ मील और कभी-कभी डेढ़ सौ मील की दूरी से दिखाई देती हैं।
इस यन्त्र को स्थापित करने के लिये न्याग्रा जल-प्रपात के अधिकारी ने एक हजार पाउण्ड चंदा इकट्ठा किया था और इस धनराशि से वह जल-प्रपात को एक मास तक प्रत्येक रात्रि में एक घंटे तक प्रकाशित करता रहा। आजकल वह उसके लिए मशाल की तैयारी में व्यस्त है और उसका विचार पहले से भी अधिक भव्य और शक्तिशाली यन्त्र बनाने का है जो अनुमानतः बीस हजार पाउण्ड की लागत से तैयार हो सकेगा और जिसे चलाने के लिए छह सौ पाउण्ड वार्षिक का व्यय होगा।
मिस्टर डगलस कहते हैं कि यह विचित्र तथा अद्वितीय दृश्य न्याग्रा के हजारों लोगों को प्रभावित किए बिना नहीं रहेगा। इस भव्य जल-प्रपात का जो प्राकृतिक सौन्दर्य दिन में दृष्टिगोचर होता है, कहीं मनमोहक है परन्तु इस नवीन उपाय से उसके आकर्षण में हजार गुनी वृद्धि हो जाएगी। और यह ऐसा दृश्य है जो किसी भी घुमक्कड़ मन में घर किए बिना नहीं रह सकेगा।
[दाल-रे के संक्षिप्त लेखकीय नामोल्लेख के साथ प्रकाशित होने वाला प्रेमचंद का सर्वप्रथम लेख ‘आबशारे न्याग्रा’ शीर्षक से मुंशी दयानारायण निगम के सम्पादन में कानपुर से प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘जमाना’ के जुलाई 1908 के अंक में पृष्ठ संख्या 41 से 45 तक प्रकाशित हुआ था। दाल-रे के लेखकीय नामोल्लेख से प्रेमचंद की अनेकानेक रचनाएँ प्रकाशित होने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं]